एक शिष्य ने गुरु चरणों में वंदना करते हुए पूछा, ‘गुरुवर इस संसार में किस ढंग से रहना चाहिए?’ गुरु पहले तो मुस्कराये फिर बोले, ‘अच्छा प्रश्न किया है, एक-दो रोज में व्यवहार द्वारा ही उत्तर दूंगा, जिससे अच्छी तरह से समझ लोगे. अगले दिन एक श्रद्धालु मिठाइयां लेकर आया और गुरु को स्नेहपूर्वक भेंट की. संत ने लेकर पीठ फेर ली और सब खा गये. न तो वहां अन्य बैठे लोगों को वह मिठाई दी और न ही भेंट करने वाले आगंतुक की ओर ध्यान दिया. जब वह चला गया तब गुरु ने शिष्य से पूछा, ‘उस व्यक्ति पर क्या प्रतिक्रिया हुई?’
शिष्य ने बताया कि वह दुखी होकर भला-बुरा कहने लगा- ऐसे भी क्या संत? सब मिठाई अकेले ही खा गये. न मुझे पूछा, न किसी और को. दूसरे दिन, दूसरा व्यक्ति कुछ फल भेंट लाया. संत ने उन फलों को उठाकर पीछे फेंक दिया और लानेवाले से बडे प्यार से बातें करने लगे. बाद में पता चला कि वह व्यक्ति भी दुखी होते हुए कह रहा था कि मुझसे तो इतना प्यार जताया, मगर मेरी भेंट का अपमान कर दिया. फिर तीसरा व्यक्ति मिठाई व फल भेंट में लाया. संत ने भेंट को आदर से लेकर कुछ स्वयं ने खाया, कुछ उसे दिया और शेष अन्य शिष्यों में वितरित करवा दिया. भेंट देनेवाले से स्नेहपूर्वक चर्चा भी की. उसके चले जाने के बाद गुरु ने शिष्य से उसकी प्रतिक्रिया के बारे में पूछा. तब शिष्य ने बताया कि वह व्यक्ति प्रसन्न होकर आपकी सराहना कर रहा था. यह दृष्टांत हम सभी मनुष्यों पर भी लागू होता है, कैसे?
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गुरु ने शिष्य को समझाया- दाता यानी कि भगवान बड़ी ही प्रसन्नता से हमें अनेक भेंट देता है और हम उन्हें भोगते हैं परंतु दाता की ओर ध्यान नहीं देते, यह पहला व्यवहार हुआ. दूसरा व्यवहार यह है कि हमने ईश्वर के उपहारों को तो बर्बाद कर दिया, फेंक दिये और स्तुति करते रहे कि ईश्वर दयालु है, सबकी रक्षा करता है, लेकिन भेंट को फेंकते रहे. तीसरा व्यवहार यह है कि दाता का उपकार मानते हुए, उसकी दी हुई भेंट को सही ढंग से प्रयोग किया. उपहारों से परमार्थ के कार्य भी किये और दाता के साथ भी सहज संबंध बनाये रखे जीने का सही ढंग यही है. सचमुच में विधाता ने हमें अनेकानेक उपहार दिये हैं, लेकिन हमने नजरअंदाज किया, इसको स्वीकारा नहीं. श्रीरामचरित मानस में कहा गया है-
बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थन्हि गावा ।।
साधन् धाम मोक्ष कर द्वारा ।
पाई न जेहिं परलोक सँवारा ।।
– (रा०च०मा०/उ०का०/42)
लेकिन हम भला कहां समझते हैं? दुनिया की आपाधापी में हमने अपने दाता को भुला दिया और माया के कैदी हो गये. कोई छोटा कैदी है, तो कोई बड़ा. सभी माया के कैदी हैं. मोक्ष का दरवाजा है, यह अनमोल जीवन परंतु नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं, क्यों? क्योंकि कभी भूल-चूक में भी ईश्वर का आभार नहीं जताया और उल्टा उसे दोष देते हैं जब भयंकर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है. जरा सोचिए, ईश्वर ने क्या नहीं दिया हमें? मां के गर्भ में लालन-पालन करनेवाला कौन था? जन्म होने पर सभी आवश्यक चीजों की पूर्ति किसने की? कंचन से भी महंगी यह सुंदर काया मिली और हीरा से ज्यादा बेशकीमती सांसों का खजाना देकर हमें इस संसार में भेजा सुंदर तरह से जीवन व्यतीत करने के लिए. इसलिए सभी संत-महात्माओं ने समझाया है कि यह जीवन व्यर्थ न गंवाओ, इसका मकसद पूरा करो, वरना सिर धुन-धुन कर पछताना होगा अंत समय में.
अंत समय तो दूर है, अभी से दुखी, परेशान, व्याकुल हैं, क्योंकि अहंकार, नफरत, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ-लालच की प्रवृत्तिओं में जीना-कोई जीना है? दाता के उपहारों को समझना, उसके लिए दाता को धन्यवाद देना बहुत जरूरी है. तो ईश्वर का आभार मानते हुए खुशी से जीवन जीना सीखें. – सुमन सागर