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अपने ‘पिया के देस’ में 165 साल बाद भी बसती है नवाब वाजिद अली शाह की विरासत

इतिहास अनुरागी नौकरशाह शहंशाह मिर्जा (54) ने कहा कि मेरे परदादा, जो 13 मई को स्टीमर से यहां पहुंचे, मुक्त किये जाने के बाद कहीं भी रह सकते थे, लेकिन उन्होंने इस शहर को ही चुना.

कोलकाता : समझा जाता है कि करीब 165 साल पहले मई के महीने में अवध के आखिरी शासक नवाब वाजिद अली शाह ने अब के प्रसिद्ध गीत ‘बाबुल मोरा नईहर छूटो जाय…. मैं चली पिया के देस’ लिखा था, जब वह अपने जीवन के अगले 31 वर्ष निर्वासन में बिताने के लिए कोलकाता रवाना हुए थे. सत्ता से हटा दिये गये नवाब गवर्नर जनरल लॉर्ड चार्ल्स कैनिंग के पास गुहार लगाने आये थे, लेकिन उन्हें फोर्ट विलियम में कैद कर लिया गया.

दरसअल, ईस्ट इंडिया कंपनी को डर था कि वह प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान सिपाही विद्रोहियों के लिए एक जगह केंद्रित होने के स्थल में बदल सकता है. हालांकि, अगले ही साल प्रथम स्वाधीनता संग्राम हुआ था. दो साल बाद जब वाजिद अली रिहा किये गये, तब उन्होंने तथा निर्वासन में उनके साथ रहने का चुनाव करने वाले उनके कई दरबारियों ने अपने ‘पिया के देस’ रहने का फैसला किया, जिसने इस महानगर की साझी संस्कृति को संगीत, नृत्य, ऊर्दू काव्य, फैशन और मिश्रित व्यंजन की सौगात दी.

इतिहास अनुरागी नौकरशाह शहंशाह मिर्जा (54) ने कहा कि मेरे परदादा, जो 13 मई को स्टीमर से यहां पहुंचे, मुक्त किये जाने के बाद कहीं भी रह सकते थे, लेकिन उन्होंने इस शहर को ही चुना. हम मानते हैं कि उन्हें इसकी संस्कृति से प्रेम हो गया और उन्होंने रिहाइश के लिए मेटियाबुर्ज या मटियाबुर्ज को चुना, जहां उन्हें अपने प्यारे लखनऊ का अवशेष नजर आया.

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नवाब ने कलकत्ता में आगे के सालों में सिब्तेनाबाद इमामबाड़ा एवं 18 महल बनवाये, लेकिन उनके वंशज बिखर गये, क्योंकि अंग्रेजों ने किसी न किसी बहाने इन महलों को ढाह दिया. मिर्जा और उनके पिता एवं अवध रॉयल फैमिली एसोसिएशन के अध्यक्ष 86 वर्षीय साहबजादे वासिफ मिर्जा अब दरगाह रोड पर तालबगान लेन में एक मामूली हालांकि आलीशान पुराने मकान में रहते हैं.

मिर्जा ने कहा कि 1856 में उनके सिर्फ 500 अनुयायी उनके साथ आये थे. लेकिन, जैसे ही खबर फैली कि वह शहर में मेटियाबुर्ज में लखनऊ जैसा शहर बना रहे हैं, तो उनके कई दरबारी, शिल्पी, संगीतकार आ गये और वे यहां फले-फूले.

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Posted By: Mithilesh Jha

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