साहित्य: नब्बे साल के शेखर जोशी

पिछले साल उन्होंने अपने बचपन, आस-पड़ोस के समाज को ‘मेरा ओलियागांव’ किताब में दर्ज किया. इस किताब में कुमाऊं पहाड़ियों के गांव में बीता लेखक का बचपन है, विछोह है. बचपन से लिपटा हुआ औपनिवेशिक भारत का समाज चला आता है.

By Prabhat Khabar News Desk | September 25, 2022 10:21 AM

नयी कहानी आंदोलन के प्रमुख रचनाकार शेखर जोशी ने पिछले दिनों जीवन के नब्बे वर्ष पूरे किये. पचास-साठ के दशक में अमरकांत-मार्कण्डेय-शेखर जोशी (इलाहाबाद की त्रयी) उसी तरह चर्चा में रही, जिस तरह राजेंद्र यादव-कमलेश्वर-मोहन राकेश की तिकड़ी. नयी कहानी के अधिकतर रचनाकार अब हमारी स्मृतियों में हैं. शेखर जोशी उम्र के इस पड़ाव पर भी रचनाकर्म में लिप्त हैं. पिछले दिनों उनका कविता संग्रह ‘पार्वती’ प्रकाशित हुआ था. पचास के दशक के मध्य के इलाहाबाद प्रवास को याद करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘यह समय इलाहाबाद का साहित्यिक दृष्टि से स्वर्णिम कालखंड था.’ इस कविता संग्रह के अलावा ‘न रोको उन्हें, शुभा’ भी प्रकाशित है. ‘पार्वती’ संग्रह में धानरोपाई, विश्वकर्मा पूजा से लेकर निराला, नागार्जुन जैसे कवियों की यादें हैं. साथ ही संग्रह में कवि के बचपन की स्मृतियां भी हैं.

अरविंद दास, लेखक-पत्रकार

पिछले साल उन्होंने अपने बचपन, आस-पड़ोस के समाज को ‘मेरा ओलियागांव’ किताब में दर्ज किया. इस किताब में कुमाऊं पहाड़ियों के गांव में बीता लेखक का बचपन है, विछोह है. बचपन से लिपटा हुआ औपनिवेशिक भारत का समाज चला आता है. स्मृतियों में अकेला खड़ा सुंदर देवदारु, काफल का पेड़ है, बुरुंश के फूल हैं. पूजा-पाठ और तीज-त्यौहार हैं. लोक मन में व्याप्त अंधविश्वास और सामाजिक विभेद भी हैं. उनकी कहानी ‘कोसी का घटवार’ ‘परिंदे’ (निर्मल वर्मा) और ‘रसप्रिया’ (फणीश्वर नाथ रेणु) के साथ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में गिनी जाती है. लछमा और गुंसाई हिंदी साहित्य के अविस्मरणीय चरित्र हैं.

‘मेरा ओलियागांव’ में वे अपनी पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ और ‘कोसी के घटवार’ के उत्स की चर्चा करते हैं. वे लिखते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के समय उन्होंने फौजी वर्दियों में रणबांकुरों को जाते देखा था और उन्हें विदा करने आये लोगों का रुदन सुना था. ‘राजे खत्म हो गए’ एक फौजी की बूढ़ी मां पर लिखी कहानी है. वे लिखते हैं कि ‘कोसी का घटवार’ के नायक ‘गुंसाई’ का चरित्र इन्हीं फौजियों से प्रेरित रहा है. पचास-साठ साल पहले लिखी ‘दाज्यू’, ‘बदबू’, ‘नौरंगी बीमार है’ आदि कहानियां आज भी अपनी संवेदना, जन-जीवन से जुड़ाव, प्रगतिशील मूल्यों और भाषा-शिल्प की वजह से चर्चा में रहती हैं. उनकी कहानियों में कारखाना, मजदूरों, निम्न वर्ग के जीवन और संघर्ष का जो चित्रण है, वह हिंदी साहित्य में दुर्लभ है. शेखर जोशी ने कारखानों के मजदूरों के जीवन को बहुत नजदीक से देखा, जो उनकी रचनात्मकता का सहारा पा कर जीवंत हो उठा.

‘बदबू’ कहानी में एक प्रसंग है- ‘साथी कामगारों के चेहरों पर असहनीय कष्टों और दैन्य की एक गहरी छाप थी, जो आपस की बातचीत या हंसी-मजाक के क्षणों में भी स्पष्ट झलक पड़ती थी.’ इस कहानी में मजदूर अपने हाथों में लगे कालिख को मिट्टी के तेल और साबुन से छुड़ाते हैं, पर गंध नहीं जाती. धीरे-धीरे उन्हें इसकी आदत पड़ जाती है. इस कहानी का अंत बहुत सारे सवाल और संभावनाएं पाठकों के मन में छोड़ जाता है. उनकी कई कहानियों का मंचन भी हुआ, साथ ही ‘कोसी का घटवार’ और ‘दाज्यू’ पर फिल्में भी बनी है.

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