स्वाधीनता संग्राम: महर्षि अरविंद के पिता चाहते थे बेटा कलेक्टर बने, लेकिन देशप्रेम ने बदला जीवन

बालक अरविंद ने लंदन के सेंट पॉल स्कूल में विद्यालयी शिक्षा ली और 80 पौंड की छात्रवृति जीतकर वे किंग्स कॉलेज कैंब्रिज में दाखिला लेने में कामयाब हुए.

By Prabhat Khabar News Desk | August 15, 2023 7:56 AM

6 फरवरी, 1893 को 14 वर्षों के लंबे अंतराल को पाटते हुए अरविंद ने बंबई के अपोलो बंदरगाह पर कदम रखा और सीधे बड़ौदा के लिए प्रस्थान किया. मातृभूमि के स्पर्श ने उनको असीम शांति से भर दिया. बड़ौदा ही वह पुण्य भूमि है, जहां श्री अरविंद ने भारत की आत्मा का साक्षात्कार किया.

बंगाल की रत्नप्रसूता धरती पर डॉ कृष्ण धन घोष और श्रीमती स्वर्णलता घोष के घर श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पावन पर्व पर 15 अगस्त, 1872 को अरविंद का अवतरण हुआ. डॉ घोष अंग्रेजी जीवन शैली, दर्शन और आचार-विचार के मुरीद थे और स्वयं भी विलायत से पढ़े-लिखे थे, इसीलिए अपने अरविंद को (जिन्हें वे प्रेम से ‘ऑरो’ पुकारते थे) तत्कालीन भारतीय सिविल सेवा पास करके भारत में कलेक्टर के उच्च पद पर आसीन देखना चाहते थे, लेकिन नियति ने अरविंद को जो ऊंचाइयां बक्शीं, वे किसी भी भौतिक पद से बड़ी और देशकाल के दायरे को लांघने वाली थी.

बालक अरविंद ने लंदन के सेंट पॉल स्कूल में विद्यालयी शिक्षा ली और 80 पौंड की छात्रवृति जीतकर वे किंग्स कॉलेज कैंब्रिज में दाखिला लेने में कामयाब हुए. यहीं उनका संबंध भारत के ऐसे विप्लवी छात्रों से हुआ, जो ब्रिटिश साम्राज्य से भारतीय स्वाधीनता का स्वप्न बुनते थे. उन्होंने आइसीएस की परीक्षा पास भी की, लेकिन वे मन बना चुके थे कि उनकी मातृभूमि को पददलित और दारुण बनाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन उन्हें कलेक्टर की नौकरी नहीं करनी है.

लगभग इसी समय उनके पिता का भी अंग्रेजी व्यवस्था और मूल्यों से भरोसा उठने लगा था.

बंगाल को बनाया कर्मभूमि : 1892 के अंतिम समय में युवा अरविंद की मुलाकात बड़ौदा के गुणग्राही राजा सयाजीराव गायकवाड़ से हुई और महाराज के निमंत्रण पत्र उनकी रियासत में सेवा करने के लिए तैयार हो गये. 1905 में बंगाल विभाजन से उपजी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उन्होंने बड़ौदा रियासत की सेवा से मुक्त होकर बंगाल को अपनी कर्मभूमि बनाया. वर्ष 1906 से अप्रैल, 1910 तक राष्ट्र की मुक्ति के अनेक महान सूत्र-स्वराज, स्वदेशी का विचार, निष्क्रय प्रतिरोध, स्वदेशी, ग्राम स्वराज्य,

बहिष्कार की नीति आदि पर उनकी लेखनी के माध्यम से भारत को प्राप्त हुए. भगवान की इस लीला में एक अध्याय अलीपुर बम कांड का है, जब ‘बंदे मातरम’ अखबार में अपने विरुद्ध आग उगलती श्री अरविंद की लेखनी से नाराज ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सजायाफ्ता कैदी के तौर पर एक वर्ष का कठोर कारावास दिया. लेकिन वस्तुतः यह अंग्रेजों की नहीं, भगवान श्री कृष्ण का प्रपंच था! जेल में उनकी साधना गहरे आयाम छूती गयी और वहीं उन्हें वासुदेव श्रीकृष्ण के दर्शन हुए, जिन्होंने गीता का सारा ज्ञान अरविंद के हृदय में उतार दिया और स्पष्ट आदेश दिया कि तुम्हारा कार्यक्षेत्र राजनीति नहीं, बल्कि अध्यात्म है. अलीपुर जेल श्री अरविंद के लिए आश्रम बन गयी! अगले 40 साल इसी धरती पर उन्होंने अपने दर्शन के शिखर संदेश अतिमानस की साधना की और पूरे विश्व के लिए नव मानवता के श्रेष्ठतम जीवन का भावी रोडमैप तैयार किया.

1914 से जनवरी 1921 तक ‘आर्य’ नामक मासिक पत्रिका का संपादन और उसके लिए लेखन किया और अपने प्रतिनिधि ग्रंथों यथा ‘दिव्य जीवन’, ‘योग समन्वय’, ‘गीता प्रबंध’, ‘योग के पत्र, ‘भारत में पुनर्जागरण’, ‘ईश उपनिषद’, ‘वेद रहस्य’, ‘मानव चक्र’ और ‘मानव एकता का आदर्श’ के माध्यम से भारत के साथ साथ पूरे विश्व के लिए नव मानवता के श्रेष्ठतम जीवन का भावी रोडमैप तैयार किया.

(आदरणीय डॉ चरण सिंह जी केदारखंडी का विशेष आभार – आप इस आलेख के प्रेरक हैं).

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