आलोक तुलस्यान
पूर्व प्रदेश सचिव, एकीकृत बिहार प्रदेश, श्री अरविंद सोसायटी, पांडिचेरी
भारत भूमि रत्नप्रसूता है और प्रत्येक युग में इस धरती पर युग की धारा को आंदोलित और आलोकित करने के लिए महामानवों का आविर्भाव होता रहता है. ‘दिव्य धरती पर दिव्य मानव और दिव्य जीवन’ का शंखनाद करने वाले महायोगी, महाकवि, नवऋषि, महान दार्शनिक राजनेता और इन सभी लौकिक पहचानों से ऊपर अतिमानस के अवतार महर्षि श्री अरविंद का नाम ऐसे ही महापुरुषों में शुमार है, जिन्होंने पश्चिम के तर्क में शिक्षा पायी और पूरब के ध्यान में दीक्षा.
जिनका जीवन और संदेश पूरब और पश्चिम की पूरी मानवजाति के लिए बहुत ही प्रासंगिक है. इस वर्ष 15 अगस्त का पावन दिन महर्षि श्री अरविंद की जयंती का 150वां वर्ष है, जो उत्सव का एक साझा अवसर भी है. इस विशेष आयोजन में हम उसी ‘सन्निकट और अनिवार्य भविष्य’ के अभियान की कुछ यात्रा करेंगे, जो हमें श्री अरविंद के आभामंडल के थोड़ा-सा करीब ले जाने में सहायक होगा.
भारत को जानने और जनाने की शुरुआत करते समय हम प्रायः उसकी भौगोलिक स्थिति, संरचना और स्वरूप से बात शुरू करते हैं और भारत को हिमालय, गंगा का मैदान, पठार, मरुस्थल और समुद्री तटों से निर्मित देश मानते हैं. लेकिन असल में भारत को भारत बनाता है इसका आध्यात्मिक स्वरूप, इसकी अंतर काया, जिसका पोषण योगियों, ऋषियों और अवतारों ने अपनी तपस्या से किया है. भारत की नियति का निर्धारण तो उसके आध्यात्मिक सूरमा ही करते हैं! भारत के सच्चे स्वरूप को सामने रखते हुए महायोगी ने 1905 में लिखे अपने क्रांतिकारी दस्तावेज़ ‘भवानी मंदिर’ में लिखा – ‘‘राष्ट्र क्या है?
मातृभूमि क्या है? यह कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है, न कोई मुहावरा है और न ही मन की कल्पना है. राष्ट्र एक प्रबल शक्ति का नाम है, जो असंख्य दूसरी शक्तियों के समुच्चय से राष्ट्र रूप में तैयार हुई है. ठीक वैसे ही जैसे लाखों देवताओं की शक्तियों के संयोग से भवानी महिष मर्दिनी का जन्म हुआ.’’ (बंदे मातरम पृष्ठ 65).
एक राष्ट्र के रूप में हम भारतीयों को अभिमान है कि हमने आत्मरक्षा के अतिरिक्त कभी किसी राष्ट्र पर आक्रमण नहीं किया, विस्तारवाद और उपनिवेशिक प्रवृतियों को राष्ट्रीय चरित्र पर हावी होने नहीं दिया. आज भारत में सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह खुद सबल-सफल और संपन्न बनकर विश्व में अपने गौरवशाली अतीत की इस उदार परंपरा का पालन करे. श्री अरविंद का आह्वान है कि भारत को भारतीय बनकर ही बनाया और बचाया जा सकता है. हम लौटें अपनी जड़ों की ओर और वहां से हासिल करें अक्षय ऊर्जा के स्रोत को.
‘द आइडियल ऑफ कर्मयोगिन’ नामक लेख में महायोगी ने लिखा : ‘‘एकमात्र भारतीय ही प्रत्येक चीज पर विश्वास कर सकता है, प्रत्येक कार्य को करने का साहस कर सकता है, प्रत्येक वस्तु का बलिदान कर सकता है. इसलिए सबसे पहले भारतीय बन जाओ. अपने पुरखों की पैतृक संपत्ति को फिर से प्राप्त करो. आर्य विचार, आर्य अनुशासन, आर्य चरित्र और आर्य जीवन को पुनः प्राप्त करो. वेदांत, गीता और योग को फिर से प्राप्त करो. लेकिन उन्हें केवल बुद्धि या भावना से नहीं, बल्कि जीवन द्वारा पुनः जीवित कर दो. उन्हें जीवन में उतारो और तुम महान, शक्तिशाली, अजेय और निर्भय हो जाओगे. तब तुम्हें न तो जीवन भयभीत कर सकेगा और न मृत्यु. ‘कठिन’ और ‘असंभव’ शब्द तब तुम्हारे शब्दकोशों से विलुप्त हो जायेंगे’’(पृष्ठ 7).
1905 में लिखे अपने क्रांतिकारी दस्तावेज ‘भवानी मंदिर’ में श्री अरविंद ने कहा- कोई व्यक्ति या राष्ट्र तब तक कमजोर नहीं हो सकता जब तक वह कमजोर होना स्वीकार न करे; कोई व्यक्ति या राष्ट्र तब तक मिट नहीं सकता जब तक वह अपनी इच्छा से मृत्यु का वरण न कर दे!
भारतीय चिंतन परंपरा में श्री अरविंद का एक महत्वपूर्ण अवदान है- योग और जीवन के अंतर्संबंध को सही परिप्रेक्ष्य में स्थापित करना. हमें यह ध्यान रखना है कि पिछले दो दशक में योग को लेकर भारत सहित पूरी दुनिया में जागरूकता, जिज्ञासा, उत्सुकता और समझ बढ़ी है और 2016 में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की उद्घोषणा के पश्चात् तो पूरा विश्व योग विमर्श में शामिल हो गया है, लेकिन योग संस्कृति को लेकर भारतीय जीवन में हमेशा ऐसा उत्साह नहीं रहा है. महज तीन-चार दशक पहले तक योग साधना केवल साधु-संतों की चीज मानी जाती थी!
भारत के राष्ट्रीय जीवन में अब भी योग की सही दृष्टि और बोध का अभाव है. यही कारण है कि अभी भी अधिसंख्य लोग योग का अर्थ शरीर को निरोगी रखने वाले कुछ व्यायामों से लेते हैं और इसी फलसफे पर करोड़ों-अरबों रुपये का बाजार चल पड़ा है! जो लोग योग को केवल शरीर तक सीमित नहीं करते हैं और उसे एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया मानते हैं, वे भी योग को मन तक सीमित कर देते हैं, जैसे अष्टांग योग अर्थात राजयोग. कुछ लोग कर्मयोग, कुछ मंत्रयोग, कुछ ज्ञानयोग, कुछ हठयोग और बहुत सारे मित्र भक्तियोग को ही योग मान बैठे हैं.
पहली बार श्री अरविंद को पढ़कर ही समझ आता है कि योग कमरे का दरवाजा बंद करके आंख बंदकर किसी और लोक में खो जाना नहीं है. योग सत्य चेतना के संपर्क में आने और उसे जीवन में उतारने की प्रक्रिया है.
श्री अरविंद ने अपनी किताब (गीता प्रबंध) में लिखा : ‘‘हमारा संबंध अतीत की उषाओं से नहीं, भविष्य की दोपहरों से है.’’
श्री अरविंद का अगला निर्णायक और क्रांतिकारी संदेश है- ‘हम अतीत के नहीं, भविष्य के हैं’! भारत के ‘स्वर्णिम और गौरवशाली’ अतीत को लेकर लोग ज्यादा ही सम्मोहित हैं. संस्कृति, धर्म और भारतीय ज्ञान परंपरा को समर्पित किसी सेमिनार में शरीक होकर आप अवसाद के रोगी बन सकते हैं, क्योंकि वहां न केवल अतीत का प्रचंड गुणगान होता है, बल्कि रुदाली के मानिंद उसके बीत जाने पर रोदन भी होता है!
लेकिन क्या कोई राष्ट्र कभी महान और उदात्त जीवन, बहुआयामी संपन्नता का स्वामी सिर्फ इस आधार पर बन सका है कि उसका अतीत स्वर्णिम था? क्या वर्तमान को अनदेखा करके कोई समाज बड़ा बन सका है? महान अतीत इसलिए नहीं होता कि वर्तमान की पीढ़ियां उसके गुणगान में अपना श्रम सौरभ गंवा दें, बल्कि इसलिए होता है कि अतीत की महानता और श्रेष्ठता महान और श्रेष्ठ भविष्य की भूमिका गढ़े. हम वेद पढ़ें, ताकि अपने युग की वेदना को आनंद के समाधान का गीत बना सकें.
श्री अरविंद के दर्शन का सबसे क्रांतिकारी उद्घोषणा है कि ‘मानव अंतिम नहीं है, वह केवल एक बीच की कड़ी यानी मध्यवर्ती सत्ता है’. सावित्री महाकाव्य के शब्दों में कहें तो ‘पशु और देवता के बीच एक समझौता ‘! यानी मनुष्य आधा पशु है और आधा देवता. अपने जीवन को उच्चतर संकल्प और साधना की दिशा में मोड़कर वह देव पुरुष बन सकता है. दूसरी ओर अनाचार, अधर्म, अन्याय और आसुरी शक्तियों के प्रभाव में आकर और धर्म और विवेक से च्युत होकर वह पूरी तरह पशु भी हो सकता है.
भारत महर्षि श्री अरविंद बीसवीं सदी के पहले दशक में लोकमान्य तिलक के साथ भारत के सबसे चर्चित जननायक थे. ब्रिटिश ‘राज’ को उनकी कलम का इतना खौफ था कि तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिंटो ने भारत सचिव लॉर्ड मार्ले को एक पत्र में लिखा- ‘‘भारत में फिलहाल अरविंद घोष सबसे खतरनाक आदमी है, जिससे हमें निपटना है. युवा और विद्यार्थी वर्ग पर उसका बहुत प्रभाव है’’ (श्री अरविंद और मानवता को उनकी देन पृष्ठ 13).
उनकी अपार बौद्धिक क्षमता और गहरी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि 1893-94 में बंबई से प्रकाशित ‘इंदु प्रकाश’ पत्रिका में पुरानों के लिए नये दीप शीर्षक से लिखे गये उनके लेखों से स्पष्ट हो जाती है. उस समय शक्ति और सपनों से लबरेज 22 साल के अरविंद घोष ने प्रेयर, प्रोटेस्ट और पेटिशन (प्रार्थना, मूक विरोध और याचना) की नीति पर चलने वाली तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर तीव्र प्रहार किया था. इसका ऐसा असर हुआ कि कांग्रेस के चर्चित नेता महादेव गोविंद रानाडे ने इंदु प्रकाश के प्रकाशक को प्रेस बंद करवाने की धमकी दे डाली!
1908 के बेहद चर्चित अलीपुर बम कांड की साजिश में जब श्री अरविंद को ब्रिटिश हुकूमत ने पूरे एक साल तक एकांत कारावास में रखा, तब सुनवाई के अंतिम समय में पराधीन भारत राष्ट्र के फलक पर सूर्य की तरह दमकने वाले अरविंद घोष की वकालत करने वाले देशबंधु चित्तरंजन दास ने उन्हें ‘देशभक्ति का कवि, राष्ट्रवाद का मसीहा और मानवता का प्रेमी’ कह कर संबोधित किया था.भा देशबंधु चित्तरंजन दास ने उन्हें ‘देशभक्ति का कवि, राष्ट्रवाद का मसीहा और मानवता का प्रेमी’ कहकर संबोधित किया.
श्री अरविंद का संदेश इतना नवीन है कि उन्हें तात्विक रूप से समझने के लिए भारत को अभी अनेक वर्ष और लगेंगे ! बीसवीं सदी के पहले दशक में स्वदेशी, बॉयकॉट, पूर्ण स्वराज, निष्क्रिय प्रतिरोध और ग्राम स्वराज जैसे विचार देने वाले श्री अरविंद ही थे, जिनका सदी के दूसरे और तीसरे दशक में महात्मा गांधी ने अनुगमन किया. एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह है कि अपनी पत्रिका ‘बंदे मातरम’ के माध्यम से श्री अरविंद ने अप्रैल, 1907 में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत की पूर्ण स्वाधीनता की मांग की.
इस प्रकार भारत की स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में पूर्ण स्वराज की मांग करने वाले वे पहले भारतीय थे. लेकिन त्रासदी यह है कि अधिकांश भारतीय इस सत्य से अनजान हैं. श्री अरविंद एक फिगर यानी व्यक्ति न होकर एक फोर्स यानी प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति थे. नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार रोमां रोलां ने उन्हें ‘पूरब और पश्चिम का सबसे बेहतरीन समन्वय’ कहा है. स्वाधीनता के इस ब्रह्म मुहूर्त में बहुत साररूप में समकालीन भारत को श्री अरविंद के दिये इन संदेशों को समझना चाहिए और उस पर मंथन करना चाहिए.