लोकहित के लिए बनें स्वास्थ्य नीतियां
देश की स्वास्थ्य सेवा में पैसे का कितना बोलबाला बढ़ गया है, इसे देखने के लिए, ईश्वर ना करे, किसी को गंभीर रूप से बीमार होना पड़े. अगर आप सरकारी अस्पताल में पहुंच गये, तो यह आपके भाग्य पर निर्भर करेगा कि आपका किसी भले डॉक्टर से पाला पड़े.
धरती का भगवान डॉक्टरों को कहा गया है, लेकिन क्या ये भगवान सचमुच अपनी इस भूमिका को निभा पा रहे हैं? उदारीकरण के बाद जिन पेशों का सबसे ज्यादा विकास हुआ है, उसमें चिकित्सा व्यवसाय भी एक है. उदारीकरण के असर की शायद आशंका ही थी कि शुरू से ही शिक्षा और स्वास्थ्य को राज्य के हवाले करने की मांग होती रही है, पर इसे सरकारों ने लगातार अनदेखा किया. अब राजस्थान पहला ऐसा राज्य बन गया है, जो स्वास्थ्य को एक तरह से नागरिक का अधिकार बनाने को तैयार हो गया है, लेकिन राज्य में पहले निजी और फिर सरकारी डॉक्टर और दूसरे स्वास्थ्य कर्मचारी इसके विरोध में उतर आये.
संविधान के मुताबिक, स्वास्थ्य समवर्ती सूची का विषय है. वैसे अनुच्छेद 21 में नागरिक को स्वास्थ्य का अधिकार भी मिला हुआ है. कहा जा सकता है कि आजादी के 75 साल बाद किसी राज्य सरकार ने इस अधिकार की सुध ली और उसने सितंबर, 2022 में इस सिलसिले में कानून भी बना दिया. चूंकि राज्य में कुछ महीने बाद चुनाव हैं, तो अशोक गहलोत की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार को इसमें सियासी फायदा नजर आ रहा है. इस कानून का विरोध कर रहे डॉक्टरों का आरोप है कि इसके लागू हो जाने पर डॉक्टर स्वतंत्र होकर मरीजों का इलाज नहीं कर सकेंगे.
देश की स्वास्थ्य सेवा में पैसे का कितना बोलबाला बढ़ गया है, इसे देखने के लिए, ईश्वर ना करे, किसी को गंभीर रूप से बीमार होना पड़े. अगर आप सरकारी अस्पताल में पहुंच गये, तो यह आपके भाग्य पर निर्भर करेगा कि आपका किसी भले डॉक्टर से पाला पड़े. रही बात निजी अस्पतालों की, तो वहां जाते ही सबसे पहले आपकी जेब की तलाशी शुरू हो जाती है. ज्यादातर मामलों में जान-बूझकर इतने टेस्ट करा लिये जायेंगे, ऐसे-ऐसे ऑपरेशन कर लिये जायेंगे, जिनकी उस रोग विशेष में जरूरत नहीं होगी.
दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में अधिक कीमत के सामान लेने और डॉक्टर के सुझाये जांच केंद्र जाने के लिए रोगी पर दबाव बनाने के मामले सामने आये हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार की मौजूदा सरकारों का दावा है कि उनके यहां विकास की धारा बह रही है, लेकिन आप यदि इन राज्यों के कस्बों और जिलों में पिछले एक दशक में बने बेहतरीन मकानों की जानकारी लें, तो आपको ज्यादातर मकान या तो ठेकेदारों के मिलेंगे या डॉक्टरों के. दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित एक राष्ट्रीयकृत बैंक के सहायक महाप्रबंधक का कहना था कि कोरोना के पहले मेडिकल की दुकानों, टेस्ट लैबों और अस्पतालों ने उनसे मोटी रकम बतौर कर्ज पांच या सात साल के लिए ली थी, पर उन्होंने कोरोना के दौरान ही उसे चुका दिया.
महामारी के काबू में आ जाने के बाद आयी एक रिपोर्ट के मुताबिक, उदारीकरण के बाद चिकित्सा व्यवस्था के निजीकरण को बढ़ावा मिला. इस दौर में गंभीर रोगों के इलाज के बाद कई परिवार गरीबी रेखा से नीचे आ गये हैं. कुछ साल पहले हरियाणा सरकार ने एक हमले में पीड़ित व्यक्ति को दिल्ली के एक पांच सितारा अस्पताल में भर्ती कराया था. उसके निधन के बाद भी अस्पताल ने बिल बढ़ाने के चक्कर में उसे मृत घोषित नहीं किया था. उस पीड़ित का परिवार भी गरीबी रेखा के नीचे आ गया था.
शायद ऐसी ही वजहें रहीं कि गहलोत सरकार ने राजस्थान में स्वास्थ्य का अधिकार देने की पहल की है. इस अधिकार के तहत अब अस्पतालों को सरकारी योजनाओं के तहत गरीबों का इलाज करना होगा तथा आपात स्थिति में उन्हें उचित अस्पताल को रेफर करना होगा. दुर्घटना की स्थिति में पीड़ित का तत्काल इलाज करना होगा. ये सारे प्रावधान भले ही जनहित में हों, लेकिन इससे डॉक्टरों की कमाई पर ब्रेक लगने का अंदेशा है. इसीलिए वे इस कानून के विरोध में हैं.
यह भी दिलचस्प है कि जो कांग्रेस उदारीकरण का जरिया बनी, वही अब लोक कल्याणकारी राज्य की ओर बढ़ रही है. उदारीकरण जिस पश्चिमी धरती से आया है, वहां स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च और बजट ज्यादा है. इटली में यह सबसे ज्यादा है. नॉर्वे, फिनलैंड, डेनमार्क जैसे देशों में स्वास्थ्य पूरी तरह राज्य यानी सरकार का विषय है. ब्रिटेन और अमेरिका में निजीकरण के बावजूद सरकारी स्वास्थ्य तंत्र अच्छा है. ब्राजील अपने नागरिकों के साथ ही विदेशी नागरिकों को भी तकरीबन मुफ्त इलाज मुहैया कराता है.
गहलोत सरकार की पहल की तरह तमिलनाडु की स्टालिन सरकार भी इस दिशा में काम कर रही है. राजस्थान में स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक पारित हुए छह महीने हो चुके हैं. डॉक्टरों के सुझावों के अनुसार बदलाव भी किये गये हैं. लेकिन जब इसे लागू करने की बारी आयी, तो डॉक्टर विरोध में उतर आये. राज्य में चूंकि कुछ महीने बाद चुनाव होना है, तो डॉक्टरों को लगता होगा कि वे राजनीतिक दलों से अपनी बात मनवा लेंगे. पर अब इस अधिकार से इनकार कर पाना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा. चाहे कांग्रेस जीते या भाजपा, इस अधिकार को लागू करना ही पड़ेगा. राजनीति के झुकने से यह संदेश जायेगा कि राजनीति का लोकहित से कोई लेना-देना नहीं है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)