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चुनावी बॉन्ड पर रोक के मायने

विधायक, सांसद, अफसर, जज और मंत्रियों सभी को संपत्ति का विवरण देना होता है. तो पार्टियां पारदर्शिता से आमदनी और खर्च का विवरण सार्वजनिक क्यों नहीं करतीं?

चुनावी बॉन्ड पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की विवेचना से पहले एक पुराने प्रसंग की चर्चा प्रासंगिक है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि चुनाव आयोग के पास खर्च का जो ब्योरा दिया जाता है, वह झूठ का पुलिंदा होता है. फरेब से करियर की शुरुआत करने वाले सांसदों एवं विधायकों से सुशासन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? यूपीए-दो के दौर में कांग्रेस के एक बड़े सांसद ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया था कि राज्यसभा की सीट के लिए 100 करोड़ रुपये से ज्यादा की बोली लगती है. यह जगजाहिर है कि कई प्रत्याशी लोकसभा चुनाव में कई सीटों में 50 करोड़ और विधानसभा में 10 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करते हैं. पार्षद और प्रधानी के चुनावों में भी उम्मीदवार करोड़ों खर्च करने लगे है. चंडीगढ़ मे मेयर चुनाव मे धांधली, उठापटक, दलबदल और सुप्रीम कोर्ट के फैसले से साफ है कि सभी पार्टी के नेताओं मे सेवा की बजाय मेवा की प्रमुखता बढ़ रही है. इसीलिए चुनाव में पार्टियों का टिकट हासिल करने के लिए सबसे ज्यादा भीड़ और उपद्रव होते हैं. ईडी और सीबीआइ के छापों से नेताओं की काली कमाई के कारनामे सामने आ रहे हैं. इसलिए धनिक नेताओं का सत्ता पक्ष के साथ गठजोड़ या दलबदल भ्रष्ट चुनावी राजनीति का बड़ा पहलू है.


छिट-पुट मामलों पर मीडिया में सुर्खियां बटोरने वाले पक्ष-विपक्ष के नेताओं को चुनावी बॉन्ड जैसे मामलों में गंभीर बहस में कोई दिलचस्पी नहीं है. आजादी के पहले राजनीति में देशभक्ति और राष्ट्रीयता का जोश रहता था. धीरे-धीरे नेतागीरी पैसे कमाने का कारोबार बन गयी. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले और नये कानून पर किसी बात से पहले काले धन के चार पहलुओं को समझना जरूरी है. पहला- किसी भी जायज आमदनी पर आयकर नहीं देने से काले धन की शुरुआत होती है. दूसरा- अफसरों और नेताओं की भ्रष्ट आमदनी कालेधन के साथ गैरकानूनी भी है. तीसरा- उद्योगपतियों द्वारा गैरकानूनी खनन, सरकारी बैंकों के साथ धोखाधड़ी और सरकारी खजाने को चूना लगाकर मनी लाउंड्रिंग करने वाले सफेदपोश अपराध देश के साथ गद्दारी है. चौथा- हथियार और नशीले पदार्थों के माध्यम से अर्जित काला धन समाज और देश के खिलाफ संगठित हमला है. कालेधन को रोकने के नाम पर बनाया गया चुनावी बॉन्ड कानून मनी लाउंड्रिंग के साथ आपराधिकता को बढ़ा रहा था. अपारदर्शी और भ्रष्टाचार इस कानून को रद्द करने का फैसला सराहनीय और गणतंत्र को मजबूत करने वाला है. चुनाव के पहले अध्यादेश के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने का दुस्साहस शायद नहीं होगा. लेकिन बॉन्ड के लाभार्थी पार्टियों का विवरण जारी होने से हड़कंप मच सकता है. इसलिए कानूनी सुरक्षा की आड़ में रिजर्व बैंक जरूरी विवरण जारी करने में आनाकानी कर सकता है. इसके लिए फैसले में आंशिक बदलाव के लिए नयी अर्जी दायर करने पर विचार हो सकता है. नयी सरकार फंडिंग के बारे में नये सिरे से कानून लाने पर चर्चा कर सकती है.


चुनावी बॉन्ड से जुड़े दो अहम पहलुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए. पहला- उम्मीदवारों के चुनावी खर्च की कानूनी सीमा तय है. उसके पालन के लिए पर्यवेक्षक नियुक्त होते हैं. लेकिन समर्थकों और पार्टियों के खर्च पर कोई कानूनी बंधन नहीं है. पिछले कई सालों में चुनाव आयोग और आयकर विभाग की कार्रवाई से साफ है कि अनेक छोटी रजिस्टर्ड पार्टियों का इस्तेमाल मनी लाउंड्रिंग के लिए हो रहा है. कालेधन का संगठित तौर पर इस्तेमाल सभी पार्टियां करती हैं. इसलिए जीतने के बाद विधायक और सांसदों की रुचि सुशासन से ज्यादा पैसे कमाने में होती है. जनता को बचत और अपव्यय से बचने का उपदेश दिया जाता है. नेताओं को भी इसका पालन कर चुनावी खर्चों में कमी लानी होगी. आम जनता और व्यापारियों के ऊपर टैक्स का भारी बोझ है. लेकिन पार्टियों को मिले चंदे पर टैक्स की छूट हासिल है. उसके बावजूद पार्टियों की आमदनी और खर्चों में कोई पारदर्शिता नहीं है. मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों के दावों को सच माना जाये, तो उनके साथ 25 करोड़ से ज्यादा रजिस्टर्ड सदस्य और कार्यकर्ता होंगे. हर सदस्य पार्टी को एक हजार का सहयोग दे, तो 25 हजार करोड़ रुपये का फंड आ जायेगा. इससे सभी कानूनों का पालन करते हुए चुनाव लड़े जा सकते हैं. इससे धन-बल और अपराधियों का वर्चस्व कम होगा.
दूसरा जरूरी पहलू है चुनावों में धन-बल को खत्म कर जन-बल यानी आम जनता और कार्यकर्ताओं का सशक्तीकरण. दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ रामराज्य और सुशासन की चर्चा जोरों पर हैं. इसके लिए यह समझना जरूरी है कि चुनावों में कालेधन के इस्तेमाल में कमी से ही रामराज्य की नींव बनेगी. रामराज्य में धर्म, समानता, स्वतंत्रता और न्याय पर जोर था. उन आदर्शों से प्रेरित होकर भारत के संविधान की प्रस्तावना बनायी गयी है. उन लक्ष्यों को सफल करने के लिए गरीबी, असमानता और बेरोजगारी जैसे दानवों को परास्त करना जरूरी है. रावण को परास्त करने के लिए श्रीराम ने बंदरों और भालुओं की सेना बनायी थी. रामराज्य में उन सभी को बहुत सम्मान मिला और उनमें से कई की पूजा की जाती है. लेकिन आधुनिक युग में सत्ता हासिल करने के बाद कार्यकर्ताओं और जनता की अवहेलना से सरकारी तंत्र और चुनावों में धनपतियों का बाहुल्य बढ़ रहा है. इस बारे में महान कवि अज्ञेय की कविता को फिर से दोहराने की जरूरत है: ‘जो पुल बनायेंगे, वे अनिवार्यतः पीछे रह जायेंगे/ सेनायें हो जायेंगी पार, मारे जायेंगे रावण, जयी होंगे राम/ जो निर्माता रहे, इतिहास में बंदर कहलायेंगे.’


विधायक, सांसद, अफसर, जज और मंत्रियों सभी को संपत्ति का विवरण देना होता है. तो पार्टियां पारदर्शिता से आमदनी और खर्च का विवरण सार्वजनिक क्यों नहीं करतीं? कानूनी सुधार करने के बारे में सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्षी पार्टियों की चुप्पी हैरतंगेज है. चुनावी बॉन्ड का फैसला आने में काफी समय लगा. दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने के लिए कई साल से सुप्रीम कोर्ट में याचिका लंबित है, जिस पर जल्दी फैसला होना चाहिए. सरकार को भी यह समझना चाहिए कि राजनीति को मेवा की बजाय सेवा का माध्यम बनाने के लिए चुनावी सुधारों पर सख्त कानून बनाना जरूरी है. चुनावों में धन-बल का प्राबल्य लोकतंत्र का कैंसर है. इसके लिए लोकतंत्र को चुनावी बॉन्ड के अनैतिक सप्लीमेंट के बजाय जन-सहभागिता की ठोस खुराक चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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