मुझे पानी अपनी तरफ खींचता है, बेपनाह. पोखर-झील, नदी-सागर, ऐसे खींचते हैं अपनी तरफ जैसे बरस पुराने या फिर बचपन के मीत. मैं पगलाई सी हो जाती हूं पानी को देखकर, उससे खेलने-बतियाने और उसमें पांव डुबोकर खड़े होने और बैठने के लिए. जी, मैंने कभी किसी नदी-सागर में डुबकी नहीं लगाई. मुझे नदी में नहाना बिलकुल भी पसंद नहीं… आज से ही नहीं बचपन से…
गजब यह कि जहां मैं पैदा हुई वहां भी एक नदी होती थी, बूढी गंडक. मैं छुटपन में इंतजार करती कि छठ आये, तो नदी जाने को मिले. फिर उसके भीतर खड़ी हो सकूं, घूम सकूं नाव में….पापा कभी-कभी ले जाते थे हमें, पर डरते भी थे, वैसे ही जैसे हर बच्चे का पिता डरता है, उनकी सुरक्षा की खातिर …..और उनके सपनों-खुशियों को छूने की खुशी में साथ-साथ खुश भी होता है…जो अबकी बार देखा तो वह सचमुच बुढाई हुई ही लगी. क्षीणकाय और किसी बड़े गंदे नाले-गढ्ढे जैसी ही.बिटिया ने उसे नदी मानने से ही इंकार कर दिया . पता नहीं नदी कितनी आहत हुई इससे, पर मेरे अंदर बैठी उसके सपने देखने वाली, उसे दुनिया की सबसे सुंदर और बड़ी नदी माननेवाली वह बच्ची जरूर आहत हुई थी .
सपनों का टूटना मर्मांतक होता है…
शायद मैं नींद में हूं, शायद किसी ख्वाब में… बहुत उदास होकर सोयी थी, उदास होती हूं, तो सपनों में जरूर आती है कोई सुंदर और हहराती हुई नदी.
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इस बार वह मेरे बचपन वाले गांव में है. नदी मुझे दुलराती-हलराती है. मुस्कुराने की जिद कर रही मुझसे. मैं उतर आई हूं उसकी धार के बीच. उसके पानी को अपने अंजुरी में भरकर खुश होती हूं, खिलखिलाती हूं. मैं पूछती हूं उससे -‘तू तो यहां नहीं होती थी, फिर कहां से आ गयी?’
वह कहती है- ‘तेरे लिए…तुझे यहां बुलाने और तेरे साथ होने के लिए…अब तो तू इस जगह को छोड़कर कभी-कहीं नहीं जायेगी?’
मैं कहती हूं ‘नहीं….’ कि नींद टूटती है अचानक, पहले मैं उदास होती हूं फिर दुखी. बेहद दुखी…
सपनों का टूटना सचमुच मर्मांतक होता है…
क्षण भर पहले की वह खुशी जैसे काफूर हो चुकी है. जबकि, मैं नदी में सनी हूं अभी भी, उसी से सराबोर हूं…पर खुश नहीं हूं रत्ती भर भी…दुख और पश्चाताप से मन भरा हुआ है. क्षण भर पहले की वह खुशी जैसे अब लज्जा में तब्दील हुयी जा रही. शर्मिंदगी के उस उभचुभ समुद्र से जैसे उबरना मुश्किल हुआ जा रहा है…
यह कैसे?
कब…?
मुझे तो लगा था कि बस कभी-कभार…
मैं बहुत सुबह उठकर पहले शैंपू करती हूं फिर बाकायदा कमरे की साफ-सफाई, वाशिंग मशीन चलने का दिन भी नहीं आज, फिर भी मशीन चल रहा गरर-घरर…बिटिया और पति मुझे अजीब सी नजरों से घूर रहे हैं … पर कहते कुछ नहीं…
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अच्छा है कि यहां आने पर अब मैंने जिदकर के उनसे अलग सोना शुरू कर दिया है, बहाने-बहाने ‘अब आदत नहीं रह गयी …’ अपने निजी स्पेस और वक्त की बात… इस फेमिनिज्म ने मेरा काम कुछ तो आसान किया, कुछ इस लेखक होने ने…
नहीं तो …आज तो खुल ही जाती पोल …
पर यह नियमित होता क्यूं जा रहा मेरे जीवन में …मैं तो सोच रही थी, हो गया कभी… रोज थोड़े ही…
‘ऐसा तब होता है जब मूत्राशय को सहारा देने वाली पल्विक फ्लोर की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं. प्रसव कमजोर पेल्विक फ्लोर का एक सामान्य कारण है.’
डॉक्टर ने कहा था – ‘अगर आपको बार-बार पेशाब करने की इच्छा हो रही है, तो आपको पेशाब को अधिक समय तक रोकने की कोशिश करनी चाहिए. आपको शौचालय जाने के बीच के समय को धीरे-धीरे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए.’
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मैं रोज तो करती हूं ये व्यायाम. कल्पना करती हूं- ऐसी जगह हूं, जहां पास ऐसी कोई सुविधा नहीं… -‘पेल्विक मांसपेशियों को नियंत्रित करने की कोशिश और धीरे-धीरे गिनती शुरू- प्रारंभ में 5 गिनने तक, धीरे-धीरे इसे बढाया. एक सप्ताह बाद 10 गिनने तक…और अब लगभग एक घंटे तक खिंच जाता है यह अंतराल. डॉक्टर ने कहा है – ‘ऐसा तब तक करना है, जब तक कि यह समयावधि 3-4 घंटे के नॉर्मल अंतराल तक नहीं पहुंच जाये.’
कितने तो उपचार कराये, कितने घरेलू उपाय भी. इधर-उधर से ढूंढ़ तलाशकर इन दिनों मैं हर वो कॉलम देखती हूं, जिसमें महिलाओं की समस्या के जबाब होते हैं. पहली बार आयुर्वेद पर विचार करने लगी हूं… रोजाना सुबह खाली पेट तीन से चार तुलसी की पत्तियों को एक चम्मच शहद में मिलाकर रोज खाती हूं. और आहार परिवर्तन…
अम्मा ठीक ही कहती थी- ‘मरता, क्या न करता …’
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वो मेरी गइनोकोलोजिस्ट हैं, जो कहती हैं – ‘प्रेग्नेंसी के दौरान एक महिला की पेल्विक मसल्स बहुत ज्यादा खिंचती हैं. जब मांसपेशियां ठीक से मदद नहीं कर पाती तो मूत्राशय शिथिल हो सकता है…’
‘आपकी नॉर्मल प्रेग्नेंसी थी?’
‘नहीं सिजेरियन…’
‘मोटापा, कब्ज, ज्यादा भार उठाना, शुगर… कुछ भी, कुछ भी … इसका कारण हो सकता है.’
मैं सारे कारणों पर एक एक कर विचार कर रही…
कब्ज पहले रहा है…जिम जाना हाल-फिलहाल ही शुरू किया था. बिटिया, जब पेट में थी शुगर भी था ही …
‘यूं भी मेनोपौज से पहले, बाद, याकि उसके आसपास अंडाशय (एस्ट्रोजन) द्वारा उत्पादित महिला हार्मोन का स्तर गिर जाता है. इस वजह से भी कुछ महिलाओं में ऐसा होता है.
डॉक्टर इस कारण-संभावना सूची को और आगे बढ़ा रही…मेरे मन में आता है, क्यूं होता है, जानकर मैं क्या करूं? मुझे तो यह जानना है, ठीक कैसे होगा? होगा भी की नहीं…?’ पर संकोच या कहें कि उनके नाराज होने की आशंका से उनसे कुछ भी नहीं कहती.
मुझे मेरी वह बहन याद आती है, खुद की बड़ी चचेरी बहन… जो पहले-पहल खूब आती थी हमारे घर. मातृ और भातृविहीन उन दीदी को मेरा घर ही मायका लगता. मां कोई कोर-कसर भी नहीं रहने देती, उनकी आवभगत में, कि उन्हें एक पल को भी यह न लगे कि…
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वह मुझसे बड़ी बहन की शादी के दिन थे, घर मेहमानों से खचखच भरा हुआ था. फिर भी मां दीदी के कहने पर उनके लिए एक अलग कमरा और एक फोल्डिंग बेड उपलब्ध करा देती है. दीदी और जीजाजी रहते हैं उस कमरे में… भाई चिढ़ते हैं…हम सब कुनमुनाते हैं – ‘अम्मा की दुलारी हैं, वीआईपी हैं, शादी के घर में भी एक अलग कमरा, एक अलग बिछावन. अम्मा कि तरेर हमें चुप करा देती है. दी लहक-लहककर बहन की शादी के हर रस्म में आगे-आगे रह रही. खूब अच्छी तरह तैयार हो रही, चुनरी-गहने धार रही, उमग-उमगकर गा रही ब्याह के गीत. सारे रस्म-ब्योहार उन्हें पता जो है…
पर उस रात के बाद कहानी एकदम बदल जाती है…
उस दिन दीदी एक सुबह ही तैयार हैं, हां आंखें उनकी जरूर बेहद लाल हैं. सफाई वाले के आने से पहले उनके कमरे की सफाई हो चुकी है, चादर-वादर सब धुलकर डाल दिया उन्होंने. वे मां से एक और साफ धुला चादर लेने आई हैं… इतनी छोटी सी चीज और दीदी इतनी विनत… मां से उन्हें कब ऐसा देखा है, उनपर तो उनका गहरा अधिकार भाव है.
मां प्यार से झिड़कती है उन्हें, सुबह-सुबह यह सब करने की क्या जरूरत थी. सफाई वाला आ ही रहा होगा. नाऊन आई बैठी है, उसे सब समझाना-संभालना है. आम महुआ पुजाई है आज… और उन्हें ही तो सब सम्हालना है… फालतू के काम न लें फिर अपने सिर…
दी कहती है- ‘सब हो जायेगा चाची, मेरे होते आप फिकिर काहे करती हैं.’
कि तभी अचानक दीदी के इस उत्साह पर कोई स्याही फिर जाता है….
वह बिट्टी थी, हमारी छोटी भतीजी – ‘दादू …दादू सुनो न…वो अम्मा का ध्यान आकर्षित करने के लिए लगातार उनकी साड़ी खींच रही…अम्मा खीज मिश्रित स्वर में पूछती हैं- का हुआ बाबू… कुछ चाहिए का, अपनी मम्मी से कहो दिलवा देंगी… दादी को अभी फुर्सत नहीं है काम से…बिट्टी ना में सिर हिलाती है…फिर ?
वो थोड़ी देर चुप रहने के बाद अचानक कहती है- ‘ये वाली बुआ जो है न…
‘हां… क्या ये वाली बुआ… बोलो…’
दीदी के चेहरे पर पुती सियाही अब और ज्यादा गहरा रही…
‘कुछ नहीं चाची, बच्चा है, कुछ चाहिए होगा… जाओ बच्चा अपनी अम्मा के या फिर बुआ लोगों के पास…दादी को अभी बहुत काम है…’
अम्मा फिर भी पूछ रहीं- ‘बोलो न क्या ये वाली बुआ…?’
‘ये भी…’
‘क्या ये भी …’
‘ये भी मेरी तरह बिछवान पर सुस्सू करती हैं…’
अम्मा डपटती हैं उसे जोर से- ‘चुप्प रहो बाबू, क्या बेफालतू की बात करती हो…’
दीदी के पैर डगमग हैं, वे गिर पड़ेंगी जैसे एकदम से… पर कोई उन्हें संभालने नहीं आ रहा… सब बस फिक्क फिक्क हंस रहे उन्हें देखकर… फुसफुसा रहे आपस में…
अम्मा डपटती हैं सबको- ‘अन्हरा गयील बानी सबनी…गिर पड़िहे बबुनी अ रऊआ लोग सम्हारे के बदला खी-खी करत बानी…’
वे उन्हें संभालती हैं… संभालकर उनके कमरे तक ले जाती हैं…
दीदी उसी दिन ससुराल लौटकर जाने को तैयार हैं… अम्मा जबरन रोक लेती है उन्हें… पर दीदी अपने उसी कमरे में सिमट गयी हैं जैसे… कम निकलती हैं बाहर… अम्मा के लाख बोलने-घसीटने पर वो भी… और दूसरे ही पल गायब…उनके चेहरे का वो नूर, वो लबालब उत्साह, सब जाने कहां खो गये हैं… यूं अम्मा को भी शादी के इस घर में इतनी फुर्सत कहां है कि उन्हें … ऊपर से अब वो भी काम उनके जिम्मे, जो दीदी के थे…
जैसे तैसे शादी निबटाकर दीदी वापिस अपने घर चली जाती हैं… और उसके बाद उनका आना कम से कमतर होता हुआ, एकदम बंद हो चलता है…बस मां की बातों में बची रह गयी हैं वो… मां हर आने जाने वाले से उनकी खैर-खबर पूछती रहती हैं…
दीदी अब नहीं आती, पर अब भी जब उनकी बात चले सब एकबारगी हंसने लगते हैं…बिट्टी कहती है- ‘वह सुस्सू वाली बुआ…?’ मां डपटती हैं उसे … ‘अब बड़ी हो गयी हो … ऐसे कौन बोलता है बुआ के बारे में…’
उस दिन मैं अपनी देवरानी के घर हूं. अकेली हूं इस शहर में नौकरी के कारण… देवर का घर, घर जैसा लगता है, देवर की बिटिया अपनी बिटिया की स्मृति दिलाती रहती है… मैं बार-बार होती हूं वहां, बार-बार बुलाई जाती हूं.
मेरा कमरा अलग है, अटैच्ड बाथरूम के साथ, इस इतमीनान से मुझे वहां जाने में कोई परेशानी भी नहीं… वरना तो कहीं जाने-ठहरने से भागने लगी हूं इन दिनों…
रात देवरानी का लाया दूध पीने से इंकार कर देती हूं… शाम के बाद से एक घूंट पानी भी नहीं पिया है. डॉक्टर भी तो यही कहती हैं. और दवाओं ने और व्यायाम ने मुझे एक इतमीनान से भर दिया है… तभी तो…
लेकिन उफ्फ …
सपने में कोई बहुत विशाल झरना है, झरने में नहाती हुयी मैं…
शरीर लथपथ हो रहा है…
मैं नींद से हडबड़ा कर जागती हूं और रुआंसी हो जाती हूं…
अब …
कैसे मैनेज करूंगी यहां… यह तो मेरा घर भी नहीं… क्या कहूंगी सबसे…
देर रात तक रोने के बाद सॉल्यूशन नजर आता है. कमरे में रखी हुयी इस्तिरी…
मैं नाक बंद किये देर तक इस्तिरी करके सुखाती रहती हूं बिस्तर, उसकी हर लेयर…
फिर भी तैरता हुआ कसाईन सा वह गंध मुझे चैन नहीं लेने दे रहा…
सुबह देवरानी कहती है -‘अनन्या ने कल इस कमरे में सू सू किया था क्या जीजी, महक रहा कमरा एकदम से …
कि उसकी कोई चड्डी दबी रह गयी है किसी कोने में…?
यह लड़की भी न इतनी बड़ी हो रही पर शऊर नहीं बिलकुल…
उसकी निगाहें कुछ तलाश रही हैं इधर- उधर. मैं शर्म से गड़ी जा रही. मैं उसका ध्यान बंटाने को उससे पूछती हूं- ‘नीलू तुम्हारी बुढ़िया मालकिन नहीं आयीं? पहले तो जब भी मैं आती थी, वो जरूर आकर बैठती थी. कितनी तो बातें करती थी… कितना कुछ बनाकर लाती थी मेरे-तुम्हारे लिए…’
वे अब बनारस में नहीं, वृंदावन में… किसी वृद्धाश्रम में… उम्र हो गयी थी, बिछावन गीला हो जाता था कभी-कभी. बेटे-बहू छोड़ आये जाकर वृद्धाश्रम… पति भी कुछ नहीं बोला…’
मैं उदास हूं, बेहद आहत भी… जैसे…मैं
कहती हूं नीलू से -‘बचपन में इन बच्चों को इसी तरह पाला होगा उन्होंने, रोज सुसू-पोट्टी साफ करती रही होंगी. रातों की नींद तबाह करती होंगी. जब तक दम रहा होगा इन्हीं बच्चों के लिए… और तब क्या, अभी भी तो खाना वही बनाती थीं. नीलू कहती है. हां अब एक खाना बनानेवाली रख ली हैं इन लोगों ने…
हम दोनों एक साथ उदास हैं उस आंटी के लिए…
मैं इस उदासी से उबरने की कोशिश में और कुछ हल ढूंढ़ने के सबब से बात बदलती हूं- ‘मेरे कपड़े गंदे हो रहे. कई दिन से यहां हूं. मैं आज मशीन यूज कर लूं. वह कहती है- ‘जीजी यह भी भला कोई पूछने की बात है …हम तो हर बार आपसे कहते हैं, पर आप ही…’
मैं कपड़े के साथ चादर भी धो डालती हूं, तौलिये भी…
पर गद्दे…
डॉक्टर ने तो जो भी कहा था, मैं सब कर रही -‘चाय, कॉफी, चॉकलेट, मसालेदार भोजन, अम्लीय रस, कोल्ड ड्रिंक, कुछ नहीं …कुछ भी नहीं… पर अब तो हद्द है…खांसने, हंसने, छींकने या हल्के-फुल्के एक्सरसाइज करने जैसी सामान्य दैनिक क्रियाओं में भी कभी-कभी यूरिन लीक हो जा रहा.
प्यूरिफायर से पानी निकलता होता है, कुकर की सीटी तेज बज जाये, पानी गिरने की आवाज कहीं से आ रही हो… अचानक सब चालू काम छोडकर मुझे यूरिन पास करने भागना होता है… मैं रुक नहीं सकती या कहिए रोक नहीं सकती खुद को…
कहीं बाहर निकलते हुये सबसे बड़ी जरूरत है, मेरे लिए निकलते-निकलते वाशरूम जाना …चाहे कितनी भी हड़बड़ी क्यूं न मची हो…
फिर भी बाहर भी परेशान रहती हूं… निगाहें आसपास टॉयलेट तलाशती रहती हैं.
मिल जाये तो सुकून, नहीं मिले तो बेचैनी…
दफ्तर में लोग मुझे बार-बार यूं वाशरूम जाते देख, आंखों ही आंखों में मुसकुराते हैं… मेरे पीछे मेरा यूं वाशरूम जाना लोगों की मस्ती का, मीम्स का विषय है.
बॉस को लगता है, मैं काम से जी चुराती हूं या कि समय काटने का यह मेरा नायाब तरीका है… वे डिरेक्टली कहते तो कुछ नहीं पर उनकी आंखें यही कहती रहती हैं जैसे मुझसे.’
मैं बेहद उचाट हूं…
दफ्तर से लौटकर उस दिन उदासी और ज्यादा तारी है…
मै सारे पर्सों की खानातलाशी ले रही.
कहां है उस सायकेट्रिस्ट का विजिटिंग कार्ड?
‘सुनिए प्लीज… कई मरीज ऐसे भी होते हैं, जो अपने लक्षणों, प्रकृति और प्रवृत्ति से ठीक से अवगत नहीं होते, न डील कर पाते. उन्हें लगता है उन्हें कोई भयानक बीमारी है, मानसिक बीमारी …वे खुद को विक्षिप्त मानने लगते हैं.’
‘प्लीज कोई ऐसी बात हो तो मुझसे शेयर करें … अपने डॉक्टर के साथ किसी भी समस्या पर चर्चा करना कोई शर्म और झिझक की बात नहीं …’ मैं धन्यवाद कहकर उठने को ही थी कि वे कुछ सोचते हुये फिए से मुझे रोक लेती हैं.
‘फिलहाल आप एक काम कर सकती हैं. यह मिस सुजाता अग्रवाल का कार्ड है, सुजाता न सिर्फ सीनियर साइकेट्रिस्ट हैं, बल्कि मेरी बचपन की दोस्त भी… आपको जब कभी जरूरत लगे आप उनके पास मेरा नाम लेकर बेधड़क जा सकती हैं.’
उन्हें धन्यवाद कहती मेरी नजरें बेहद इतमीनान से भरी हुयी थी, जैसे कह रही हो-‘इसकी नौबत नहीं आयेगी. मैं संभाल लूंगी सबकुछ…’
उस दिन कार्ड को मैंने बेपरवाही से अपने पर्स में डाला था… मेरी चाल अल्हड़ और लापरवाह है उस दम…
कार्ड जब गिरता है किसी पर्स से, मन में जैसे राहत की कोई लहर तैरती है…
अब तो सिर्फ यही बचा रह गया…
उसकी निर्मल आंखें जैसे आसानी से आरपार जा रही मेरे…
‘कोई तनाव…?’
मेरी तरफ से गहरी चुप्पी है.
‘आपको क्या-क्या पसंद है?’
अबकी चुप्पी नहीं, मैं खाने के तमाम चीजों के नाम बताती हूं.
‘और….’
‘गीत सुनना…लिखना…घर संवारना.’
‘यह सब कर लेती हैं पारिवारिक जिम्मेदारियों और नौकरी के साथ…’
‘कमोबेश…’
‘कुछ ऐसा जो बचा रह गया हो मन में… जो नहीं हो पाता आसानी से…’
मैं चुप हूं…
वे सवाल फिर से दोहराती हैं…
‘आंख बंद करिये और सोचिए…’
‘जी…’
मैं आंखें बंद करके जो देखती हूं, वह हैं अछोर, निर्मल, शांत जल का विस्तार … मैं अटक-अटककर कहती हूं- ‘नदी, समुद्र, मतलब पानी के सभी स्त्रोत बहुत पसंद हैं मुझे…’
‘फिर जाती हैं वहां अक्सर?’
‘नहीं…’
तो जाती फिर क्यों नहीं?’
‘समय बहुत कम मिल पाता है, समझिए न के बराबर …पहले लगता था, आमदनी नहीं है हमारे पास उतनी… फिर नौकरी की…’
‘अब नौकरी,परिवार का दूसरे शहर में होना… बच्ची का छोटा होना… बहुत बातें हैं…’
‘और…?
‘और…’
और इन दिनों वहां जाने के नाम से डर भी लगने लगा है…
कहीं…’
‘नहीं मुझे नहीं जाना कहीं…’
‘नहीं जाना पानी के पास भी…’
‘कभी नही जाना … ‘कहीं भी नहीं…’
‘आंखें खोल लीजिये …’
‘आइये बैठिए … बातें की जाये…’
‘हमें अपने डरों से जूझना होता है, लड़ना होता है…’
‘हम सब के भीतर होती है इच्छाओं की कोई नदी, मनुष्य हैं हम सब… हम औरतें भी… उसे रोकेंगे, बांधेंगे हम, तो वह बांध तोड़कर निकलेगी.’
‘दमित इच्छाएं किस-किस तरह बाहर आती हैं, उनके प्रकट होने के तरीके कितने अजीब हो सकते हैं, यह हम मनुष्य की सोच से बाहर की बात है…’
‘भागिए मत अपने आप से… नजरें मत चुराइये अपनी खुशी से, इच्छाओं से, अपने आप से …’
सम्मान कीजिये उनका और सामना भी …
सब ठीक होगा…
‘मैं आपकी पुरानी दवाओं में कोई नयी दावा नहीं जोड़ रही … वैसे दवा की आपको उतनी जरूरत भी नहीं…’
‘हो सके तो कहीं घूम आइये छुट्टी लेकर…’
…मैं लौटकर केरल की टिकट कटाती हूं… छुट्टी के लिए अप्लाई करती हूं, छुट्टी मिल भी जाती है…
सपनों में रोज देखती हूं वहां के समंदर, वहां की नदियां…बैक वाटर … .लेकिन गीली नहीं होती एक भी बार…
मैं खुश हूं… सुबह बिस्तर का सूखा, साफ होना, दिन का सुंदर हो जाना कैसे होता है, यह कोई भुक्त भोगी ही जान पायेगा…
मैं ट्रेन में हूं… पर केरल की नहीं जबलपुर की …
बिटिया को बुखार है और उनकी मुंबई में मीटिंग… मुझे केरल याद नहीं इस पल…
पहुंचने पर बिटिया की चहक ही निर्मल नदियों का संगम सी लग रही….
‘आपको तो बुखार था…’
‘वो तो उतर गया आपके आने की खबर सुनकर…’
हमदोनो हंसते हैं… एक साथ…सैकड़ों नदियां बह रही हमारी इस खिलखिल हंसी में …
रात बिटिया जिद में है, नहीं अलग नहीं सोना आपको…
मैं भी थोड़ी निश्चिंत हूं…हां इन दिनों तो ठीक ही है सब… हर वक्त का डरना भी क्या…
रात नींद में मैं और बिटिया लगातार केरल घूम रहे… हमारी खिल-खिल से गूंज रहा सारा जल प्रवाह… पतिदेव कहीं हैं साथ, कभी नही… सपनों का क्या, इसमें संभव-असंभव सब संभव है.
…हमदोनों आकंठ जल में हैं… आप्लावित है हमारा शरीर…
बिटिया कुनमुनाई है पहले… फिर उसने मुझे झकझोरा है -‘मम्मा उठो भी…’
माजरा आंख खोलने से पहले ही समझ में आ चुका है… मैं चाह रही- ‘या खुदा मेरी आंखें कभी खुले ही नहीं…’
पर बेशर्म आंखें खुल ही जाती हैं… उठना भले नामुमकिन हुआ जा रहा हो…
बिटिया ने चेहरा उठाया है चिबुक से… मेरी आखों से धारासार कोई नदी बही जा रही…
उसने मुझे गले से लगा लिया है …
वो बड़ों की तरह बोल रही मुझसे- ‘मम्मा प्लीज… ‘होता है… हो जाता है कभी-कभी… आप इतनी परेशान क्यों हो रही…’
मैं तो कितनें दिनों तक… मजेदार यह कि मुझे लगता था हमेशा, मैं वाशरूम में ही हूं, लेकिन ….मुझे आप संभालती थी कि नहीं?’
मैं जड़वत थी, जड़वत हूं…
‘मैंने नेट पर पढ़ा है…. मिडिल एज में… ‘
उसने मुझे उठाकर सामने की कुर्सी पर बैठा दिया है… चादर उठाकर मशीन में डाल दिया है-‘आजकल मैं ही धुलती हूं सब कपड़े, परेशान न हो, पापा को पता भी नहीं चलेगा…
यूं भी कल सुबह उन्हें जाना है…’
‘मम्मा… बस भी कीजिए अब…’
‘कल चलते हैं डॉक्टर के पास…’
‘डॉक्टर को दिखाया है.’
‘फिर ठीक हो जायेगा सब…’
उसने अपने बचपन वाला प्लास्टिक सीट निकालकर साफ धुली चादर के नीचे करीने से डाला है…
हम हंस रहीं एक साथ…
हम बिछावन पर एक दूसरे से गले लगी सोने की कोशिश में हैं …
कविता, पता : मयन एनक्लेव- 404, ए, क्लाइव रोड, सिविल लाइंस, प्रयागराज-209601 (उत्तर प्रदेश), ई-मेल : kavitasonsi@gmail.com
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