आधुनिक जीवनशैली में हम सभी अपने जीवन को सुखमय बनाने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं. चाहे भौतिक सुख-संसाधनों का प्रश्न हो, खाने-पीने का प्रश्न हो या फिर परिधान का, अपनी सामर्थ्य अनुसार अच्छे से अच्छा पा लेने या खाने-पीने में खर्च करने में कोई कोताही नहीं करते हैं, परंतु लंबे समय से माइक्रोप्लास्टिक की खाद्य पदार्थों में बढ़ती मौजूदगी चिंता का कारण बन गयी है. अब तो हालत यह है कि प्लास्टिक के ये कण नदियों और महासागरों ही नहीं, पर्वतों की ऊंची-ऊंची चोटियों पर जमी बर्फ में भी मिल रहे हैं.
ये माइक्रोप्लास्टिक पीने के पानी में भी मौजूद हैं. कई अध्ययनों ने बताया है कि जिस बोतलबंद पानी को हम सबसे अधिक सुरक्षित मानते हैं, वही पानी आजकल जानलेवा बना हुआ है. इस पानी में मौजूद प्लास्टिक के ये छोटे-छोटे कण, जिन्हें हम माइक्रोप्लास्टिक के नाम से जानते हैं, हमारे लिए सुरक्षित नहीं हैं. इनसे हृदय रोग, मधुमेह और अन्य खतरनाक बीमारियों का अंदेशा बढ़ गया है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के शोध से खुलासा हुआ है कि बोतलबंद पानी में भी माइक्रोप्लास्टिक के कण मौजूद हैं. इसने दुनियाभर के वैज्ञानिकों को हैरत में डाल दिया है. शोध ने साबित कर दिया है कि एक लीटर बोतलबंद पानी में माइक्रोप्लास्टिक के औसतन 2,40,000 कण मौजूद होते हैं. बोतलबंद पानी की अलग-अलग बोतलों में प्रति लीटर 1,10,000 से लेकर 3,70,000 तक कण मौजूद थे, जिनमें से 90 फीसदी नैनो प्लास्टिक के कण थे, जबकि बाकी माइक्रोप्लास्टिक के. विदित हो कि पांच मिलीमीटर से छोटे टुकड़े को माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है, जबकि नैनो प्लास्टिक एक माइक्रो मीटर यानी एक मीटर के अरबवें हिस्से को कहा जाता है. ये कण इतने छोटे होते हैं कि इंसान के पाचन तंत्र और फेफड़ों में जाकर मस्तिष्क व हृदय समेत शरीर के सभी अंगों को प्रभावित कर सकते हैं. बड़ी चिंता यह है कि ये प्लेसेंटा से होते हुए अजन्मे बच्चे को भी प्रभावित कर सकते हैं. ये गैस्ट्रिक समस्या से लेकर शारीरिक असमानताओं, यथा विकलांगता के कारण भी बन सकते हैं. गौरतलब है कि ये कण विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक से उत्पन्न होते हैं, जो सेहत के लिए नुकसानदेह हैं. यह खतरनाक है कि मनुष्य एक वर्ष में 10 हजार माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े या तो खा रहा है या सांसों के जरिये अपने अंदर ले रहा है. सच तो यह है कि हम बोतलबंद पानी के रूप में पानी नहीं, जहर पी रहे हैं, जो धीरे-धीरे हमारे अंगों को बेकार कर रहा है.
संसाधनों की कमी के कारण अक्सर प्लास्टिक बनाने में जीवाश्म ईंधन का उपयोग होता है, जो पर्यावरण में हानिकारक प्रदूषकों जैसे ग्रीनहाउस गैसों तथा पार्टिकुलेट मैटर आदि के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हंै. प्लास्टिक की बोतल में पानी भरने की प्रक्रिया में प्रतिवर्ष 2.5 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में उत्सर्जित होता है. फिर डिस्पोजेबल पानी की बोतलों का कचरा बह कर समुद्र में जाकर सालाना 9.1 मिलियन समुद्री जीवों की मौत का कारण बनता है. बोतलबंद पानी की पूरी प्रक्रिया में पारिस्थितिक तंत्र पर लगभग 2.400 गुणा अधिक दुष्प्रभाव पड़ता है और 3,500 गुणा अधिक लागत आती है. जहां तक प्लास्टिक का प्रश्न है, दुनिया में पानी को बोतल में बंद करने में हर वर्ष लगभग 2.7 मिलियन टन प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है. उस बोतलबंद पानी को बाजार में ले जाने से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन और वायु प्रदूषण होता है, जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देता है. प्लास्टिक की बोतलें जलाने से क्लोरीन गैस और भारी धातु जैसे जहरीले पदार्थ हवा में फैल जाते हैं. जहां बोतलबंद पानी पर्यावरण, मानवीय स्वास्थ्य आदि को प्रभावित करता है, वहीं उसकी बोतलें हमारे जल भंडारों व भूजल स्रोतों को नष्ट करती हैं. इसके साथ इसका स्थानीय अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. यदि हम स्वास्थ्य और पर्यावरण को बचाना चाहते हैं, तो बोतलबंद पानी की जगह नल का पानी पीना चाहिए. ग्लास या स्टेनलेस स्टील के कंटेनरों में नल के पानी को रखना चाहिए. प्लास्टिक में पैक चीजों के इस्तेमाल से बचें, क्योंकि प्लास्टिक के कणों के कारण शिशुओं और छोटे बच्चों को सबसे अधिक खतरे का सामना करना पड़ता है. इससे जीवन के कुल नुकसान होने वाले वर्षों की संख्या को 36 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है.
शोधकर्ता कैथरीन टोन कहते हैं कि पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि बोतलबंद पानी व्यापक प्रभाव पैदा करता है, उसकी तुलना में नल का पानी बेहतर विकल्प है. अहम बात यह कि हमें स्वयं भी इस मुद्दे पर उचित सावधानी बरतनी होगी और पैक पानी की बोतल खरीदने से पहले हमें उन प्रतिष्ठानों की भी जांच करनी चाहिए, जो स्वास्थ्य और सुरक्षा के मानकों का दावा करते हैं. इस बारे में उत्तराखंड की प्लास्टिक विरोधी अभियान की नेत्री पर्यावरणविद डॉ अनुभा पुंढीर का कहना है कि इस समस्या का समाधान केवल सरकारी निर्णयों या सरकारी स्तर पर नहीं हो सकता. हमें भी उपभोक्ता के स्तर पर सजग रहना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)