हेमन्त कुमार गुप्ताII स्व संगीतकार नौशाद ने महान गायक मो रफी के इंतकाल पर अपने उदगार कुछ यूं व्यक्त किया था;-
कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया,
साहिल पुकारता है, समंदर चला गया,
लेकिन जो बात सच है कहता नहीं कोई,
दुनिया से मौसिकी का पयम्बर चला गया!
31 जुलाई 1980! इसी दिन मो रफी, हिंदी फिल्मी संगीत के बेजोड़ व अप्रतिम गायक काल कलवित हुए. मो रफी की आवाज का जादू अभी भी संगीत प्रेमियों के सर चढ़ बोलता है. वे सदाबहार थे, सदाबहार हैं और आगे भी रहेंगे… हिंदी फिल्मी संगीत की दुनिया में यो तो कई चमकते चांद सितारे रहे, कई मौसम आए और चले गए, लेकिन हिंदी सिनेमा के गीत-संगीत की जब भी बात होती है, ,रफी उसमें हमेशा अव्वल नंबर पर ही रहेंगे.
यह ऊपरवाले की मेहरबानी ही थी कि मो. रफी का गायन किसी भी तरह अपने समकालीन गायकों उन्नीस नहीं, बल्कि कई मामलों में तो उनसे इक्कीस ही है. चाहे मो. रफी के गाये देशभक्ति के गीत ‘‘कर चले हम फिदा’’, ‘‘जट्टा पगड़ी संभाल’’, ‘‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी क़सम’’, ‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’, ‘‘हम लाये हैं तूफान से कश्ती’’ हों या फिर भक्तिरस में डूबे हुए उनके भजन ‘‘मन तड़पत हरी दर्शन को आज’’ (बैजू बावरा), ‘‘मन रे तू काहे न धीर धरे’’ (फिल्म चित्रलेखा, 1964), ‘‘इंसाफ का मंदिर है, ये भगवान का घर है’’ (फिल्म अमर, 1954), ‘‘जय रघुनंदन जय सियाराम’’ (फिल्म घराना, 1961), ‘‘जान सके तो जान, तेरे मन में छुपे भगवान’’ (फिल्म उस्ताद, 1957) हों, इन दमदार गीतों के गायक ने इन गीतों में अपनी आत्मा डाल दी है. हृदय की असीम गहराईयों से उन्होंने इन गानों को गाकर अपनी गायकी की प्रतिभा की अमित छाप छोड़ी है.
जनवरी, 1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की निर्मम हत्या के बाद, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए जब उन्होंने ‘‘सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’’ गीत गाया, तो इस गीत को सुनकर देशवासी एवम पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखें नम हो गईं थी. कहते है, उन्होंने रफी साब को घर बुलाया और आग्रह कर वही गीत सुनने की इच्छा जाहिर की. पं. नेहरू उनके इस गाने से इतना परभावित हुए कि स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ पर उन्होंने रफी को पदक देकर सम्मानित किया. रफी को कई सम्मान-पुरस्कार मिले, दुनिया भर में फैले उनके प्रशंसकों ने उन्हें सर पर बिठाया, ढेर सारा प्यार दिया. परन्तु, पं. नेहरू द्वारा दिए गए, इस पदक को वे अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान मानते रहे .
फिल्मी दुनिया के अपने लगभग साढ़े तीन दशको के करियर में रफी ने दुनिया की अनेक भाषाओं में हजारों गीत गाये और गीत भी ऐसे लाजवाब कि आज भी इन्हें सुनकर, लोगों के कदम बस थम से जाते हैं. मधुर मीठी आवाज जैसे कानों में रस घोलती है. दिल में एक अजब सी शांति हो जाती है. रफी साब इस दुनिया से गए चार दशक हो गए, लेकिन हिंदी फिल्मी दुनिया में उन जैसा कोई दूसरा गायक नहीं आ आया. लंबे अरसे के बाद भी वे अपने चाहने वालों के दिलों के बेताज बादशाह हैं.
31 जुलाई, 1980 के दिन यह महान फनकार अपने चाहने वालो को हमेशा के लिए छोड़ गया. उनके इंतकाल के दिन मुंबई में मूसलाधार बारिश हो रही थी. बारिश के बावजूद, अपने प्रिय गायक के जनाजे में भाग लेने के लिए हजारों लोग सड़कों पर उमड़ पड़े थे और उन्हें अपनी आखिरी विदाई दी. हिंदुस्तान सरकार ने उनके सम्मान में दो दिन के राष्ट्रीय शोक का एलान किया.
हिंदी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग को नया आयाम देने वाले रफी का का जन्म 24 दिसंबर, 1924 को अमृतसर (पंजाब) के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था. उनके परिवार का संगीत से कोई खास लगाव नहीं था. रफी ने खुद इस बात का उल्लेख अपने एक लेख में किया था. उर्दू की पत्रिका मकबूल में प्रकाशित इस लेख में उन्होंने लिखा “मेरा घराना धार्मिक था. गाने-बजाने को अच्छा नहीं समझा जाता था. मेरे वालिद हाजी अली मोहम्मद साहब दीनी इंसान थे. उनका ज्यादा वक्त धार्मिक कार्यो में गुजरता था. मैंने सात साल की उम्र में ही गुनगुनाना शुरू कर दिया था. जाहिर है, यह सब मैं वालिद साहब से छिप कर किया करता था. दरअसल, मुझे गुनगुनाने या फिर दूसरे अल्फाज में गायकी के शौक की सीख एक फकीर से मिली थी. ‘खेलन दे दिन चारनी माए, खेलन दे दिन चार’ गीत गाकर वह लोगों को अचंभित कर दिया करता था. जो कुछ वह गुनगुनाता था, मैं भी उसी के पीछे गुनगुनाता हुआ, गांव से दूर निकल जाता था.’’
साल 1935 में मो. रफी के अब्बा रोज़गार की तलाश में लाहौर आ गए. मो. रफी की गीत-संगीत की चाहत यहां भी बनी रही. मो. रफी की गायकी को सबसे पहले उनके घर में बड़े भाई मोहम्मद हमीद और उनके एक दोस्त ने पहचाना. इस शौक को परवान चढ़ाने के लिए, उन्होंने रफी को संगीत की तालीम दिलाई. उस्ताद अब्दुल वाहिद खान, उस्ताद उस्मान, पंडित जीवन लाल मट्टू, फिरोज निजामी और उस्ताद गुलाम अली खां जैसे शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों से उन्होंने गीत-संगीत का ककहरा सीखा. राग-रागनियों पर अपनी कमान बढ़ाई, जो आगे चलकर फिल्मी दुनिया में उनके बहुत काम आई. आलम यह था कि मुश्किल से मुश्किल गाना, वे सहजता व सरलता से गा लेते थे.
मोहम्मद रफी ने अपना पहला नगमा साल 1941 में महज 17 साल की उम्र में एक पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ के लिए रिकॉर्ड किया था, जो साल 1944 में रिलीज हुई. इस फिल्म के संगीतकार थे श्याम सुंदर और गीत के बोल थे, ‘‘सोनिये नी, हीरिये ने’’. संगीतकार श्याम सुंदर ने ही रफी को हिंदी फिल्म के लिए सबसे पहले गाने का मौक़ा दिया1 फिल्म थी ‘गांव की गोरी’, जो साल 1945 में रिलीज हुई. उस वक्त भी हिंदी फिल्मों का मुख्य केन्द्र बंबई ही था1 लिहाजा अपनी किस्मत को आजमाने मो. रफी बंबई पहुंच गए.
उस वक्त संगीतकार नौशाद ने फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे. उनके पिता की एक सिफारिशी चिट्ठी लेकर मो. रफी, नौशाद के पास पहुंचे. नौशाद साहब ने रफी से शुरुआत में कोरस से लेकर कुछ युगल गीत गवाए. फ़िल्म के हीरो के लिए आवाज़ देने का मौक़ा उन्होंने रफ़ी को काफ़ी बाद में दिया. नौशाद के संगीत से सजी, ‘अनमोल घड़ी’ (1946) वह पहली फिल्म थी, जिसके गीत ‘‘तेरा खिलौना टूटा’’ से रफी को काफी शोहरत मिली. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म ‘मेला’ (1948) का सिर्फ़ एक शीर्षक गीत गवाया, ‘‘ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में’’, जो मशहूर हुआ.
संगीतकार नौशाद और गायक मोहम्मद रफी की जोड़ी बन गई. इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई हिट गाने दिए. ‘शहीद’, ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘उड़नखटोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’, ‘पाकीजा’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुगल-ए-आज़म’, ‘गंगा जमुना’, ‘बाबुल’, ‘दास्तान’, ‘अमर’, ‘दीदार’, ‘आन’, ‘कोहिनूर’ जैसी अनेक फिल्मों में नौशाद और मो. रफी ने अपने संगीत-गायन से लोगों का दिल जीत लिया. जिसमें भी साल 1951 में आई फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के गीत तो मिल का पत्थर बन गया. 1950 और 60 के दशक में मोहम्मद रफी ने अपने दौर के सभी नामचीन संगीतकारों के साथ हर मौके और मूड के गीत गाये.
फिल्मी दुनिया में मो. रफी जैसा विविधता से परिपूर्ण गायक शायद ही कभी हो. अंत मे, रफी साब के लिए…
कोई नही लगा सके उसके कद का अंदाजा,
आसमां था मगर सर झुकाए रखता था!
लेखक एचईसी रांची से जुड़े हैं