किसी समय चंद्रमा बहुत सुंदर था. हर दिन उसका चेहरा खिला-खिला रहता था और चांदनी पूरी रात छिटकती रहती थी. कुछ समय बाद चंद्रमा पर मनहूसियत सवार हुई. वह चुप रहने लगा. हंसना-मुस्कुराना छोड़ कर मुंह लटकाये बैठा रहता. जैसे-जैसे चुप्पी बढ़ी, वैसे-वैसे चांद की रोशनी भी घटने लगी. यहां तक कि पंद्रह दिन में वह बिल्कुल कुरूप हो गया. न उसके चेहरे पर रोशनी रही और न ही चांदनी छिटकी.
चांद अपना दुखड़ा रोने विधाता के पास पहुंचा और बोला- मेरी खूबसूरती कहां चली गयी? मैं काला-कुरूप क्यों हो गया? विधाता बोले- मूर्ख! तू इतना भी नहीं जानता कि हंसना ही खूबसूरती, मुस्कुराहट का ही नाम चांद है. यह मनहूसियत छोड़ और हर दिन खिलखिलाता रह. तेरी खूबसूरती फिर से वापस आ जायेगी.
चंद्रमा ने विधाता की बात मानी और हंसने की कोशिश करने लगा. जितनी सफलता मिली, उतनी ही उसकी खूबसूरती चमकती गयी. मगर पंद्रह दिनों में फिर से पुरानी स्थिति में आ गया. पूर्णमासी को पूरे प्रकाश के साथ चमका, पर पुरानी आदत के कारण फिर चेहरा मुरझाना शुरू हुआ, तो अमावस्या आते-आते फिर काला-कुरूप हो गया. यह देख वह घबराया और विधाता की नसीहत को ध्यान में रख कर फिर मुस्कुराने लगा और धीरे-धीरे अपनी खोयी खूबसूरती फिर से प्राप्त कर ली. तब से चंद्रमा की यही आदत चली आ रही है.
– स्रोत : अखंड ज्योति