Munshi Premchand jayanti, Premchand ki kahaniyan : हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand jayanti) के योगदान का कोई जोड़ नहीं है. उनके लिखे उपन्यास और कहानियों की देश ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के पाठकों के दिल में एक खास जगह है. मुंशी प्रेमचंद की लघुकथा (premchand ki kahani) साहित्य की बात करें, तो उन्होंने कई लघु कथाएं व कहानियां लिखी हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य के खजाने को लगभग एक दर्जन उपन्यास और करीब 250 लघु-कथाओं से भरा है. वे अपनी रचनाओं में गांव के भी हैं और शहर के भी. स्त्री के भी हैं, तो पुरुष के भी, पुरातन भी हैं और आधुनिक भी, समस्याओं के रचनाकार हैं, तो सुधार के भी. कलम के सिपाही कहे जानेवाले मुंशी प्रेमचंद की 140वीं जयंती (premchand jayanti) पर इन पांच लघु कथाओं के माध्यम से आप उनकी लेखनी को गहराई से समझने का प्रयास कर सकते हैं.
सूरज क्षितिज की गोद से निकला, बच्चा पालने से. वही स्निग्धता, वही लाली, वही खुमार, वही रोशनी.
मैं बरामदे में बैठा था. बच्चे ने दरवाजे से झांका. मैंने मुस्कुराकर पुकारा. वह मेरी गोद में आकर बैठ गया.
उसकी शरारतें शुरू हो गयीं. कभी कलम पर हाथ बढ़ाया, कभी कागज पर. मैंने गोद से उतार दिया. वह मेज का पाया पकड़े खड़ा रहा. घर में न गया. दरवाजा खुला हुआ था.
एक चिड़िया फुदकती हुई आयी और सामने के सहन में बैठ गयी. बच्चे के लिए मनोरंजन का यह नया सामान था. वह उसकी तरफ लपका. चिड़िया जरा भी न डरी. बच्चे ने समझा अब यह परदार खिलौना हाथ आ गया. बैठकर दोनों हाथों से चिड़िया को बुलाने लगा. चिड़िया उड़ गयी, निराश बच्चा रोने लगा. मगर अंदर के दरवाजे की तरफ ताका भी नहीं. दरवाजा खुला हुआ था.
गरम हलवे की मीठी पुकार आयी. बच्चे का चेहरा चाव से खिल उठा. खोंचेवाला सामने से गुजरा. बच्चे ने मेरी तरफ याचना की आंखों से देखा. ज्यों-ज्यों खोंचेवाला दूर होता गया, याचना की आंखें रोष में परिवर्तित होती गयीं. यहां तक कि जब मोड़ आ गया और खोंचेवाला आंख से ओझल हो गया तो रोष ने पुरजोर फरियाद की सूरत अख्तियार की. मगर मैं बाजार की चीजें बच्चों को नहीं खाने देता. बच्चे की फरियाद ने मुझ पर कोई असर न किया. मैं आगे की बात सोचकर और भी तन गया. कह नहीं सकता बच्चे ने अपनी मां की अदालत में अपील करने की जरूरत समझी या नहीं. आमतौर पर बच्चे ऐसे हालातों में मां से अपील करते हैं. शायद उसने कुछ देर के लिए अपील मुल्तवी कर दी हो. उसने दरवाजे की तरफ रुख न किया. दरवाजा खुला हुआ था.
मैंने आंसू पोंछने के ख्याल से अपना फाउंटेनपेन उसके हाथ में रख दिया. बच्चे को जैसे सारे जमाने की दौलत मिल गयी. उसकी सारी इंद्रियां इस नयी समस्या को हल करने में लग गयीं. एकाएक दरवाजा हवा से खुद-ब-खुद बंद हो गया. पट की आवाज बच्चे के कानों में आयी. उसने दरवाजे की तरफ देखा. उसकी वह व्यस्तता तत्क्षण लुप्त हो गयी. उसने फाउंटेनपेन को फेंक दिया और रोता हुआ दरवाजे की तरफ चला क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था.
राष्ट्र के सेवक ने कहा – देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक, पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव. दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊंच नहीं.
दुनिया ने जय-जयकार की – कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हदय!
उसकी सुंदर लड़की इंदिरा ने सुना और चिंता के सागर में डूब गयी.
राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया.
दुनिया ने कहा- यह फरिश्ता है, पैगम्बर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है.
इंदिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा.
राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मंदिर में ले गया, देवता के दर्शन कराये और कहा – हमारा देवता गरीबी में है, जिल्लत में है, पस्ती में है.
दुनिया ने कहा- कैसे शुद्ध अन्त:करण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!
इंदिरा ने देखा और मुस्कराई.
इंदिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली- श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूं.
राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नजरों से देखकर पूछ- मोहन कौन है?
इंदिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा- मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गये, जो सच्चा, बहादुर और नेक है.
राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आंखों से उसकी ओर देखा और मुंह फेर लिया.
रात भीग चुकी थी. मैं बरामदे में खड़ा था. सामने अमीनुद्दौला पार्क नींद में डूबा खड़ा था. सिर्फ एक औरत एक तकियादार बेंच पर बैठी हुई थी. पार्क के बाहर सड़क के किनारे एक फकीर खड़ा राहगीरों को दुआएं दे रहा था – खुदा और रसूल का वास्ता… राम और भगवान का वास्ता – इस अन्धे पर रहम करो.
सड़क पर मोटरों और सवारियों का तांता बन्द हो चुका था. इक्के-दुक्के आदमी नजर आ जाते थे. फकीर की आवाज जो पहले नक्कारखाने में तूती की आवाज थी, जब खुले मैदानों की बुलन्द पुकार हो रही थी. एकाएक वह औरत उठी और इधर-उधर चौकन्नी आंखों से देखकर फकीर के हाथ में कुछ रख दिया और फिर बहुत धीमे से कुछ कहकर एक तरफ चली गयी. फकीर के हाथ में कागज का एक टुकड़ा नजर आया जिसे वह बार-बार मल रहा था. क्या उस औरत ने यह कागज दिया है ?
यह क्या रहस्य है? उसको जानने के कुतूहल से अधीर होकर मैं नीचे आया और फकीर के पास जाकर खड़ा हो गया.
मेरी आहट आते ही फकीर ने उस कागज के पुर्जे को उंगलियों से दबाकर मुझे दिखाया और पूछा – बाबा, देखो यह क्या चीज है ?
मैंने देखा-दस रुपये का नोट था. बोला- दस रुपये का नोट है, कहां पाया ?
मैंने और कुछ न कहा. उस औरत की तरफ दौड़ा जो अब अन्धेरे में बस एक सपना बनकर रह गयी थी. वह कई गलियों में होती हुई एक टूटे-फूटे मकान के दरवाजे पर रुकी, ताला खोला और अन्दर चली गयी.
रात को कुछ पूछना ठीक न समझकर मैं लौट आया.
रात भर जी उसी तरफ लगा रहा. एकदम तड़के फिर मैं उस गली में जा पहुंचा. मालूम हुआ, वह एक अनाथ विधवा है. मैंने दरवाजे पर जाकर पुकारा- देवी, मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूं.
औरत बाहर निकल आयी – गरीबी और बेकसी की जिन्दा तस्वीर.
मैंने हिचकते हुए कहा- रात आपने फकीर…….
देवी ने बात काटते हुए कहा- ” अजी, वह क्या बात थी, मुझे वह नोट पड़ा मिल गया था, मेरे किस काम का था.
मैंने उस देवी के कदमों पर सिर झुका दिया.
रामधन अहीर के द्वार एक साधू आकर बोला- बच्चा तेरा कल्याण हो, कुछ साधू पर श्रद्धा कर. रामधन ने जाकर स्त्री से कहा- साधू द्वार पर आये हैं, उन्हें कुछ दे दे.
स्त्री बरतन मांज रही थी और इस घोर चिंता में मग्न थी कि आज भोजन क्या बनेगा, घर में अनाज का एक दाना भी न था. चैत का महीना था, किन्तु यहां दोपहर ही को अंधकार छा गया था. उपज सारी की सारी खलिहान से उठ गयी. आधी महाजन ने ले ली, आधी जमींदार के प्यादों ने वसूल की, भूसा बेचा तो व्यापारी से गला छूटा, बस थोड़ी-सी गांठ अपने हिस्से में आयी. उसी को पीट-पीटकर एक मन भर दाना निकला था. किसी तरह चैत का महीना पार हुआ. अब आगे क्या होगा. क्या बैल खायेंगे, क्या घर के प्राणी खायेंगे, यह ईश्वर ही जाने. पर द्वार पर साधू आ गया है, उसे निराश कैसे लौटाएं, अपने दिल में क्या कहेगा.
स्त्री ने कहा- क्या दे दूं, कुछ तो रहा नहीं. रामधन- जा, देख तो मटके में, कुछ आटा-वाटा मिल जाये तो ले आ.
स्त्री ने कहा- मटके झाड़ पोंछकर तो कल ही चूल्हा जला था, क्या उसमें बरकत होगी? रामधन- तो मुझसे तो यह न कहा जायेगा कि बाबा घर में कुछ नहीं है किसी और के घर से मांग ला. स्त्री – जिससे लिया उसे देने की नौबत नहीं आयी, अब और किस मुंह से मांगू? रामधन- देवताओं के लिए कुछ अगोवा निकाला है न वही ला, दे आऊं.
स्त्री- देवताओं की पूजा कहां से होगी?
रामधन- देवता मांगने तो नहीं आते? समाई होगी करना, न समाई हो न करना. स्त्री- अरे तो कुछ अंगोवा भी पंसरी दो पंसरी है? बहुत होगा तो आध सेर. इसके बाद क्या फिर कोई साधू न आयेगा. उसे तो जवाब देना ही पड़ेगा. रामधन- यह बला तो टलेगी फिर देखी जायेगी. स्त्री झुंझला कर उठी और एक छोटी-सी हांडी उठा लायी, जिसमें मुश्किल से आध सेर आटा था. वह गेहूं का आटा बड़े यत्न से देवताओं के लिए रखा हुआ था. रामधन कुछ देर खड़ा सोचता रहा, तब आटा एक कटोरे में रखकर बाहर आया और साधू की झोली में डाल दिया.
महात्मा ने आटा लेकर कहा- बच्चा, अब तो साधू आज यहीं रमेंगे. कुछ थोड़ी-सी दाल दे तो साधू का भोग लग जाये.
रामधन ने फिर आकर स्त्री से कहा. संयोग से दाल घर में थी. रामधन ने दाल, नमक, उपले जुटा दिये. फिर कुएं से पानी खींच लाया. साधू ने बड़ी विधि से बाटियां बनायीं, दाल पकाई और आलू झोली में से निकालकर भुरता बनाया। जब सब सामग्री तैयार हो गई तो रामधन से बोले बच्चा, भगवान के भोग के लिए कौड़ी भर घी चाहिए. रसोई पवित्र न होगी तो भोग कैसे लगेगा?
रामधन- बाबाजी घी तो घर में न होगा. साधू- बच्चा भगवान का दिया तेरे पास बहुत है. ऐसी बातें न कह.
रामधन- महाराज, मेरे गाय-भैंस कुछ भी नहीं है.
‘जाकर मालकिन से कहो तो?’ रामधन ने जाकर स्त्री से कहा- घी मांगते हैं, मांगने को भीख, पर घी बिना कौर नहीं धंसता. स्त्री- तो इसी दाल में से थोड़ी लेकर बनिये के यहां से ला दो. जब सब किया है तो इतने के लिए उन्हें नाराज करते हो.
घी आ गया. साधूजी ने ठाकुरजी की पिंडी निकाली, घंटी बजाई और भोग लगाने बैठे. खूब तनकर खाया, फिर पेट पर हाथ फेरते हुए द्वार पर लेट गये. थाली, बटली और कलछुली रामधन घर में मांजने के लिए उठा ले गया. उस दिन रामधन के घर चूल्हा नहीं जला. खाली दाल पकाकर ही पी ली. रामधन लेटा, तो सोच रहा था- मुझसे तो यही अच्छे!
विन्घ्याचल पर्वत मध्यरात्रि के निविड़ अन्धकार में काल देव की भांति खड़ा था. उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दष्टिगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएं हैं और अष्टभुजा देवी का मंदिर जिसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों में लहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है मंदिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक था, जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का मान हो जाता था.
अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी. चारों और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था. गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थीं. उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी. ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखायी देती थी. ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी. उसका प्रौढ़ मुखमंडल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी. उसने देर तक सिर झुकाये रहने के पश्चात कहा.
‘माता! आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणो पर सिर न झुकाया हो. एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो. तुम जगतारिणी महारानी हो. तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अभिलाषा पूरी न हुई. मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊ?’
‘माता! मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं की’, तीर्थयाज्ञाएं की, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ. तब तुम्हारी शरण आयी. अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं? तुमने सदा अपने भक्तो की इच्छाएं पूरी की है. क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं?’
सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात उसके चित्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आक्रमण हुआ. उसकी आंखें बन्द हो गयीं और कान में ध्वनि आयी.
‘सुवामा! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग, क्या मांगती है?
सुवामा रोमांचित हो गयी. उसका हृदय धड़कने लगा. आज बीस वर्ष के पश्चात महारानी ने उसे दर्शन दिये. वह कांपती हुई बोली ‘जो कुछ मांगूंगी, वह महारानी देंगी’ ?
‘हां, मिलेगा.’
‘मैंने बड़ी तपस्या की है अतएव बड़ा भारी वरदान मांगूगी.’
‘क्या लेगी कुबेर का धन’?
‘नहीं.’
‘इन्द का बल.’
‘नहीं.’
‘सरस्वती की विद्या?’
‘नहीं.’
‘फिर क्या लेगी?’
‘संसार का सबसे उत्तम पदार्थ.’
‘वह क्या है?’
‘सपूत बेटा.’
‘जो कुल का नाम रोशन करे?’
‘नहीं.’
‘जो माता-पिता की सेवा करे?’
‘नहीं.’
‘जो विद्वान और बलवान हो?’
‘नहीं.’
‘फिर सपूत बेटा किसे कहते हैं?’
‘जो अपने देश का उपकार करे.’
‘तेरी बुद्वि को धन्य है. जा, तेरी इच्छा पूरी होगी.’
Posted By : Sumit Kumar Verma