My Mati: गुफा के दुर्लभ चित्रों की छांव में बसा है यह गांव, पढ़ें पूरी खबर

हजारीबाग जिला का डाडी प्रखंड जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर है. प्रखंड में जनजातीय और गैर जनजातीय समुदाय के साथ आदिम जनजातियां भी निवास करती हैं, जिसमें मुख्यतः बिरहोर एवं अगरिया हैं. हेसालौंग गांव में खड़े पत्थरों को गांव के पुरखों ने ‘थड़पखना’ कहा.

By Prabhat Khabar News Desk | May 12, 2023 3:18 PM

डॉ कृष्णा गोप

हजारीबाग जिला का डाडी प्रखंड जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर है. प्रखंड में जनजातीय और गैर जनजातीय समुदाय के साथ आदिम जनजातियां भी निवास करती हैं, जिसमें मुख्यतः बिरहोर एवं अगरिया हैं. हेसालौंग गांव में खड़े पत्थरों को गांव के पुरखों ने ‘थड़पखना’ कहा, जिसे पुरातात्विक शब्दों में ‘मेगालिथ’ कहा जाता है. हेसालौंग के मेगालिथ के आसपास जब स्थानीय किसान कृषि कार्य किया करते थे, उस समय लोहा गलाने के अवशेषों एवं बर्तन के साथ चुल्हा और साथ-साथ गले हुए अवशेषों के होने के प्रमाण मिलते रहते थे, जो आज भी परती टांडों में मिल जायेंगे. कभी यहां बहुतायत में अगरिया असुर निवास करते होंगे, क्योंकि यहां के घने जंगलों से लकड़ी, कोयला एवं लौह अयस्क आसानी से मिल जाया करता होगा.

हेसालौंग गांव में आज भी मेगालिथ तीन स्थानों पर है. गांव के लोगों का इसके साथ जुड़ाव है. ये ग्रामीणों के लिए महज एक खड़ा या लेटा हुआ पत्थर मात्र नहीं है. मानवशास्त्र के दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक मानव विकास का पहली सांस्कृतिक गतिविधियों की शुरुआत माना जा सकता है. झारखंड में जनजातीय समुदाय के साथ गैर जनजातीय समुदाय भी वर्षों से रहते आ रहे हैं. यहां के पर्व-त्योहारों, वैवाहिक कार्यक्रमों या मन्नत मांगने के बाद या उसके पहले अपने पुरखों की पूजा से ही शुरुआत की जाती है.

गांव में पहान द्वारा पूजे जाने वाले स्थल को ‘गांवदेवती’ कहते हैं. ‘गांवादेवती’ के साथ गांव के ‘गवांट’ को पूजा जाता है, जो गांव में ‘आधारतिया’ पहर गांव घूमता है और गांव की रखवाली करता है. ऐसा गांव के लोग मानते हैं. इन देवतापितरों/पुरखों के रहने वाले स्थल जंगलों के एक छोर पर ही कुछ अलग-अलग जगहों में भी पाये जाते हैं. यहां पेड़ों को संगठित रूप से सुरक्षित रखा जाता है, जिसे जनजातीय समुदाय के लिए ‘सरना स्थल’ एवं गैर जनजातीय समुदाय के लिए ‘मांडेर’ कहा जाता है. झारखंड की खूबसूरती यही है कि वर्षों से आदिवासी और मूलवासी एकसाथ अखड़ा में नाचते-गाते रहे हैं.

हेसालौंग के पत्थरों में कप आकार जैसा चिह्न, यूं कहें कप-मार्क पाषाण काल और लौह युग की दास्तान कहता है. इसके ठीक कुछ दूरी में करम पेड़, बरगद, परास, करंज और बहेरगुड़ा का पेड़ के संगठित स्थल को ‘टोंगरीया बोर’ कहते हैं. यहां एक गुफा हुआ करती था. यह एक विशालकाय पत्थर से बना हुआ था. इस गुफा को स्थानीय लोग ‘किचिन गुफा’ कहते थे. इसकी पहचान विकास के नाम पर मिटा दी गयी. वर्ष 1997 में हीरक कंपनी के द्वारा सड़क निर्माण (गिद्दी से नयामोड़) के लिए पत्थरों को तोड़ कर गिट्टी के रूप तब्दील कर दिया गया. उन दिनों डॉ लालदीप संत कोलंबा महाविद्यालय में इंटर का छात्र थे. उन्होंने गांव आकर मुखर रूप से विरोध दर्ज किया, तब जाकर आज बचाये हुए उन चट्टानों को देख पा रहे हैंं. विरोध के बाद रुके ब्लास्टिंग कर तोड़ने से हुए छेद आज भी देखे जा सकते हैं. वर्ष 2013 में सड़क चौड़ीकरण के नाम पर सर्वे किया गया है और पुरातात्विक स्थल मेगालिथ के सामने चिह्नित करते हुए पॉइंट पिलर बनाया गया है, जिससे पुनः टूटने का खतरा मंडरा रहा है.

हेसालौंग गांव के पूर्वी भाग में थड़पखना है. इसके ठीक पश्चिमी भाग में ‘लिखनी गुफा’ है, जो मरंगगड्डा नदी के किनारे विशालकाय बलुवाही लाल पत्थरों में दर्ज है. मरंगगड्डा नदी बड़कागांव प्रखंड के लुरुंगा पहाड़ से निकलती है, जो डाडी प्रखंड के कुरा, खपिया, रिकवा, मिश्राइन मोढा, डाडी, होसीर होते हुए दामोदर में मिलती है. इसी नदी में गर्म जलकुंड भी है. आदिम युग की कलाकृतियां वाली यह गुफा यहीं स्थित है. हेसालौंग पंचायत और डाडी पंचायत के सतकड़िया नदी टोला के दक्षिणी छोर पर नदी मुड़ती है. ‘लिखनी गुफा’ को झारखंड के अन्य गुफाओं का कॉरिडोर कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

आदिकाल में मानवों के आने-जाने का मार्ग रहा होगा. यह गुफा आदिकाल के पुरखों का सांकेतिक द्वार भी रही होगी. पेट की ज्वाला बुझाने के बाद विश्राम पहर में अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का पहला प्रयास जो दिनभर देखे- किये, उसी को सहज रूप से शैल-चित्रों के माध्यम से उकेरने की कोशिश की. इसमें जंगलों के फूल-पत्तों और लौह अयस्क के रूप में इस्तेमाल करने वाले गेरुवा पत्थर का उपयोग कर रंग बनाया होगा. आज भी एक बड़े पत्थर में रंग बनाने के लिए छेद किया हुआ मिल जायेगा. गुफा के किनारे फैले टांड में लोहा गलाने के प्रमाण अवशेष के रूप में देखे जा सकते हैं. शैलचित्रों को देखकर आप समझ सकते हैं आदिमानव के मस्तिष्क को, जो उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के साथ-साथ सांस्कृतिक विरासतों को प्रागैतिहासिक काल से जारी रखना आरंभ कर दिया था.

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लिखनी गुफा का चित्र व झारखंड में मिले अन्य गुफा-चित्रों में अंतर है. इस चित्र को स्थानीय लोग बोलचाल की भाषा में ‘झांझारा’ भी कहते हैं. इसी तरह के चित्र ग्रीस की गुफाओं में मिले हैं, जो इन चित्रों से मेल खाते हैं. इन गुफा-चित्रों को दुनिया के सामने लाने का पहला प्रयास डॉ लालदीप ने किया. उन्होंने लिखनी गुफा-चित्र के बारे में ‘खतरे में हैं आदिम युग की कलाकृतियां’ शीर्षक से एक आलेख लिखा था. अपने लेख में डॉ लालदीप ने जिक्र किया है कि ग्रीस में इन चित्रों की मदद से तारों और ग्रहों की स्थिति की गणना की जाती थी. इस गुफा में जंगली जानवरों में सियार, हिरण, कुछ में आयताकार, डिजाइनदार समकेंद्रीय चित्र भी बने हैं. कुछ चित्र लाल और कुछ सफेद रंग से बने हैं.

बात वर्ष 1930 की है. हेसालौंग के लोकगायक कोल्हा गोप(दादा) उन दिनों युवा थे. अपनी भैंसों को लिखनी के पास के जंगलों में चराया करते थे. यह उनकी दिनचर्या में शामिल था. जानवरों को चराने के साथ ही नदी के दह में पानी पिलाया करते थे और यहीं के विशाल चट्टानों में बैठकर लोकगीतों को गाया करते थे. जब उनके साथ पुत्र लोकगायक गोवर्धन गोप चरवाही के लिए साथ में जाने लगे तब दादा जी ने पिताजी को इस गुफा के बारे में बताया था कि यहां कुछ चित्र बने हुए हैं. गोवर्धन ने पूछा- इस गुफा का क्या नाम है तो उन्होंने गुफा में लिखे चित्रों को देखकर इसे ‘लिखनी कोहबर’ कहा.

जब वर्ष 1960 में गिद्दी कोलियरी खुली. एक कोयला खदान का संचालन दादा कोल्हा गोप भी करते थे. उस दौरान ‘लिखनी गुफा’ में काली पूजा और मकर संक्रांति की शुरुआत हेसालौंग के स्थानीय लोगों ने की. इन आयोजनों में लोकगायक कोल्हा गोप की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी. लिखनी गुफा मरंगगड्डा नदी के किनारे होने के कारण पूर्णिमा की चांदनी रात में रेत और पानी की चमक देखते बनती है. सुबह-सुबह सूरज की पहली किरण और पानी की तरंग गुफा में बनती है, जो आपको आकर्षित करेगी. विशालकाय पत्थरों की चट्टानों के नीचे है यह गुफा. कोयला खनन के ब्लास्टिंग व नदी के बाढ़ की वजह से हर वर्ष पानी और मिट्टी बालू भरने से गुफा की पहचान मिटती जा रही है.

(सह संस्थापक/अध्यक्ष, खोरठा डहर. पुरातात्विक ‘थड़पखना’ एवं ‘लिखनी कोहबर’ शैल चित्र के संरक्षक)

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