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जन्मदिन विशेष : नरगिस के उदास चेहरे में कलाकारी का जौहर

nargis birth anniversary unknown facts : आज मशहूर अदाकारा नरगिस का जन्मदिन है. नरगिस का जन्म 1 जून 1929 को पश्चिम बंगाल के कलकत्ता शहर में हुआ था. महज पांच साल की उम्र में अभिनय की दुनिया में दाखिल हुई नरगिस आगे चलकर अपनी बेहतरीन अदाकारी से महान अभिनेत्रियों में शुमार हुईं. महबूब खान निर्देशित नरगिस की फिल्म मदर इंडिया ऑस्कर तक पहुंची.

By दिल्ली ब्यूरो | June 1, 2020 11:33 AM

आज मशहूर अदाकारा नरगिस का जन्मदिन है. नरगिस का जन्म 1 जून 1929 को पश्चिम बंगाल के कलकत्ता शहर में हुआ था. महज पांच साल की उम्र में अभिनय की दुनिया में दाखिल हुई नरगिस आगे चलकर अपनी बेहतरीन अदाकारी से महान अभिनेत्रियों में शुमार हुईं. महबूब खान निर्देशित नरगिस की फिल्म मदर इंडिया ऑस्कर तक पहुंची. लेकिन नरगिस को शुरुआती प्रसिद्धि मिली राजकपूर की फिल्मों से. दोनों की जोड़ी को फिल्मी परदे पर बहुत पसंद किया गया और दोनों ने लगभग 17 फिल्मों में साथ काम किया.

नरगिस पर सआदत हसन मंटो ने ‘मीनाबाजार’ में एक बेहद रोचक संस्मरण लिखा है. नरगिस की मां जद्दनबाई मंटो के लिखे को अकसर पढ़ा करती थीं और उनकी लेखनी की मुरीद थीं. लेकिन, नरगिस अपनी मां के साथ एक रोज मंटो के घर आई, तो इसकी वहज मंटो नहीं, उनकी बेगम और सालियां थीं, जो नरगिस की प्रसंशक थीं और फोन पर उनसे बात किया करती थीं. इस बात से बेखबर मंटो उस रोज संयोग से जल्दी घर आ गये, घर आकर उन्हें पता चला कि नरगिस आनेवाली हैं. इस पूरे वाकये के साथ मंटो ने नरगिस और उनकी अदाकारी के बारे में एक संस्मरण लिखा है. आज नरगिस के जन्मदिन पर पढ़िये उस संस्मरण का एक हिस्सा…

‘मंटो’ की नजर में नरगिस

नर्गिस को मैंने काफी दिनों बाद देखा था. दस-ग्यारह बरस की बच्ची थी, जब मैंने एक-दो फिल्मों की नुमाइश में उसे अपनी मां की उंगली के साथ लिपटी देखा था. चुंधियाई हुई आंखें, आकर्षणहीन-सा लंबा चेहरा, सूखी-सूखी टांगे, ऐसा मालूम होता था कि सोकर उठी है या सोने वाली है. मगर अब वह एक जवान लड़की थी. उम्र ने उसके खाली स्थान भर दिये थे. मगर आंखें वैसी की वैसी थीं- छोटी और स्वप्नयी, बीमार-बीमार- मैंने सोचा, इस ख्याल से उसका नाम नर्गिस उपर्युक्त और सही है !

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तबीयत में बेहद ही मासूम खलंदरापन था. बार-बार अपनी नाक पोंछती थी, जैसे निरंतर जुखाम से पीड़ित हो. (बरसात फिल्म में यह बात उसकी अदा के तौर पर पेश की गयी है!) लेकिन नरगिस के उदास-उदास चेहरे से यह स्पष्ट था कि वह अपने अंदर कलाकारी का जौहर रखती है. होंठों को किसी कदर भींचकर बात करने और मुस्कराने में एक बनावट थी, मगर साफ पता चलता था कि यह बनावट श्रृंगार का रूप धारण करके रहेगी. आखिर कलाकारी की बुनियादें बनावट पर ही तो निर्मित होती हैं.

एक बात जो विशेष रूप से मैंने महसूस की, वह यह कि नरगिस को इस बात का अहसास था कि वह एक दिन बहुत बड़ी स्टार बनने वाली है, स्टार बनकर फिल्मी दुनिया पर चमकनेवाली है. मगर यह दिन निकट लाने और उस देखकर प्रसन्न होने की उसे कोई जल्दी नहीं थी. इसके अतिरिक्त अपने बचपन की नन्ही-मुन्ही खुशियां घसीटकर वह बड़ी-बड़ी विहंगम खुशियों के दायरे में नहीं ले जाना चाहती थी. नर्गिस से यह मेरी पहली मुलाकात थी.

कलाकारी ‘फरेबकारी’ से मुक्त थी

इसके बाद लड़कियां (मंटो की पत्नी और सालियां) टेलीफोन करती थीं और नरगिस अकेली मोटर में चली आती थी. इसके आवागमन में उसके अभिनेत्री होने का कम्पलेक्स लगभग मिट गया. वह लड़कियों से और लड़कियां उससे यूं मिलतीं, जैसे वह उनकी बहुत पुरानी सहेली है, या कोई रिश्तेदार है. लेकिन जब वह चली जाती, तो कभी-कभी तीनों बहनें आश्चर्य प्रकट करतीं- खुदा की कसम ! अजीब बात है कि नर्गिस बिल्कुल एक्ट्रेस मालूम नहीं होती.

नरगिस की कलाकारी के बारे में मेरा विचार बिल्कुल दूसरा था. निश्चित रूप से भावनाओं एवं अनुभूतियों का अनुभव वह सही तौर पर नहीं करती थी. मुहब्बत की नब्ज किस तरह चलती है, यह अनाड़ी उंगलियां कैसे अनुभव कर सकती हैं. इश्क की दौड़ में थककर हांफना और स्कूल की दौड़ में सांस का फूल जाना, दो अलग चीजें हैं. मेरा विचार है कि स्वयं नर्गिस भी इसके अंतर और भेद से परिचित नहीं थी. नर्गिस की शुरू-शुरू की फिल्मों में जानकार निगाहें फौरन मालूम कर सकती हैं कि उसकी कलाकारी ‘फरेबकारी’ से मुक्त थी.

कलाकारी की मंजिलें धीरे-धीरे तय कीं

कलाकारी की यह कमाल है कि कलाकारी में बनावट की मिलावट मालूम न हो. लेकिन नरगिस की कलाकारी की बुनियादें चूंकि अनुभव पर आधारित नहीं थीं, अत: उसमें यह विशेषता नहीं थी. यह केवल उसकी लगन थी कि वह भावनाओं और अनुभूतियों का सफल अभिनय न कर सकने के बावजूद अपना काम निभा जाती थी. उम्र और अनुभव के साथ-साथ अब वह बहुत पुख्तगी अख्तियार कर चुकी है. अब उसको इश्क की दौड़ और स्कूल की एक मील की दौड़ में थककर हांफने का रहस्य और भेद मालूम है. अब तो उसको सांस के हलके-से-हलके उतार चढ़ाव की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी ज्ञात है. यह बहुत अच्छा हुआ कि उसने कलाकारी की मंजिलें धीरे-धीरे तय कीं. अगर वह एक ही छलांग में आखिरी मंजिल में पहुंचच जाती, तो फिल्म देखनेवाले समझदार लोगों और दर्शकों के जज्बात को बहुत ही गंवार किस्म का दुख पहुंचता.

नरगिस को बहरहाल, एक्ट्रेस बनना था, चुनांचे वह बन गयी. उसके उन्नति के शिखर पर पहुंचने का रहस्य- जहां तक मैं समझता हूं- उसकी ईमानदारी है, उसका साहस है, जो कदम-ब-कदम, मंजिल-ब-मंजिल उसके साथ रहा है.

posted by: Budhmani Minj

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