सामाजिक चेतना बढ़ाने की आवश्यकता
इस पर भी गौर करने की जरूरत है कि जिस आदमी ने इस अपराध को अंजाम दिया, उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं आन पड़ी. हो सकता है कि उसे सजा मिल जाए, पर इससे लड़की के ऊपर कम आयु में जो बोझ पड़ेगा, वह कम नहीं हो जायेगा.
बीते दिनों गुजरात उच्च न्यायालय में दुष्कर्म पीड़िता का एक मामला आया था. लड़की की उम्र सोलह वर्ष, ग्यारह महीने है. सात महीने का गर्भ है, जिसे बिना अदालत की स्वीकृति के खत्म नहीं किया जा सकता. लड़की के परिवार ने गर्भपात की आज्ञा के लिए अदालत की शरण ली है. लड़की के वकील ने लड़की की उम्र का हवाला देते हुए कहा कि उसकी उम्र कम है, इसलिए इस मामले में त्वरित न्याय चाहिए. न्यायाधीश महोदय ने कहा कि वह इस मामले में डॉक्टरों से राय-मशविरा कर चुके हैं. यदि लड़की और गर्भस्थ को कोई गंभीर समस्या नहीं है, तो वे गर्भपात की आज्ञा नहीं देंगे.
बहस के दौरान जब लड़की की उम्र पर बात आयी, तो उन्होंने कहा कि सत्रह वर्ष में बच्चे को जन्म देना कोई नयी बात नहीं है. अपनी मां, दादी या पड़दादी से पूछो. तब शादी की उम्र मात्र चौदह-पंद्रह वर्ष होती थी. लड़कियां सत्रह वर्ष तक पहले बच्चे की मां बन जाती थीं. न्यायाधीश महोदय ने लड़की से कहा कि वैसे हो सकता है तुम न पढ़ो, मगर एक बार मनुस्मृति जरूर पढ़नी चाहिए. उन्होंने राजकोट के चिकित्सा अधीक्षक को आदेश भी दिया कि वह लड़की की जांच कराएं और बताएं कि गर्भपात कराना ठीक है, अथवा नहीं. अदालत में पंद्रह जून तक रिपोर्ट जमा करें. लड़की के मानसिक स्वास्थ्य की भी जांच की जाए. उन्होंने लड़की के वकील से यह भी कहा कि अगर गर्भपात संभव नहीं है, तो विकल्पों पर विचार हो. क्योंकि यदि लड़की ने बच्चे को जन्म दिया, तो बच्चे की देखभाल कौन करेगा. हम इस बात का भी पता करेंगे कि क्या ऐसे बच्चों को पालने की कोई सरकारी योजना भी है. आपको यह भी पता करना चाहिए कि कौन इस बच्चे को गोद लेगा.
ध्यान से देखें, तो फैसले में कुछ बातें नजर आती हैं. लड़की के परिवार और वकील की चिंता लड़की की उम्र को लेकर है. यह भी कि यदि अभी लड़की के कंधों पर मां बनने की जिम्मेदारी डाल दी जाए, तो क्या वह इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए पूरी तरह सक्षम है. उसके आर्थिक संसाधन क्या हैं. इसके अतिरिक्त, उसकी आगे की पढ़ाई-लिखाई, भविष्य का क्या होगा. सामाजिक कारणों से उसे कितने मानसिक दबाव से गुजरना होगा. उसका जीवन कैसे चलेगा. बलात्कार जैसे अपराध के कारण जन्मे बच्चे को क्या लड़की और परिवार के अन्य सदस्य प्यार और स्नेह दे पायेंगे.
दूसरी तरफ जब न्यायाधीश महोदय ने कहा कि लड़की की मां या दादी-नानी का विवाह चौदह-पंद्रह वर्ष की उम्र में हो गया होगा और सत्रह वर्ष तक वे मां बन गयी होंगी, इसके लिए मनुस्मृति को पढ़ लिया जाए. इस बात में भी कुछ गलत नहीं है. क्योंकि उस समय ऐसा ही होता था. उस समय क्या, आज भी बहुत सी लड़कियों की शादी छुटपन में कर दी जाती है, छोटी उम्र में वे मां भी बन जाती हैं. यही कारण है कि परिवार नियोजन संबंधी विज्ञापनों में अक्सर इस बात पर जोर दिया जाता है कि लड़की को छोटी उम्र में मां नहीं बनना चाहिए. यह उसके और बच्चे के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. लेकिन दुर्योग से अगर ऐसा हो गया है, तो क्या-क्या संभावनाएं हो सकती हैं, न्यायाधीश महोदय ने इस पर भी विचार किया. उन्हें अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार की भी चिंता थी. इसीलिए उन्होंने कहा भी कि यदि मां और गर्भस्थ दोनों स्वस्थ हैं, तो वे गर्भपात की आज्ञा नहीं देंगे. सही भी है, क्योंकि किसी भी अपराध के लिए गर्भस्थ शिशु जिम्मेदार नहीं है.
परंतु इस पर भी गौर करने की जरूरत है कि जिस आदमी ने इस अपराध को अंजाम दिया, उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं आन पड़ी. हो सकता है कि उसे सजा मिल जाए, पर इससे लड़की के ऊपर कम आयु में जो बोझ पड़ेगा, वह कम नहीं हो जायेगा. मनुस्मृति के जमाने से लेकर आज तक, लड़कियों की छोटी उम्र में जो शादियां होती आयी हैं, उसमें उन्हें सामाजिक दबाव के कारण कोई वैसी यंत्रणा नहीं झेलनी पड़ती, जो किसी अविवाहित मां को झेलनी पड़ती है. आज भले ही लड़की का मानसिक स्वास्थ्य ठीक हो, लेकिन भविष्य में हो सकता है कि इस अनचाही जिम्मेदारी से उसका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ जाए. एक तरफ अजन्मे शिशु के जीवन की रक्षा का प्रश्न, तो दूसरी तरफ जो लड़की बच्चे को जन्म नहीं देना चाहती, उसके जीवन के अधिकार का प्रश्न भी है. होना तो यह चाहिए कि अगर वह बच्ची, बच्चे को जन्म देती भी है, तो उसे और उसके बच्चे को समाज में पूरा सम्मान मिले. उन्हें किसी तरह से दोष न दिया जाए. पर हमारे यहां बलात्कार करने वाले पर कोई उंगली नहीं उठाता है. सारा दोष लड़की के सिर मढ़ दिया जाता है.
कायदे से इस मामले में एक गंभीर बहस होनी चाहिए. क्योंकि सबसे जरूरी हमारे जीवित रहने का अधिकार ही है. न्यायाधीश महोदय के निर्णय को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. इसके अतिरिक्त, लड़कियों की शादी की उम्र मात्र कागजों में ही तय न की जाए, क्योंकि समाज में फैली रीतियों-कुरीतियों को मात्र कागजी आदेशों से नहीं निपटाया जा सकता. सामाजिक चेतना बढ़ानी पड़ती है, जिसकी हमारे समाज को सख्त जरूरत है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)