बढ़ते कर्ज भार पर ध्यान देने की जरूरत
भारत के पक्ष में दो बिंदु हैं. पहला-कर्ज का बड़ा हिस्सा घरेलू मुद्रा में है, इसलिए सरकार पर डॉलर दायित्व नहीं है. दूसरा-भारत का कार्यबल युवा है व निर्भरता अनुपात अगले कम से कम सकारात्मक रहेगा. एक सेवानिवृत व्यक्ति पर हमारे देश में 5 से अधिक कामकाजी लोग हैं. लेकिन कामगारों की प्रति व्यक्ति आय कम है.
हाल में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपनी एक रिपोर्ट में भारत के बढ़ते संप्रभु कर्ज (केंद्र और राज्य सरकारों का कुल कर्ज भार) पर चिंता व्यक्त की है. मुद्रा कोष का कहना है कि अगले चार साल में यह कर्ज भारत के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का सौ प्रतिशत से अधिक हो सकता है. यह सबसे खराब स्थिति का अनुमान है. भारत सरकार ने इस चेतावनी को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा है कि वास्तव में भारत का कर्ज अनुपात बीते दो वर्षों में 88 से घटकर 81 प्रतिशत हो गया है और सरकार अगले दो सालों में वित्तीय घाटे को कम कर 4.5 प्रतिशत तक लाने के लिए प्रतिबद्ध है. जब यह घाटा अधिक होता है, तो सरकार को भरपाई के लिए कर्ज लेने पर मजबूर होना पड़ता है. हर साल का यह अतिरिक्त ऋण पहले के भारी कर्ज में जुड़ता जाता है. जब कर्ज अधिक होता है, तो सालाना ब्याज भुगतान भी अधिक होता है. इसे कर्ज सर्विसिंग अनुपात कहा जाता है. इस ब्याज भुगतान में ही केंद्र सरकार को लगभग 10 लाख करोड़ रुपये देने पड़ते हैं. यह राशि व्यक्तिगत आयकर या कॉर्पोरेट आयकर संग्रहण (लगभग सात लाख करोड़ रुपये) से बहुत अधिक है. दो वर्षों में ब्याज भुगतान में 38 फीसदी की बड़ी वृद्धि हुई है. यह ब्याज भुगतान अकेले सरकार के खर्च का सबसे बड़ा हिस्सा है, जिस पर सरकार के कुल उत्तरदायित्व का 20 प्रतिशत भाग खर्च हो जाता है. चूंकि ब्याज का भार बहुत अधिक है, तो इसकी वजह से घाटा भी बढ़ता है. घाटा बढ़ने पर फिर कर्ज लेना होता है, जिसके कारण ब्याज के भार में भी बढ़ोतरी होती है. यह दुश्चक्र कर्ज जाल में भी फंसा सकता है. यह केवल ब्याज भरने के लिए कर्ज लेते रहने जैसा मामला है.
सरकार कब इस कर्ज के पहाड़ को घटा सकती है? यह तभी हो सकता है, जब खर्च की अपेक्षा कर राजस्व में तेज बढ़ोतरी हो. वास्तव में इधर कुछ समय से ऐसा हो रहा है. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के संग्रहण में वृद्धि हो रही है. ऐसा होने की एक वजह कुछ सालों में हुए कर कानूनों में सुधार हैं, जिनसे कई खामियां दूर हुई हैं. उदाहरण के लिए, दीर्घकालिक पूंजी लाभ कोई टैक्स नहीं लगता था. शेयर या रियल इस्टेट बेचकर कमाये गये लाभ अब पहले की तरह करमुक्त नहीं हैं. मॉरीशस कर समझौते में भी एक कमी थी, जिसे कुछ साल पहले ठीक किया गया है. लेकिन जीडीपी के अनुपात में कर संग्रहण बढ़ाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. वर्तमान में यह लगभग 17 प्रतिशत है. यह सभी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के औसत से कम से कम तीन-चार प्रतिशत नीचे है. जहां तक प्रत्यक्ष करों का प्रश्न है, भारत में ये टैक्स अपेक्षाकृत कम हैं. इस तथ्य को केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आर्थिक सर्वेक्षण में रेखांकित किया गया था. दूसरी ओर अप्रत्यक्ष करों का भार बढ़ता जा रहा है. जीएसटी की औसत दर 18 प्रतिशत के उच्च स्तर पर है.
अब भारत के कर्ज के मामले पर वापस आते हैं. सरकार ने मुद्रा कोष की रिपोर्ट की प्रतिक्रिया में एक बात यह कही है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे अन्य देशों में जीडीपी के अनुपात में तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक कर्ज भार है. लेकिन इसमें यह बात नहीं जोड़ी गयी है कि अधिकतर धनी देशों में (जिनमें विकसित राष्ट्र भी शामिल हैं) यही स्थिति है क्योंकि सामाजिक सुरक्षा से संबंधित उनके उत्तरदायित्व बहुत अधिक हैं. ऐसे सभी देशों में सभी बुजुर्ग नागरिकों को पेंशन मिलती है और उनके लिए मुफ्त स्वास्थ्य सेवा है. इन खर्चों की भरपाई कामकाजी लोगों पर लगाये गये करों से होती है. चूंकि धनी देशों की आबादी की उम्र बढ़ रही है और वहां औसत आयु भारत से बहुत ज्यादा है, तो करों से सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का खर्च पूरा नहीं हो पाता. जर्मनी जैसे देश में निर्भरता अनुपात एक और तीन का है यानी हर रिटायर्ड व्यक्ति के लिए तीन कामकाजी लोग हैं. इस प्रकार धनी देशों में बढ़ता खर्च सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के कारण है, जो शायद लंबे समय तक जारी रखना मुश्किल होगा.
भारत में शायद ही ऐसा कोई सामाजिक सुरक्षा भुगतान होता है. पुरानी पेंशन स्कीम के दायरे में आने वाले लोगों का भुगतान वर्तमान राजस्व से होता है. यह सरकारी या सैनिक सेवा से सेवामुक्त हुए लोगों को ही मिलता है. पुरानी पेंशन स्कीम बहुत उदार है, पर यह कार्यबल के महज तीन फीसदी हिस्से को ही दिया जाता है. आंध्र प्रदेश सरकार की एक रिपोर्ट के आकलन के अनुसार, पेंशन और वेतन पर सरकार का खर्च जल्दी ही राजस्व का 27 प्रतिशत हो जायेगा. इसलिए भारत के 80 या 90 प्रतिशत कर्ज अनुपात का बचाव अमेरिका या ब्रिटेन के 140 या 150 प्रतिशत से तुलना कर करना उचित नहीं है क्योंकि उनका कर्ज सामाजिक सुरक्षा भुगतान और आबादी की बढ़ती आयु के कारण है. भारत के पक्ष में दो बिंदु हैं. पहला, कर्ज का बड़ा हिस्सा घरेलू मुद्रा में है, इसलिए सरकार पर डॉलर दायित्व नहीं है. दूसरा, भारत का कार्यबल युवा है और निर्भरता अनुपात अगले कम से कम सकारात्मक रहेगा. एक सेवानिवृत व्यक्ति पर हमारे देश में पांच से अधिक कामकाजी लोग हैं. लेकिन हमारे कामगारों की प्रति व्यक्ति आय कम है. हमारे लिए आय पर अधिक कर लगाना बहुत कठिन है. इसलिए 2005 से चल रही नयी पेंशन स्कीम सरकार का बोझ उतार देती है.
इन दो कारकों के भारत के पक्ष में होने के बावजूद हमें अपने कर्ज को लेकर गंभीरता से चिंतित होना चाहिए. वार्षिक खर्च के हिस्से के रूप में ब्याज भुगतान बहुत ही ज्यादा है. हमारे पास सरकार के स्वामित्व में बड़ी पूंजी जमा है, जिससे कोई खास फायदा हासिल नहीं होता. जहां संभव जो, इसे निजी स्वामित्व में दे देना चाहिए. हमें खर्च की सक्षमता की समीक्षा करनी चाहिए और बर्बादी को रोकना चाहिए. साथ ही, भारत को मानवीय पूंजी को बेहतर करने पर अधिक सरकारी धन खर्च करना चाहिए, मसलन प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और प्राथमिक शिक्षा पर. सरकारी विश्वविद्यालयों के जरिये शोध और अन्वेषण पर भी खर्च करने की आवश्यकता है. अब जब जीडीपी वृद्धि अच्छी है, तो हमें कर्ज की स्थिति को बेहतर करने पर ध्यान देना चाहिए. इसके लिए खर्च (28 प्रतिशत) और कर राजस्व (17 प्रतिशत) के बीच की खाई को पाटना होगा तथा राजस्व बढ़ाने के साथ खर्च की गुणवत्ता बेहतर करनी होगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)