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नेताजी: स्वतंत्रता संघर्ष के अग्रणी सेनानी

वे छात्रों को ‘भविष्य का उत्तराधिकारी’ बताते हुए कहते थे कि देश के उद्धार की सच्ची शक्ति व सामर्थ्य उनमें ही है, इसलिए वे अपने को जनता से जोड़ें. उनकी इच्छा थी कि छात्र गांवों में निष्क्रिय पड़े तीन वर्गों- नारी, अनुन्नत वर्ग एवं किसान-मजदूर- के पास जाएं, उन्हें प्रेरित करें.

By कृष्ण प्रताप | January 24, 2024 2:56 AM

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शिकंजे से देश की मुक्ति के नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बहुविध प्रयत्नों को 16 जनवरी, 1941 से पहले के प्रयत्नों को पहले और उसके बाद के प्रयत्नों को दूसरे हिस्से में रखा जा सकता है. सोलह जनवरी वह तारीख है, जब अपनी नजरबंदी के दौरान वेेश बदलकर गोरी सत्ता को छकाते हुए वे देश की सीमा के पार गये और सशस्त्र मुक्ति संघर्ष के लिए आजाद हिंद सेना गठित की. सर्वोच्च कमांडर की हैसियत से 21 अक्टूबर, 1943 को उन्होंने स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी, तो दुनिया ने उसे चमत्कृत होकर देखा था. ‘जय हिंद’, ‘दिल्ली चलो’ और ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ जैसे जोशीले नारों के साथ आजाद हिंद सेना कई भारतीय क्षेत्रों को मुक्त कराते हुए अप्रैल, 1944 में कोहिमा आयी, उसे विकट मुकाबले का सामना करना पड़ा. नेताजी ने हौसला नहीं खोया और मुक्ति युद्ध के नये प्रयत्नों में लग गये. छह जुलाई, 1944 को रंगून रेडियो से एक प्रसारण में उन्होंने निर्णायक युद्ध में विजय के लिए महात्मा गांधी का आशीर्वाद मांगा. यह और बात है कि नियति ने उनकी जुगत को मंजिल तक नहीं पहुंचने दिया.

फिर भी देशवासियों ने उनके शौर्य को लेकर न सिर्फ नाना प्रकार के मिथक रचे, बल्कि 18 अगस्त, 1945 को विमान दुर्घटना में उनके निधन की खबर को खारिज कर अपनी स्मृतियों में जीवित रखा. लेकिन उनके यूं मिथक बन जाने का एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि 1941 से पहले के उनके संघर्ष पर कम चर्चा हुई. मसलन, महात्मा गांधी की रीति-नीति से खिन्न होकर 1939 में कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़कर फारवर्ड ब्लॉक (जो पहले कांग्रेस के अंदर ही था) का अलग पार्टी के रूप में गठन, सुभाष यूथ ब्रिगेड द्वारा कोलकाता स्थित गुलामी के प्रतीक हालवेट स्तंभ को ढाह देना, गिरफ्तारी और जेल में अनशन के बाद घर पर नजरबंदी. साल 1921 में वे आइसीएस जैसी प्रतिष्ठित सेवा का लोभ ठुकरा कर देशबंधु चितरंजन दास के शिष्यत्व में कांग्रेस से जुड़े, तो जल्दी ही छात्रों एवं युवकों के चहेते बन गये थे. उन दिनों देश में जहां कहीं भी छात्र एवं युवा सम्मेलन होते, उनके सभापतित्व के लिए पहली पसंद वही होते थे. वे छात्रों को ‘भविष्य का उत्तराधिकारी’ बताते हुए कहते थे कि देश के उद्धार की सच्ची शक्ति व सामर्थ्य उनमें ही है, इसलिए वे अपने को जनता से जोड़ें. उनकी इच्छा थी कि छात्र गांवों में निष्क्रिय पड़े तीन वर्गों- नारी, अनुन्नत वर्ग एवं किसान-मजदूर- के पास जाएं, उन्हें प्रेरित करें.

साल 1929 में हुगली जिला छात्र सम्मेलन में उन्होंने छात्रों से कहा था, ‘साम्यवाद और स्वाधीनता के मंत्र के प्रचार के निमित्त तुम गांवों में बिखर जाओ. किसानों की झोपड़ियों तथा मजदूरों की गंदी बस्तियों में तुम जाओ. उन्हें जगाओ.’ इस सम्मेलन में उन्होंने छात्रों को स्वाधीनता का जो मंत्र दिया, उसमें विदेशी शासन से ही नहीं, आर्थिक तथा सामाजिक विषमता से मुक्ति पर भी जोर था. साल 1929 में लाहौर में उन्होंने कहा, ‘स्वाधीनता का अर्थ जहां तक मैं समझता हूं, समाज और व्यक्ति व नर-नारी, धनी और दरिद्र सभी के लिए स्वाधीनता मात्र राष्ट्रीय बंधन से मुक्ति नहीं, बल्कि आर्थिक असमानता, जाति भेद, और सामाजिक अविचार का निराकरण और सांप्रदायिक संकीर्णता एवं रूढ़ि त्याग का मंत्र भी है.’ वे कार्ल मार्क्स के विचारों के अंधानुकरण के पक्ष में नहीं थे, पर समाजवाद को स्वीकार करते थे.

साल 1929 में मेदिनीपुर युवा सम्मेलन में उन्होंने कहा था, ‘पूर्ण साम्यवाद के आधार पर नये समाज का निर्माण करना होगा. जाति भेद के स्थायी ढांचे को बिलकुल तोड़ देना होगा. नारी को सभी दृष्टियों से मुक्त कर समाज और राष्ट्र के पुरुषों के साथ अधिकार और दायित्व देना होगा. आर्थिक विषमता दूर करनी होगी और वर्ण-धर्म के भेदभाव को भूलकर प्रत्येक को शिक्षा और विकास का समान सुयोग देना होगा. समाजवादी संपूर्ण स्वाधीन राष्ट्र जिस प्रकार भी स्थायी हो, उसके लिए सचेष्ट होना होगा.’ समाजवाद के प्रति उनका यह विश्वास जीवन भर नहीं डिगा. साल 1937 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष पद से उन्होंने कहा था, ‘मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हमारी दरिद्रता, निरक्षरता और बीमारी के उन्मूलन तथा वैज्ञानिक उत्पादन तथा वितरण से संबंधित समस्याओं का प्रभावकारी समाधान समाजवादी मार्ग पर चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है.’

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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