चोला माटी के राम, एकर का भरोसा’ छत्तीसगढ़ में दशकों से गाये जाते रहे इस गीत के बोल बताते हैं कि यह शरीर मिट्टी का है, इसका कोई भरोसा नहीं. लेखक अभिषेक सिंह ‘नीरज’ वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हैं. वे छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके में रहे हैं और बंदूक व कलम दोनों पर अधिकार रखते हैं. शायद इसीलिए यह उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा नहीं लगता कि हम किसी ‘बाहरी’ शख्स के कल्पना लोक में विचर रहे हैं.
पुलिस अधिकारी के तौर पर नक्सलियों की बात करते समय वे बड़ी आसानी से किसी एक पक्ष को चुन सकते थे, लेकिन इस उपन्यास की खूबी है कि यह ‘दोनों तरफ’ की बात सामने रखता है. इसीलिए अंत तक भी आप यह तय नहीं कर पाते कि आपको किन किरदारों को सही मानना है. पर यह समझ आने लगता है कि कौन, कहां, कैसी गलती कर रहा है. यह कहानी है छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के जंगलों की. दूर शहरों में बैठे बड़े नक्सली आकाओं के इशारे पर यहां के युवा बंदूकें उठाये खुद को ‘जनताना सरकार’ समझे बैठे हैं. उनका काम है बाहर से आते विकास और उसे लाने वालों को जंगल की सरहद पर ही रोकना. उन पर शोध के इरादे से दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक छात्र साकेत उनके बीच आकर रहता है.
यहां उसे नक्सली कमांडर मासा और उसके साथियों के अलावा पुलिस कांस्टेबल चौबे जी मिलते हैं, जिन्हें नक्सली अपना ही साथी मानते हैं. साकेत, मासा और चौबे जी की बातचीत और लगातार घटती घटनाएं हमें न सिर्फ नक्सलियों और सुरक्षा बलों की सोच और कार्यशैलियों से परिचित कराती हैं, बल्कि हमें नक्सलवाद के उस अनेदेखे संसार में भी ले जाती हैं, जिनके बारे में हमें खबरों से ही पता चलता है और वह भी एकतरफा. अभिषेक सिंह बड़ी ही कुशलता से संतुलन साधते हुए जिस तरह पाठकों को दोनों तरफ की बातों-विचारों से परिचित कराते हैं, उससे यह उपन्यास असरदार हो उठा है. उनकी लेखन शैली सहजता लिये हुए है और उसमें उस किस्म की मुरकियां व आलाप नहीं हैं, जिन्हें ‘प्रोफेशनल’ लेखक अक्सर अपना प्रभाव गढ़ने के लिए इस्तेमाल में लाते हैं. गूढ़ साहित्य पसंद करने वालों को यह बात अखर सकती है, तो वहीं आम पाठकों को यही सहजता लुभायेगी. अपनी बात रखता है, यह भी इसकी एक विशेषता है.
चोला माटी के राम / अभिषेक सिंह ‘नीरज’ / साहित्य विमर्श प्रकाशन
– दीपक दुआ