हाल में बेंगलुरु से बड़ी चिंताजनक खबर आयी. वहां लगातार ऐसी शिकायतें आ रही थीं कि बच्चे स्कूल बैग में मोबाइल छिपा कर स्कूल ला रहे हैं. कर्नाटक में प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों से संबद्ध प्रबंधन ने स्कूलों से छात्रों के बैग की जांच करने को कहा. खबरों के अनुसार कक्षा आठ, नौ और दस के छात्रों के बैग से सिगरेट, लाइटर, व्हाइटनर, कंडोम व शराब तक बरामद हुई. भौंचक अभिभावक यह मानने को तैयार नहीं थे कि उनके बच्चे इतना बदल गये हैं. जब इस बारे में बच्चों से पूछा गया, तो वे एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगे. एक छात्रा का जवाब था कि जहां वह ट्यूशन पढ़ने जाती है, वहां के लोग इसके लिए दोषी हैं. कर्नाटक में प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों के एसोसिएटेड प्रबंधन के महासचिव डी शशि कुमार का कहना था कि करीब 80 स्कूलों में यह जांच की गयी. स्कूलों ने फैसला किया है कि छात्रों का निलंबन समस्या का समाधान नहीं है. स्कूलों ने अभिभावकों के साथ एक साझा बैठक की और काउंसेलिंग सत्र आयोजित करने का फैसला किया. माता-पिता से भी कहा गया है कि वे बाहर से भी बच्चों के लिए मदद ले सकते हैं और इसके लिए वे 10 दिन तक की छुट्टी ले सकते हैं.
अगर आप सोच रहे हैं कि यह केवल बेंगलुरु के बच्चों का मामला है, तो आप गलत सोच रहे हैं. यह हम सबके लिए खतरे की घंटी है. हम सबके चेतने का वक्त है. इसमें कोई शक नहीं है कि नयी पीढ़ी के बच्चे अत्यंत प्रतिभाशाली हैं, लेकिन शायद आपने गौर नहीं किया कि आपके बच्चे बदल चुके हैं. विदेशी पूंजी और टेक्नोलॉजी जब आती है, तो उसके साथ एक वातावरण और संस्कृति भी लाती है. उसकी ताकत इतनी है कि उसके प्रभाव से बचना मुश्किल है. दिक्कत यह है कि हम यह तो चाहते हैं कि पूंजी आये, लेकिन उसके साथ आने वाले वातावरण से तारतम्यता कैसे बिठाना है, इस पर कोई विमर्श नहीं होता. आप गौर करें कि आपके बच्चे के सोने, पढ़ने के समय, हाव-भाव और खान-पान सब बदल चुके है. हम या तो आंख मूंदे हैं या इसे स्वीकार नहीं करते हैं. आप सुबह पढ़ते थे, बच्चा देर रात तक जागने का आदी है. आप छह दिन काम करने के आदी हैं, बच्चा सप्ताह में पांच दिन स्कूल का आदी है. उसे मैगी, मोमो, बर्गर, पिज्जा से प्रेम है, आपकी सुई अब भी दाल-रोटी पर अटकी है. पहले माना जाता था कि पीढ़ियां 20 साल में बदलती हैं, तकनीक ने इस परिवर्तन को 10 साल कर दिया और अब नयी व्याख्या है कि पांच साल में पीढ़ी बदल जाती है. इसका अर्थ यह है कि यदि आपके दो बच्चे हैं और उनमें पांच साल का अंतर है, तो उनके आचार-व्यवहार में भारी अंतर होगा. इस परिवर्तन में टेक्नोलॉजी की बड़ी भूमिका है. मोबाइल ने सारा परिदृश्य बदल दिया है. व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर तो जीवन में दाल-रोटी जैसी जरूरतों में शामिल हो गये हैं.
कुछ समय पहले खबर आयी थी कि लखनऊ में एक मां ने बेटे को मोबाइल फोन पर पब्जी खेलने से मना किया, तो उसने मां की गोली मार कर हत्या कर दी. यह घटना बताती है कि हम तकनीक के कितने बंधक हो गये हैं और उसके लिए किस हद तक जा सकते हैं. मुंबई में एक 16 वर्षीय बच्चे ने ट्रेन के सामने कूद कर आत्महत्या कर ली थी. पुलिस के अनुसार बच्चा मोबाइल पर गेम खेल रहा था, तभी उसकी मां ने उसके हाथ से मोबाइल छीना और पढ़ाई के लिए कहा. इस पर गुस्से में आकर बच्चे ने एक नोट लिखा और घर से चला गया. कुछ समय बाद जब मां घर पहुंची, तो उसने बच्चे की चिट्ठी देखी कि वह आत्महत्या करने जा रहा है. पुलिस तत्काल बच्चे की खोज में जुट गयी, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मोबाइल की लत से बच्चों का सोना-जागना, पढ़ना-लिखना और खान-पान सब प्रभावित हो जाता है और वे बेगाने से हो जाते हैं. टेक्नोलॉजी ने उनका बचपन छीन लिया है. अब बच्चे किशोर, नवयुवक जैसी उम्र की सीढ़ियां चढ़ने के बजाय सीधे वयस्क बन जाते हैं. शारीरिक रूप से भले ही वे वयस्क नहीं होते हैं, लेकिन मानसिक रूप से वे वयस्क हो जाते हैं. वे घर के किसी अंधेरे कमरे में हर वक्त मोबाइल अथवा कंप्यूटर में उलझे रहते हैं. अब खेल के मैदानों में आपको गिने-चुने बच्चे ही नजर आयेंगे. यह व्हाट्सएप की पीढ़ी है, यह बात नहीं करती, मैसेज भेजती है, लड़के-लड़कियां दिन-रात आपस में चैट करते हैं. इसके लिए कुछ हद तक माता-पिता भी दोषी हैं. उन्हें लगता है कि वे बच्चों को संभालने का सबसे आसान तरीका सीख गये हैं. दो-ढाई साल की उम्र के बच्चे को मोबाइल पकड़ा दिया जाता है और जल्द ही उन्हें इसकी लत लग जाती है.
यह जान लें कि टेक्नोलॉजी दो-तरफा तलवार है. एक ओर जहां यह वरदान है, तो दूसरी ओर मारक भी है. कोरोना काल से पहले प्रभात खबर ने झारखंड में बचपन बचाओ आंदोलन छेड़ा था. इसमें प्रभात खबर की टीम विभिन्न स्कूलों में जाती थी, उनके साथ मनोविशेषज्ञ भी होते थे. हम भी जानना चाहते थे कि बच्चे क्या सोच रहे हैं, कैसे सोच रहे हैं, उनकी महत्वाकांक्षाएं क्या हैं. ऐसे ही एक कार्यक्रम में मुझे भी बच्चों से संवाद करने का मौका मिला था. एक स्कूल के हॉल में लगभग 700-750 बच्चे रहे होंगे. प्रारंभिक वक्तव्य के बाद सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ. स्वाभाविक रूप से शुरुआत में बच्चों ने थोड़ा संकोच किया, लेकिन बाद में वे मुखर होते गये. लगभग 90 फीसदी बच्चों के सवाल माता-पिता और करियर को लेकर केंद्रित थे. वे परिवार की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट नजर नहीं आ रहे थे. दरअसल, बच्चों और माता-पिता के बीच संवादहीनता की स्थिति का निर्माण हो गया है. जो भी कारण हों, बच्चे परिवार से कटे-कटे नजर आते हैं. वे बात-बात पर चिढ़ने लगते हैं तथा स्कूल और घर दोनों ही जगह तुरंत आक्रामक हो जाते हैं. यह बेहद चिंताजनक स्थिति है. हमें नयी परिस्थितियों से तालमेल बिठाने के विषय में गंभीरता से सोचना होगा. बच्चा क्या कर रहा है, किस दिशा में जा रहा है, किस हद तक जा रहा है, इसका हमें पता रखना होगा. परिवर्तन पर आपका बस नहीं है, लेकिन सबसे जरूरी है कि बच्चों से संवाद बना रहना चाहिए.