5000 बरगद, आम और जामुन का पेड़ लगाने वाले बंगाल के ‘गाछ दादू’ दुखु माझी को पद्म श्री पुरस्कार
साइकिल से घूम-घूमकर खाली जगहों पर पेड़ लगाने वाले दुखु को इसी वजह से ‘गाछ दादू’ के नाम से जाना जाता है. पुरुलिया जिले के सिंदरी गांव के रहने वाले आदिवासी पर्यावरणविद महज 12 साल की उम्र में धरती की हरियाली को बचाने और धरती को हरा-भरा बनाने के अभियान में जुट गए थे.
पश्चिम बंगाल के ‘गाछ दादू’ को भारत सरकार ने पद्म श्री सम्मान देने की घोषणा की है. गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर इसकी घोषणा की गई. झारखंड और पश्चिम बंगाल की सीमा पर स्थित पुरुलिया जिले के दुखु माझी को खाली और बंजर जमीन पर अब तक 5000 से अधिक बरगद, आम और जामुन के पेड़ लगा चुके हैं. साइकिल से घूम-घूमकर खाली जगहों पर पेड़ लगाने वाले दुखु को इसी वजह से ‘गाछ दादू’ के नाम से जाना जाता है. पुरुलिया जिले के सिंदरी गांव के रहने वाले आदिवासी पर्यावरणविद महज 12 साल की उम्र में धरती की हरियाली को बचाने और धरती को हरा-भरा बनाये रखने के अभियान में जुट गए थे. पेड़ लगाने का अभियान चलाने वाले दुखु माझी पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म भी बन चुकी है. इस फिल्म का नाम था- ‘रुखु माटी दुखु माझी’.
प्रकृति संरक्षण में लगे हैं 80 साल के दुखु माझी उर्फ गाछ दादू
दुखु माझी 80 साल के हो गए हैं. आज भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते. पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के गाछ दादू जब वह किशोरावस्था में थे, तभी से पेड़ लगाने के अभियान में जुट गए थे. मैदान से लेकर नदी, तालाब के घाटों पर पौधे लगाने लगे थे. यहां तक कि श्मशानों में भी पौधे लगा दिए. इसके पीछे कोई लालच नहीं था. किसी पुरस्कार की इच्छा नहीं थी. दुखु माझी उर्फ गाछ दादू ने भले पढ़ाई-लिखाई नहीं की, लेकिन पेड़-पौधे का क्या महत्व है, इसको बखूबी जानते हैं. वह जानते हैं कि जीवन के लिए ऑक्सीजन और ऑक्सीजन के लिए पेड़-पौधों की जरूरत है. उनका मानना है कि धरती पर हरियाली रहेगी, तभी इंसान के जीवन में खुशहाली आएगी.
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मिट्टी के टूटे-फूटे मकान में रहते हैं गाछ दादू
गाछ दादू यह भी जानते हैं कि अगर प्रकृति नष्ट हो गई, तो इंसान का भी बचना मुश्किल होगा. इसलिए पेड़-पौधों को काटने की बजाय, पेड़-पौधे लगाने जरूरी हैं. 80 साल की उम्र में भी उन्होंने अपने इस अभियान को कमजोर नहीं पड़ने दिया है. आज भी वह पेड़ लगाते हैं. अयोध्या पहाड़ और लागोया समेत तमाम इलाकों में आज भी पेड़-पौधे लगा रहे हैं. हालांकि, आज भी दुखु माझी एक टूटे-फूटे मिट्टी के मकान में रहते हैं. धोती-गंजी पहनते हैं. किसी तरह परिवार का भरण-पोषण कर लेते हैं. परिवार में पत्नी के अलावा एक दिव्यांग बेटा भी है. बड़ा बेटे अलग रहता है. गाछ दादू को आज तक सरकारी मदद के रूप में वृद्धा भत्ता, पेंशन और राशन के अलावा कुछ नहीं मिला.
दुखु माझी को प्रकृति की सेवा का मिला पुरस्कार
बावजूद इसके, गाछ दादू को किसी से कोई शिकायत नहीं. इससे अधिक की उन्होंने कभी अपेक्षा भी नहीं की. उन्होंने अपनी गरीबी के बारे में कभी सोचा ही नहीं. सिर्फ पौधे लगाना और उनकी सेवा करना ही उनके जीवन का मकसद रहा. सुबह होते ही वन विभाग की ओर से पुरस्कार में मिली साइकल पर सवार होकर निकल पड़ते हैं. जहां खाली जगह देखते हैं, वहीं पौधा लगा देते हैं. आसपास में बेकार पड़ी लकड़ियों से उसकी घेराबंदी करते हैं. पौधों को सुरक्षित भी रखते हैं और उसकी सेवा भी करते हैं. वह खुद ही पेड़ नहीं लगाते. अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करते हैं. नि:स्वार्थ भाव से धरती मां की सेवा करने के लिए ही दुखु माझी उर्फ गाछ दादू को पद्म श्री जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला है.
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