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सरकार पर हावी रहेगी पाकिस्तानी सेना

इस चुनाव ने फिर यह साबित किया है कि अगर पाकिस्तान में किसी भी प्रकार का लोकतंत्र चलाना है, तो वह पाकिस्तानी सेना को विश्वास में लिये बिना नहीं किया जा सकता है. इमरान खान के साथ जो भी हुआ है और हो रहा है, उसकी एकमात्र वजह उनका सेना से टकराव रहा है.

बड़े पैमाने पर हिंसा और भरोसे की कमी के बीच पाकिस्तान की नेशनल असेंबली और चार प्रांतीय असेंबलियों के लिए मतदान हुआ है. मतदान के दौरान समूचे देश में इंटरनेट सेवाओं को भी बंद रखा गया है. जैसा कि पहले से आशंका जतायी जा रही है, इस चुनाव और इसके नतीजों को संदेह की नजर से देखा जायेगा. इस माहौल में यही लग रहा है कि नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) पहले स्थान पर रहेगी, लेकिन शायद उन्हें बहुमत जुटाने के लिए बिलावल भुट्टो जरदारी की पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का समर्थन लेना होगा. आखिर इमरान खान को सत्ता से हटाने और उन्हें एवं उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के कई नेताओं को चुनाव से अलग रखने में दोनों पार्टियों की भूमिका रही है. ऐसी संभावना बन रही है कि नवाज शरीफ चौथी बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहेंगे. उनकी राह में कोई बड़ी बाधा भी नहीं है क्योंकि उनके ऊपर लगे आरोपों को वापस ले लिया गया है. चुनाव आयोग ने इमरान खान की पार्टी को लड़ने से रोक दिया है और उसके चुनाव चिह्न के इस्तेमाल पर भी पाबंदी है. सो, उनके उम्मीदवारों को निर्दलीय लड़ना पड़ रहा है. जिस प्रकार इमरान खान को रोकने की कवायद राजनीतिक रूप से तथा अदालत और सेना के द्वारा हुई है, उससे यही लगता है कि इमरान के समर्थक कोई उल्लेखनीय जीत हासिल नहीं कर पायेंगे. असल में इस चुनाव का मकसद ही है इमरान खान को पाकिस्तान की राजनीति से बाहर कर देना. इस चुनाव ने फिर यह साबित किया है कि अगर पाकिस्तान में किसी भी प्रकार का लोकतंत्र चलाना है, तो वह पाकिस्तानी सेना को विश्वास में लिये बिना नहीं किया जा सकता है. इमरान खान के साथ जो भी हुआ है और हो रहा है, उसकी एकमात्र वजह उनका सेना से टकराव रहा है. जैसा कि बहुत समय से कहा जा रहा है कि नवाज शरीफ को लंदन निर्वासन से वापस बुलाया ही गया है उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए. इसीलिए उनके खिलाफ सारे मुकदमों को हटा लिया गया है. इसलिए भी लगता है कि पाकिस्तान की आगामी सरकार मिली-जुली सरकार होगी और बिलावल भुट्टो को सरकार से बाहर रखना चुनौतीपूर्ण हो सकता है. बहरहाल, जो लोग भी पाकिस्तान की राजनीति को समझते हैं, उन्हें इस चुनाव से बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं. लेकिन कम से कम यह संतोषजनक माना जा सकता है कि वहां सेना का सीधा शासन न होकर एक सरकार के हाथ में सत्ता की बागडोर होगी. पर साथ में यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि बहुत से पाकिस्तानी नागरिकों तथा अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नजर में पाकिस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था की साख नहीं बढ़ेगी.

नवाज शरीफ पुराने नेता हैं और वे पहले तीन बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. दक्षिण एशिया और दुनिया के दूसरे हिस्सों में नेताओं के साथ उनके संबंध हैं. ऐसे में यह उम्मीद की जा सकती है कि पाकिस्तान की अगली सरकार इस क्षेत्र में अपनी भूमिका की समीक्षा करेगी और उसमें ठोस सुधार की कोशिश करेगी. तीन अहम पड़ोसी देशों- भारत, ईरान और अफगानिस्तान- के साथ पाकिस्तान के संबंध बेहद खराब हैं. यह स्थिति इस क्षेत्र की शांति एवं सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है. नवाज शरीफ के सामने यह एक बड़ी चुनौती होगी. पड़ोसी देशों के साथ खराब संबंध पाकिस्तान के लिए भी हितकर नहीं हैं. देश की राजनीतिक और न्यायिक प्रक्रिया में नागरिकों के एक बड़े हिस्से का भरोसा नहीं होना, कई क्षेत्रों में आतंकवाद और अलगाववाद की मौजूदगी तथा राजनीतिक टकराव जैसे गंभीर मुद्दों पर अगर पाकिस्तान की अगली सरकार को सकारात्मक पहल करनी है, तो उसे पड़ोसी देशों के साथ ठीक से रहना होगा. आज पाकिस्तान के सामने अर्थव्यवस्था की बदहाली सबसे बड़ी समस्या है. उसे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और दूसरे देशों की मदद से अपनी अर्थव्यवस्था को चलाना पड़ रहा है. यदि अगली सरकार आर्थिक स्थिति में सुधार करने में असफल रहेगी, तो उसके लिए सत्ता में बने रहना बेहद मुश्किल हो जायेगा. तमाम कमियों के बावजूद नवाज शरीफ एक अनुभवी राजनेता हैं. वैसा अनुभव और संपर्क न तो इमरान खान में था और न बिलावल भुट्टो में है. इसलिए घरेलू और क्षेत्रीय स्तर पर हालात में कुछ सुधार की उम्मीद की जा सकती है.

लेकिन यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पाकिस्तान में जो ऐतिहासिक रूप से सत्ता की संरचना रही है, जिसमें सेना सबसे ताकतवर स्थिति में रहती है, उसमें इस चुनाव से किसी बदलाव की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. इमरान खान को सत्ता से बेदखल करने में तथा तमाम दलों को मिलाकर नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ के नेतृत्व में सरकार गठित करने में पाकिस्तानी सेना की बड़ी भूमिका रही है. यह बात इमरान खान भी कहते रहे हैं और विश्लेषकों का भी यही मानना है. आर्थिक मदद के लिए भी पाकिस्तान सेना के प्रमुख विदेश यात्रा करते रहे हैं. जिस तरह से यह चुनाव कराया गया है, उसमें अगर सेना की रजामंदी नहीं होती, तो अब तक सेना ने हस्तक्षेप कर दिया होता. यह चुनाव लोकतंत्र की बहाली के लिए नहीं हुआ है, बल्कि अब तक चले आ रहे दिखावे के लोकतंत्र को किसी तरह चलाने की एक कवायद है. यह पाकिस्तान के लिए एक त्रासदी ही कही जायेगी कि जब इमरान खान को सत्ता में लाया जा रहा था, तो नवाज शरीफ को देश छोड़ना पड़ा था और अब जब उनकी वापसी हुई है, तो एक और बड़ा नेता यानी इमरान खान को राजनीति से दूर कर दिया गया है. जो अभी वैश्विक स्थिति है, तो ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि कोई बड़ा देश पाकिस्तान में लोकतंत्र के लिए चिंता करेगा. जहां तक भारत की बात है, तो हमें यह देखना होगा कि नयी सरकार विभिन्न विषयों पर क्या रवैया अपनाती है. उसी पर यह निर्भर करेगा कि दोनों देशों के बीच बातचीत का दौर प्रारंभ हो. अफगानिस्तान और ईरान भी चाहेंगे कि पाकिस्तान उनके प्रति सकारात्मक व्यवहार करे. चूंकि अगली सरकार की सबसे प्रमुख कोशिश यही होगी कि उसे दूसरे देशों, मुद्रा कोष, विश्व बैंक आदि से आर्थिक मदद मिलती रहे, इसलिए वह अच्छी छवि पेश करना चाहेगी. नवाज शरीफ घरेलू और विदेशी मोर्चे पर गलतियों से परहेज करने की कोशिश करेंगे क्योंकि पिछली बार की गलतियों का ही नतीजा था कि इमरान खान बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब रहे थे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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