पानागढ़, मुकेश तिवारी : पश्चिम बर्दवान जिले के कांकसा ब्लॉक अंतर्गत मलानदिघी के घटक परिवार की दुर्गा महिषमर्दिनी रूप में अपने सखियों के साथ आती है. आज भी पारंपरिक रूप में मां दुर्गा इस परिवार के द्वारा महिषमर्दिनी रूप में ही अपने दो साखियों के साथ स्थापित होती है. यह परंपरा आज भी निरंतर जारी है. दुर्गा के साथ केवल उनकी दो सखियां जया और विजया ही मां दुर्गा कि प्रतिमा के साथ स्थापित होती हैं और इन्हीं तीनों देवियों की भव्य रुप से विधिवत पूजा अर्चना होती है. बताया जाता है कि घटक परिवार के तत्कालीन संस्कृत के विद्वान ज्ञाता पंडित की विद्वता का काफी नाम था. यही कारण था कि जब विद्यासागर ने विधवा विवाह प्रथा को लेकर समाज में तीव्र रूप से आवाज उठाई थी .
बंगाल के तत्कालीन संस्कृत के ज्ञाता पंडितों से इस विषय वस्तु को लेकर जानना चाहा था कि क्या शास्त्र में विधवा विवाह को लेकर किसी भी तरह का कोई अड़चन है या नहीं . बताया जाता है कि विद्यासागर ने इसी विषय वस्तु को लेकर भट्टाचार्जी परिवार के बुजुर्ग सदस्य शक्ति शंकर भट्टाचार्य ने विद्यासागर को इस प्रश्न का जवाब लिखकर भेजा था कि शास्त्र विधवा विवाह को लेकर अनुमति देता है . घटक परिवार के लोगों का कहना है की इस विषय को लेकर विद्यासागर के साथ ज्ञाता पंडित के बीच कई बार पत्राचार हुआ था. विद्यासागर ज्ञाता पंडित से काफी प्रभावित हुए थे. हालांकि फिलहाल उक्त चिट्ठियां उन लोगों के पास नहीं है.
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उन सभी चिट्ठियों को जर्मनी की एक संस्था अपने साथ रिसर्च हेतु ले गई थी .उसके बाद आज तक नहीं लौटाया गया है .परिवार के लोगों का कहना है कि दुर्गा पूजा के दौरान बलि प्रथा भी होती थी. लेकिन विगत डेढ़ सौ वर्षो से उक्त प्रथा को पूरी तरह से बंद कर दिया गया है. परिवार की ओर से कुम्हड़ा की बलि अथवा गन्ने की बलि के रूप में प्रथा को मनाया जाता है. बताया जाता है कि घटक परिवार का उक्त दुर्गा पूजा तकरीबन चार सौ वर्षों से चला आ रहा है. वर्तमान में घटक परिवार के लोगों के पास इसका कोई तथ्य नहीं है कि उनके किन पूर्वजों ने उक्त प्रथा को तथा इस दुर्गा पूजा को शुरू किया था. अष्टमी में सात रंग वरनाली प्रथा का चलन है. वही दशमी में सिंदूर खेला प्रथा आज भी मनाया जाता है.
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