हिंदी सिनेमा में अपने शानदार अभिनय के लिए जाने जाने वाले नेशनल अवार्ड विनर अभिनेता पंकज कपूर जल्द ही फ़िल्म भीड़ में नजर आनेवाले हैं. भीड़ फ़िल्म को खास करार देते हुए वो कहते हैं कि इसको अच्छी मानसिकता और सोच के साथ बनाया गया है. इसे एक सतही एंटरटेनमेंट के बजाय, वो एंटरटेनमेंट समझें,जो आपके दिल में उतरे और आइंदा के लिए आप इस पर विचार भी करें. इसके साथ -साथ विचार करते हुए दुखी ना हो बल्कि सजग रहें. उर्मिला कोरी से हुईं बातचीत के प्रमुख अंश.
आपकी मौजूदगी से हर फ़िल्म एक पायदान ऊंची पहुंच जाती है, भीड़ के बारे में आपका क्या कहना है ?
भीड़ सबसे पहले अनुभव सिन्हा साहब की वजह से अप जा रही है. उसके बाद राजकुमार राव की वजह से फिर भूमि हैं, दिया मिर्जा हैं और भी बहुत से एक्टर हैं, जिन्होने जिंदगी में बहुत अच्छा -अच्छा काम किया है. मैं तो शुक्रगुज़ार हूं, अनुभव साहब का की, उन्होने मेरे बारे में ये सोचा और मुझे अपनी फ़िल्म में कास्ट किया. अनुभव सिन्हा हाल में बहुत अच्छी फ़िल्में बनाते रहे हैं. वैसे मैं उनकी 2004 में रिलीज फ़िल्म दस का हिस्सा था. मेरी उनके साथ पुरानी दोस्ती है. मुझे अच्छा लगा कि काफी अरसे के बाद उन्होने मुझे याद फ़रमाया.
किसी किरदार को आत्मसात करते हुए आपका अप्रोच क्या होता है?
अभी भी जो नया काम आता है. उसको रूचि और डर दोनों के साथ अप्रोच करते हैं, क्योंकि पता नहीं होता है, जो इंसान आपके सामने आ रहा है. उसको ज़िन्दा करना है स्क्रीन पर. उसको मुनासिब तरीके से कर पाएंगे या नहीं, लेकिन अपनी तरफ से कोशिश करते हैं.
भीड़ के किरदार ने आपके सामने क्या चुनौती रखी?
इसमें थोड़ा जबान का सिलसिला था. अपने किरदार के क्लास से तो मैं वाकिफ हूं, लेकिन उसके बैकग्राउंड से नहीं. अनुभव सिन्हा की राइटिंग से मदद मिली. एक अरसे से काम कर रहे हैं, तो एक अंदाजा मिल जाता है कि किस तरह का किरदार है और कहां से है. उसकी मानसिकता क्या रही होगी. निर्देशक और लेखक अपनी कहानी में इसको किस तरह से देख रहा है. इसमें डायरेक्टर भी आपकी मदद करते हैं. इस फ़िल्म में डायरेक्टर राइटर भी हैं, तो चीज़ें आसान हो जाती हैं.
अब तक लॉकडाउन, प्रवासी मज़दूरों और कोरोना की त्रासदी पर कई फ़िल्में और शोज आ चुके हैं?
मैं इसको इस तरह से देखता हूं कि कोई चीज हो चुकी है, जैसे कोई किताब लिख दी गयी है, तो हमें किसी भी क्लास में वो किताब पढ़ने के लिए दे दी जाती है और हमसे कहा जाता है कि आप इस पर अपना एक लेख लिखिए, विश्लेषण कीजिए या कुछ भी. हर एक स्टूडेंट उसे अपने अपने नज़रिए से देखेगा, परखेगा और अपनी समझ के हिसाब से उसके बारे में लिखेगा. मेरी समझ में वही अनुभव ने किया है।स्क्रिप्ट पढ़ते हुए मुझे जो सबसे रोचक बात लगी वो ते कि वो तो एक हादसा था. उसको लेकर उन्होने जो. अलग -अलग तबको की मानसिकता के बारे में बात की है कि हम आप सोचते कैसे हैं, इन हालात के बारे में. हम आप बदलते कैसे हैं, रिएक्ट कैसे करते हैं इन हालात में. ये ज्यादा जरूरी है. बतौर समाज हम कैसे हैं. यह विश्लेषण मेरे लिए किसी भी दूसरी चीज से अहम है. यह हमें सोचने को मजबूर करेगा कि अरे मैंने उस वक़्त ऐसा कैसे नहीं सोचा. अरे मैं भी यही सोच रहा हूं।यह इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ताकत है.
मौजूदा दौर में लार्जर देन लाइफ और मसाला एंटरटेनर फ़िल्में ही दर्शकों को लुभा रही हैं, क्या यह हार्ड हिटिंग फ़िल्म दर्शकों को वह एंटरटेनमेंट दे पाएगी इस तरह के सवालों पर आपकी क्या राय है ?
मैं विश्वास करता हूं कि हर तरह का सिनेमा होना चाहिए. मैं विश्वास करता हूं कि समाज को दर्शाने वाला सिनेमा भी एंटरटेनिंग हो सकता है. अगर उसको अच्छी तरह से कहा जाए तो. एंटरटेनिंग का मतलब केवल हंसना नहीं है. एंटरटेनिंग का मतलब जो आपको अंदर से अपील करे। आपके दिल में वो बात बैठे. आपको एक अनुभव महसूस हो, लगे कि जो बात कही गयी है, वो मेरी विचारधारा से मिलती है या नहीं मिलती है, लेकिन मुझे सोचने पर मजबूर करती है और मुझे देखकर इस सुख की प्राप्ति हुई कि किसी ने कुछ सच्चाई को बयान किया है. ये भी एक सुख है, सिर्फ हंस देना ही सुख नहीं है. सिर्फ गाने का सुर ही सुख नहीं है. एक किताब के पढ़ने में भी सुख है. जब आप प्रेम चंद्र की कहानी को पढ़ते हैं. उसमें भी सुख है. गुलशन नंदा के नॉवेल को पढ़ते हैं, तो उसमें भी सुख है, लेकिन अलग -अलग तरह का.
एकाध फिल्मों को छोड़ दें तो हिंदी फ़िल्में कोविड के बाद से बॉक्स ऑफिस पर अभी भी दर्शकों के लिए तरस रही हैं, क्या वजह इसकी आप मानते हैं?
यह शायद थोड़े अरसे के लिए है. ऐसा महसूस हो रहा है. शायद आप जो कह रही हैं, वो सही भी हो, लेकिन मैं बहुत जल्दी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहता हूं, क्योंकि कोविड के बाद के जो प्रभाव हैं, वो एक तरह के नहीं,कई तरह के हैं. ओटीटी प्लेटफार्म की वजह है. हमारे मोबाइल पर सबकुछ मुहैया होने की वजह से भी है. जब हम एंटरटेनमेंट इसमें ही इतना अलग -अलग पा सकते हैं, तो थिएटर में क्यों जाएं. जब पैसे की कमी थी, तो कुछ एक खास सेक्शन ने पैसे सिनेमा पर खर्च किए. कई चीज़ें हैं. कोई खास वजूहात होती नहीं है.
कईयों का कहना है कि अच्छी फ़िल्म होगी, तो वह जरूर चलेगी ?
मैं इस बात को पूरी तरह से नहीं मानता हूं. फ़िल्म की भी किस्मत होती है. 70,80,90 के दशक में भी ये देखा गया है कि कई अच्छी फ़िल्में नहीं चली और यूं ही सी बनी हुई, जिन्हें फूहड़ भी कहा जा सकता है. वो बहुत बड़ी हिट हो गयी. ये समझ में नहीं आनेवाली बात है कि कौन सी फ़िल्म चली कौन सी नहीं. जरूरी है कि हम ईमानदारी से अपना काम करें और उम्मीद करें कि वो ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे. आज की तारीख में फ़िल्ममेकर को ये फायदा जरूर हो गया है चूंकि ओटीटी प्लेटफार्मस् हैं, तो फ़िल्म के ना सिर्फ कॉमर्स बाकि व्यूअरशिप को दूसरा चांस मिल जाता है. जैसे 70 और 80 के दशक में फ़िल्में नहीं चली, तो फिर डिब्बे के अंदर बंद.बाद में टेलीविज़न में मौका मिलने लगा, तो एक स्क्रीन टेलीविज़न पर हो गयी. अब ये हो गया है कि ओटीटी प्लेटफार्म खरीद लेते हैं।जिसमे आप अपनी पसंद से कई बार उसे देख सकते हैं.
मौजूदा दौर के कई कलाकारों का कहना है कि वह थोड़ा ब्रेक लेंगे ताकि मौजूदा ट्रेंड को समझते हुए आगे की फिल्मों का चुनाव करेंगे, बॉक्स ऑफिस के ट्रेंड को देखते हुए फिल्मों के चुनाव को कितना सही करार देंगे?
मैंने पहले भी कहा है और अभी भी दोहराता हूं कि यह समझ ना आनेवाली बात है कि कौन सी फ़िल्म चलेगी और कौन सी नहीं, तो फिर उसे समझ कैसे सकते हैं. मैं अपनी बात करुं, तो कभी भी मैं बॉक्स ऑफिस को ध्यान में रखकर फिल्मों से नहीं जुड़ा हूं,क्योंकि जब मैंने शुरुआत की थी, तो मुझे एक चीज समझ आ गयी थी कि अभिनेता के हाथ में कुछ भी नहीं है. आपका काम सिर्फ अभिनय करना है. वो काम करो ईमानदारी से अपने काम को एन्जॉय करते हुए चूंकि फ़िल्म अच्छी बनी है या नहीं. ये आपके हाथ में नहीं है।फ़िल्म की एडिटिंग, म्यूजिक से लेकर उसके रिलीज कुछ भी आपके हाथ में नहीं है. फ़िल्म से जुड़े 100 फैक्टर्स में से 99 आपके हाथ में नहीं है, सिर्फ एक है. अच्छा अभिनय करना, तो आप कैसे चुन सकते हैं कि ये फ़िल्म चलेगी या नहीं.
फ़िल्म का शीर्षक भीड़ है, कब पहली बार लगा कि मैं भीड़ नहीं, बल्कि एक खास चेहरा हूं?
था वो एक पल मेरे जीवन में. जब करमचंद का सांतवा या आठवा एपिसोड रिलीज हुआ था. उस वक़्त वो शो पॉपुलर हो गया था. उस वक़्त सड़क पर उतरते थे, तो लोग अचानक से पहचानना शुरू कर देते थे. सच कहूं तो उस तरह की पहचान ने खुशी के साथ एक खौफ पैदा कर दिया था. मुझे इस बात का डर था कि अगर मैं किसी ढाबे पर बैठकर चाय की प्याली नहीं पी सकता हूं, तो मुझे ऐसा जीवन नहीं चाहिए. उपरवाले ने बड़ी मेहरबानी की कि मुझे पॉपुलैरिटी भी दी, लेकिन साथ में ऐसा भी रखा कि अगर मैं बैठकर कहीं चाय पी रहा हूं, तो लोग मुझे पहचानते जरूर हैं, लेकिन भीड़ की तरह इकट्ठे होकर मुझे पकड़ते नहीं हैं.
साढ़े चार दशक के करियर का रिवॉर्ड और रिग्रेट क्या रहे हैं?
हर पल एक रिवॉर्ड है. उपरवाले ने जो कुछ भी बक्शा है, वो उसकी बक्शीश है. मेरा अपना कुछ नहीं है. मुझे जैसी शक्लोसूरत वाले लड़के को जिस तरह से इंडस्ट्री ने अपनाया उसका शुक्रगुज़ार हूं. अफसोस ये है कि जो कुछ गलतियां मुझसे हुईं हैं. किसी पर्सनल इंसान के साथ या काम करते हुए मैंने उसे दुखी किया हो तो मुझे इसका अफसोस है.
क्या किसी फ़िल्म को छोड़ने का अफसोस है?
कुछ को छोड़ने का अफसोस है, तो कुछ को छोड़ने की खुशी भी है.
सतीश कौशिक अब हमारे बीच नहीं रहे, उनके साथ आपने फ़िल्में और टीवी शोज किए हैं, किस तरह की यादें रही हैं?
कई खास यादें हैं. वह नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में मुझसे जूनियर था. हमारी जोड़ी को फिलिप्स टॉप टेंशन शो में काफी पसंद किया गया था. हम सेट पर तय समय से पहले ही पहुंच जाते थे हमारा मोटिव था कि लोग गानों से ज्यादा हमें देखने की दिलचस्पी हो, जिसके लिए हम सिर्फ स्क्रिप्ट को फ़ॉलो नहीं करते थे, बल्कि हमारे कई सारे इनपुट्स होते थे. हम काफी समय तक उस दिन होने वाले सीन पर डिस्कस करते थे कि इसको ऐसा करते हैं. ऐसे बोलने से ज्यादा सही रहेगा. उसके बाद हम शूटिंग करते थे. सतीश बहुत ही उम्दा कलाकार था.
अभी हाल ही में तेलुगु की फ़िल्म आरआरआर के गीत नाटू- नाटू ने ऑस्कर जीता है, एक चर्चा शुरू हो गयी है कि बॉलीवुड फ़िल्में अब तक ये सम्मान क्यों नहीं पा सकी हैं?
हमारी समस्या है कि हम विभाजन कर देते हैं. मुझे लगता है कि ये सोच गलत है. वो भारतीय फ़िल्म है. ये भारतीय फ़िल्म की सफलता है. भारतीय फिल्मों का सीनियर सदस्य होने के नाते मुझे लगता है कि यह पल गर्व का है और हम सभी को इसे सेलिब्रेट करना चाहिए. जहां तक अवार्ड ना मिलने की बात है. मुझे लगता है कि वहां की जूरी ने अब हमारी काबिलियत को बहुत देर से पहचाना है, हम काफ़ी पहले से इसके हक़दार थे.