सबसे अलग नाम रखने का जुनून
सबसे अलग होने के तर्क में दरअसल श्रेष्ठ होने और दिखने की भावना भी छिपी होती है. समय के साथ यह भावना बढ़ती ही जाती है. इस सबसे अलग दिखने की चाह में ऐसे नाम भी रख लिये जाते हैं, जिनका अर्थ किसी को मालूम नहीं होता या बार-बार अर्थ पूछना पड़ता है.
पिछले दिनों एक युवा दंपत्ति से मुलाकात हुई, जो बड़ी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में उच्च पदों पर कार्यरत हैं. उनकी शादी को कई साल बीत गये. अब वे माता-पिता बनने वाले हैं. यूरोप में चूंकि गर्भ के बच्चे का लिंग छुपाया नहीं जाता, इसलिए उन्हें पता है कि उनके घर बेटी आने वाली है. इसे लेकर वे बहुत उत्साहित भी हैं. सबसे ज्यादा उत्साह उनमें बच्चे के नाम को लेकर है. वे घर आये, तो इंटरनेट से ढूंढकर तमाम नामों की सूची लाये थे. वे चाहते थे कि हम भी उनमें कुछ नाम जोड़ें. उनके सूची में बहुत से ऐसे नाम थे, जिनके अर्थ न हमें पता थे और न उन्हें. कई नाम शुद्ध फारसी, तो कई उर्दू से थे. वे संस्कृत और हिंदी के भी कई नाम लाये थे. कहने लगे कि नाम कुछ ऐसा हो कि सबसे अलग हो. बातचीत में जो नाम याद आये, हम बताने लगे. उन्होंने पांच-छह नाम लिख लिये थे. आजकल चूंकि मध्य वर्ग के परिवार छोटे हैं, आम तौर पर लोगों के दो बच्चे या एक ही बच्चा होता है, तो वे अपने बच्चों के लिए सबसे अलग कुछ देखते हैं. वे चाहते हैं कि उनके बच्चे या बच्ची का नाम दुनिया में सबसे अलग हो, जो पहले किसी ने न रखा हो, न किसी ने सुना हो.
सबसे अलग होने के तर्क में दरअसल श्रेष्ठ होने और दिखने की भावना भी छिपी होती है. समय के साथ यह भावना बढ़ती ही जाती है. इस सबसे अलग दिखने की चाह में ऐसे नाम भी रख लिये जाते हैं, जिनका अर्थ किसी को मालूम नहीं होता या बार-बार अर्थ पूछना पड़ता है. इसमें इंटरनेट की बड़ी भूमिका होती है क्योंकि किसी से पूछने के मुकाबले इंटरनेट पर ढूंढना आसान भी है. भारतीय माता-पिता में एक बात और भी देखने में आती है कि या तो वे शुद्ध हिंदी, संस्कृत अथवा उर्दू, फारसी के नाम चाहते हैं. या फिर ऐसे नाम, जो किसी पश्चिमी संदर्भ से आते हैं. सरल नाम, जिनके अर्थ आसानी से समझ में आयें, कोई रखना नहीं चाहता. इसे न जाने क्यों अपने स्टेटस से कमतर माना जाता है. सोचा जाता है कि वह नाम ही क्या, जो सबकी समझ में आ जाये. इसीलिए कई बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है. ऐसे नाम रख लिये जाते हैं, जिनके बारे में कुछ मालूम भी नहीं होता. कुछ माह पहले अपने एक मित्र के जुड़वा पोतों के जन्म के समारोह में गयी थी. जोर-शोर से उनका नामकरण संस्कार किया जा रहा था. बहुत से रिश्तेदार इकट्ठे थे, पकवानों का ढेर था और सजावट भी थी. नामकरण संस्कार के बाद पता चला था कि दोनों बच्चों का नाम ‘व’ पर निकला है. बहुत से नाम सोचे जा रहे थे. खूब विचार-विमर्श भी हो रहा था कि कौन सा नाम अच्छा रहेगा. खैर, उस दिन तो कार्यक्रम खत्म होने के बाद घर लौट आये. बाद में पता चला कि बच्चों के नाम विगत और व्यतीत रखे गये हैं. जब ये नाम सुने, तो अजीब सा लगा. दोनों नामों में नकारात्मकता महसूस हुई, जबकि आम तौर पर बच्चों के नाम सकारात्मक और भविष्योन्मुखी रखे जाते हैं क्योंकि वे अभी-अभी दुनिया में आये हैं और उनके सामने उनका पूरा जीवन पड़ा है. जबकि विगत और व्यतीत दोनों का अर्थ था कि जो बीत चुका. उन्हीं मित्र से बात हुई, तो हमने धीरे से अपने मन की बात कहने की कोशिश की, मगर वे कहने लगे कि नाम उन्होंने नहीं, बच्चों ने पसंद किये हैं और बच्चों की रुचि के आगे वे कुछ बोल नहीं सकते.
इसी प्रकार एक परिचित स्त्री ने अपनी बेटी का नाम श्लेष्मा रखा था. शायद उसने जानने की कोशिश ही नहीं की कि इसका क्या अर्थ होता है. एक बार एक परिचित ने अपनी बेटी का नाम सिफर रखने की कोशिश की थी. उसे पता ही नहीं था कि सिफर का अर्थ शून्य होता है. बहुत समझाने और बार-बार सिफर का अर्थ बताने पर वह मानने को तैयार हुई थी. देखा जाए, तो नाम हमारे जीवन में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं. वे हर पल हमारे साथ रहते हैं. जीवन का कोई भी कार्य-व्यापार बिना नाम के पूरा नहीं होता. यहां तक कि जिन पशु-पक्षियों तथा अन्य जानवरों को हम पालते हैं, उनके भी नाम रखते हैं और वे अपने नाम को पहचानते भी हैं. मनुष्य के संदर्भ में एक बात और भी है कि कोई भी बच्चा अपना नाम खुद नहीं रखता है. नाम उसके बड़ों के द्वारा ही रखा जाता है. कई बार इसमें माता-पिता, दादा-दादी, अन्य रिश्तेदार और पंडित की भूमिका भी होती है. अड़ोस-पड़ोस को देखकर भी नाम रखे जाते हैं कि फलां के बच्चे का नाम यह है, तो हमारे बच्चे का नाम यह होना चाहिए. इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं होती है, जिसका नाम रखा जा रहा है. लेकिन अपने नाम की जवाबदेही जीवनभर उसी को करनी पड़ती है. यह जो सबसे अलग नाम रखने का माता-पिता का उत्साह है, उसके कारण जवाबदेही और बढ़ जाती है. अपने बच्चे का जो चाहे नाम रखें, मगर वह ऐसा जरूर हो कि अर्थ का अनर्थ न हो, न ही कभी बच्चे को उसके लिए शर्मिंदा होना पड़े.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)