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भारत छोड़ो आंदोलन: आधी आबादी का पूरा संघर्ष

नौ अगस्त की सुबह गांधी जी समेत कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. ऐसी स्थिति में आंदोलन की कमान महिलाओं ने संभाली. अरुणा आसफ अली और सुचेता कृपलानी ने इस आंदोलन को आक्रामक रूप दिया.

नौ अगस्त, 1942 का दिन भारतीय राजनीति के लिए ऐतिहासिक महत्व रखता है. यह महिलाओं के राजनीतिक नेतृत्व के लिए भी खासा महत्व रखता है. आज ही के दिन भारत छोड़ो आंदोलन का आगाज हुआ था. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की सक्रिय सहभागिता का यह उत्कर्ष आयाम भी था. भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत सेवाग्राम आश्रम (वर्धा) से हुई, यहीं इसकी प्रस्तावना रखी गयी थी. बाद में यह आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मील का पत्थर बन गया. आंदोलन की प्रस्तावना पर विचार-विमर्श के लिए 14 जुलाई, 1942 को बैठक का आयोजन किया गया. इसके बाद कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में भी इस प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान की गयी. मुंबई के गोवालिया टैंक में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें गांधी जी द्वारा ऐतिहासिक नारा दिया गया, ‘करो या मरो.’

इस आंदोलन द्वारा बाहरी और आंतरिक शासन व्यवस्था से मुक्ति और ब्रिटिश सरकार के शासन को न मानने और उसके बहिष्कार की बात की गयी. नारे व आंदोलन के प्रस्ताव ने आवाम में नयी ऊर्जा और जोश का संचार किया. इसकी कल्पना गांधी जी ने भी नहीं की थी कि इस आंदोलन को इतना जन समर्थन मिलेगा. ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा यूसुफ मेहर अली ने दिया था. आंदोलन का मुख्य कारण क्रिप्स मिशन की असफलता थी. क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव से निराशा और क्षोभ की स्थिति उत्पन्न हुई. वहीं आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भारी बढ़त ने लोगों को नाराज कर दिया. तब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था, जिसमें भारतीय सिपाही ब्रिटेन की तरफ से लड़ रहे थे. युद्ध में भारतीय सिपाहियों की मृत्यु के समाचार ने आग में घी डालने का कार्य किया. इस कारण आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिला.

नौ अगस्त की सुबह गांधी जी समेत कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. ऐसी स्थिति में आंदोलन की कमान महिलाओं ने संभाली. अरुणा आसफ अली और सुचेता कृपलानी ने इस आंदोलन को आक्रामक रूप दिया. अरुणा आसफ अली ने कांग्रेस अधिवेशन स्थल पर तिरंगा झंडा फहराया. ब्रिटिश सरकार ने सोचा था कि जब गांधी जी और कांग्रेस के नेतृत्वकर्ता ही न होंगे, तो आंदोलन अपने आप ही समाप्त हो जायेगा. लेकिन उनका यह निर्णय गलत साबित हुआ. गांधी जी समेत कांग्रेस के अन्य नेताओं की गिरफ्तारी से देशभर की अवाम में रोष फैल गया. कई जगह धरना-प्रदर्शन, हड़ताल, जुलूस निकाले जाने लगे, जिनमें महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ खबरें प्रकाशित की जाने लगीं. अगस्त के मध्य में ही यह आंदोलन शहरों की सीमा लांघ, भारत के गांवों और छोटे कस्बों तक पहुंच गया. इस आंदोलन ने महिला नेतृत्व के साथ कई नये नेतृत्वकारियों को भी तैयार किया, जिसमें अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, बीजू पटनायक आदि शामिल थे.

इस आंदोलन ने कई जगह ब्रिटिश शासन व्यवस्था को ध्वस्त भी किया. बलिया में चित्तू पांडे के नेतृत्व में स्थानीय सरकार बनी. बंगाल के मिदनापुर और महाराष्ट्र के सतारा में भी समानांतर सरकारें बनीं. इस आंदोलन के आरंभ से ही सभी नेतृत्वकारी जब जेल में थे, तो जनता पर किसी भी प्रकार की हिंसा न करने का दबाव था. पर ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से आक्रोशित आवाम ने रेल व रेल की पटरियां, डाकखाने, टेलीफोन के तार, कई बड़े भवनों व न्यायालय को निशाना बनाया. जेल में बंद गांधी जी से जब ब्रिटिश सरकार ने कहा कि वे आंदोलनकारियों से हिंसा न करने की अपील जारी करें, तो गांधी जी ने ऐसा करने से मना कर दिया. इसके पूर्व चौरीचौरा की घटना या अन्य हिंसक घटनाओं के लिए गांधी जी आंदोलनकारियों को जिम्मेदार ठहराते थे. जबकि इस बार उन्होंने हिंसा के लिए ब्रिटिश शासन व्यवस्था के दमन को जिम्मेदार ठहराया. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटेन ने भारतवासियों की इच्छा के विरुद्ध उन्हें युद्ध में झोंक दिया था. ब्रिटेन की साम्राज्यवादी नीति भारत की स्वतंत्रता के आड़े आ रही थी. इसलिए गांधी जी ने पूर्ण स्वराज की प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया. इस आंदोलन की यह सफलता थी कि ब्रिटिश सरकार ने भारत को स्वतंत्र कर दिया.

इस वर्ष आजादी का अमृत उत्सव मनाया जा रहा है, लेकिन यही समय स्वतंत्रता के मूल्यांकन का भी है, कि क्या पूर्ण स्वराज की गांधी जी की संकल्पना को हम फलीभूत कर पाये हैं? अंतिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति इस लोकतंत्र में कहां पर है? इसके साथ ही, प्रतिरोध करना लोकतांत्रिक अधिकार है या नहीं? या आज भी उपनिवेशवादी शासन व्यवस्था से सत्ता संचालित हो रही है. ऐसे और भी कई सारे प्रश्न हो सकते हैं, जो प्रतिरोध की संस्कृति को बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं. किसी भी ऐतिहासिक दिवस को मना लेना या उस पर चर्चा कर लेना पर्याप्त नहीं है. उसके महत्व को जानने-समझने की दरकार भी है. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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