सौ बरसों में कई रंग बदले हैं रेडियो ने
यूं भारत में रेडियो के सौ बरस को देखें, तो रेडियो ने कई रंग बदले हैं. रेडियो के बड़े बड़े आकार से लेकर पॉकेट ट्रांजिस्टर तक कितने ही किस्म के रेडियो सेट आते रहे. आज तो रेडियो डिजिटल होकर मोबाइल फोन पर भी सुलभ है. बरसों पहले रेडियो सुनने के लिए घर में एंटीना लगाया जाता था.
आज पूरा विश्व रेडियो दिवस मना रहा है. हमारे देश भारत के लिए तो यह विश्व रेडियो दिवस बेहद खास है क्योंकि जून 1923 में रेडियो क्लब मुंबई द्वारा प्रथम प्रसारण से ही भारत में रेडियो का आगमन हुआ था. इसलिए, भारत में यह रेडियो प्रसारण का शताब्दी वर्ष है. यदि हम रेडियो के विश्व प्रसारण की बात करें, तो सामान्यतः यह माना जाता है कि इटली के वैज्ञानिक गुल्येल्मो मार्कोनी ने मात्र 22 बरस की उम्र में 1896 में प्रथम रेडियो प्रसारण कर दिया था, जबकि एक मान्यता यह है कि 24 दिसंबर 1906 को विश्व का पहला रेडियो प्रसारण हुआ था. भारत में भी 1924 में मद्रास प्रेसीडेंसी क्लब के प्रसारण को भी देश के प्रथम रेडियो प्रसारण का श्रेय मिलता रहा है. लेकिन इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी ने मुंबई में पहले रेडियो स्टेशन की स्थापना कर 23 जुलाई 1927 को इसका विधिवत आरंभ किया था. इसे आठ जून 1936 को ‘ऑल इंडिया रेडियो’ का नाम दे दिया गया. वर्ष 1956 से इसे ‘ऑल इंडिया रेडियो’ के साथ-साथ ‘आकाशवाणी’ भी कहा जाने लगा. उल्लेखनीय है कि 1947 में देश के विभाजन के बाद भारत में केवल छह- दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, मद्रास, तिरुचिरापल्ली और लखनऊ- रेडियो केंद्र रह गये थे. लेकिन भारत ने रेडियो में काफी विकास किया. आज देश में ऑल इंडिया रेडियो के कुल 501 प्रसारण केंद्र हैं. पिछले 10 बरसों में तो भारत में रेडियो का विकास बहुत तेजी से हुआ है.
भारत में अगर रेडियो के स्वर्ण काल को देखें, तो 1960 से 1980 का दौर तो पूरी तरह रेडियो युग था. इस दौर में रेडियो इतना लोकप्रिय हो गया था कि इसके समाचारों के माध्यम से ही पूरा देश सबसे पहले देश-दुनिया की खबरें जानता था. यही कारण था कि उस दौर में देवकी नंदन पांडे, रामानुज प्रसाद सिंह, विनोद कश्यप और अशोक वाजपेयी जैसे समाचार वाचक और अमीन सयानी जैसे उद्घोषक रेडियो स्टार हुआ करते थे. फिल्म गीतों की लोकप्रियता को भी आसमान तक पहुंचाने में भी रेडियो की ही बड़ी भूमिका रही. रेडियो पर नाटिका का कार्यक्रम ‘हवा महल’ हो या फिल्म गीतों का कार्यक्रम ‘जयमाला’ और ‘संगम’, ये सभी बहुत पसंद किये गये. यूं भारत में रेडियो के सौ बरस को देखें, तो रेडियो ने कई रंग बदले हैं. रेडियो के बड़े बड़े आकार से लेकर पॉकेट ट्रांजिस्टर तक कितने ही किस्म के रेडियो सेट आते रहे. आज तो रेडियो डिजिटल होकर मोबाइल फोन पर भी सुलभ है. बरसों पहले रेडियो सुनने के लिए घर में एंटीना लगाया जाता था. साथ ही, रेडियो सुनने के लिए एक लाइसेंस भी लेना पड़ता था, जिसमें एक समय में घरेलू रेडियो के लिए 15 रुपये और वाणिज्य-सार्वजनिक रेडियो के लिए 25 रुपये वार्षिक शुल्क देना होता था. लेकिन 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में रेडियो को लाइसेंस से मुक्त कर दिया गया.
जब 1985 में टीवी सीरियल की शुरुआत हुई, तो रेडियो से श्रोताओं का मोह कुछ भंग होने लगा. टेलीविजन के तेजी से लोकप्रिय होने से रेडियो नेपथ्य में जाने लगा. रेडियो के अस्तित्व को बचाने के लिए देश में सरकारी और निजी एफएम चैनलों की शुरुआत की गयी. इससे युवाओं श्रोताओं का रेडियो के प्रति झुकाव बढ़ा. रेडियो को फिर से लोकप्रिय किया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम ‘मन की बात’ ने. जब तीन अक्टूबर 2014 को यह शुरू हुआ, तब डिजिटल युग तेजी से बढ़ रहा था. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने ‘मन की बात’ के लिए रेडियो को ही चुना. अब तक इसके 109 एपिसोड प्रसारित हो चुके हैं और लोकप्रियता का नया इतिहास लिख चुके हैं. इससे आकाशवाणी के श्रोताओं की संख्या ही नहीं, इसका राजस्व भी नये शिखर पर है. इधर देश में कम्युनिटी रेडियो भी वर्ग विशेष के श्रोताओं में लोकप्रिय होते जा रहे हैं. भारत में कम्युनिटी रेडियो की शुरुआत तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2002 में एक नीति बनाकर की थी. देश में प्रथम कम्यूनिटी रेडियो स्टेशन को तब के उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने फरवरी 2004 में शुरू किया था. प्रधानमंत्री मोदी तो कम्युनिटी रेडियो को बढ़ावा देने के लिए संस्थाओं को वित्तीय अनुदान भी दे रहे हैं. देश में अभी 481 कम्युनिटी रेडियो स्टेशन चल रहे हैं.
निश्चित रूप से ‘मन की बात’ ने आकाशवाणी की टूटती सांसों को ऑक्सीजन दिया है. लेकिन इसे फिर से सुनहरे दिनों में लौटाने के लिए और भी काफी कुछ करना पड़ेगा. इसके लिए जन रुचि के नये विशेष कार्यक्रमों की शुरुआत के साथ यहां के ढांचे में भी कुछ बदलाव करने की जरूरत है. देखा गया है कि यहां नित पुराने रेडियोकर्मी सेवानिवृत्त हो रहे हैं. लेकिन उनकी जगह नयी नियुक्तियां न होने से कर्मियों की संख्या बहुत कम हो गयी है. कुछ सक्षम अधिकारी तो ऐसे में भी परंपरा निभा रहे हैं. लेकिन कुछ आलसी और लापरवाह कर्मी तो अपने ऊपर ज्यादा बोझ न लेकर नये कार्यक्रमों की जगह पुराने कार्यक्रम बार-बार प्रसारित कर आकाशवाणी का गौरव धूमिल करने में तनिक संकोच नहीं करते. इसलिए रेडियो में आज नये विचारों और कुछ नये श्रेष्ठ प्रसारणकर्मियों की बड़ी जरूरत है. रेडियो पर अच्छे और नये किस्म के कार्यक्रम सुनने वाले श्रोता आज भी असंख्य हैं क्योंकि सच कहा जाये, तो रेडियो का आज भी कोई सानी नहीं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)