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थियेटर में दलित आंदोलन खड़ा करने की सुगबुगाहट: राजेश कुमार

हिंदी नाट्य लेखन में जो चंद बड़े नाम उभरे हैं, राजेश कुमार उनमें एक हैं. नये विषयों और नये प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक चेतना पर नयी दृष्टि से लिखे गये उनके नाटक अनेक महत्वपूर्ण रंग निर्देशकों द्वारा मंचित हुए हैं.

हालिया दशकों में हिंदी नाट्य लेखन में जो चंद बड़े नाम उभरे हैं, राजेश कुमार उनमें एक हैं. नये विषयों और नये प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक चेतना पर नयी दृष्टि से लिखे गये उनके नाटक अनेक महत्वपूर्ण रंग निर्देशकों द्वारा मंचित हुए हैं. ‘अंबेडकर और गांधी’, ‘घर वापसी’, ‘गांधी ने कहा था’, ‘तफ्तीश’, ‘सुखिया मर गया भूख से’, ‘सात भाषे रैदास’ जैसे उनके नाटकों ने काफी धूम मचायी है. दिल्ली में बसे राजेश कुमार मूल रूप से भागलपुर के हैं. प्रस्तुत है वरिष्ठ पत्रकार और रंगकर्मी अनिल शुक्ल से उनकी बातचीत के अंश…

पिछले दो-तीन दशकों से हिंदी रंगकर्म राजधानियों और महानगरों में केंद्रित होता जा रहा है. इसकी क्या वजहें हैं?

रंगमंच ही क्या, आप देखें तो पूरे देश की राजनीति, साहित्य, सब केंद्रीकृत हो रहा है. साहित्य का पूरा सेंटर दिल्ली बना दिया गया है. उसी तरह से भारतीय रंगमंच का केंद्रीकरण हुआ है, वह प्रांतों की राजधानियों में केंद्रित हो गया है. नाट्य-संस्थाएं भी राजधानियों में ही खुल रहे हैं. आज नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का बजट में करोड़ों में है. केजरीवाल सरकार ने 10 करोड़ का नाटक एक महीने तक चलाया. संस्कृति का 95 प्रतिशत खर्च दिल्ली में ही होता है. लोगों को भी कहीं न कहीं महसूस होते जा रहा है कि अगर हम भागलपुर में काम करते हैं और यहां बहुत अच्छी प्रस्तुति भी करते हैं, तो उसकी चर्चा नहीं होती है. हिंदी रंगमंच का इतिहास भी जो लिखा गया है या बड़े-बड़े समीक्षकों ने जो लिखा है, वह महानगरों में होनेवाली प्रस्तुति को ही लिखते हैं.

उस तिलिस्म को कैसे तोड़ा जाये?

आजादी के बाद नेहरू जी ने देश भर में रवींद्र भवन नाम से ऑडिटोरियम बनवाया. उन्होंने गांव में तो नहीं, पर महानगरों, शहरों व नगरों में ऐसा किया. भागलपुर की ही बात करें, तो उस समय रूरल ड्रामा काफी मजबूत स्थिति में था. पहले तिरपाल लगा कर स्टेज बनाते थे. अब सारे खत्म हो गये. जब योजना के तहत गांव में स्कूल खोल रहे हैं, तो नाटक के लिए व्यवस्था क्यों नहीं? चाहे कोई सरकार हो, संस्कृति को प्राथमिकता में नहीं रखती है. जो बंद ऑडिटोरियम हैं, उन्हें तो खोल सकते हैं. शीर्ष पर बैठे लोगों के सामने रूरल थियेटर के बारे में कोई कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं है.

गांव के नाटकों से आपका क्या तात्पर्य है?

इसका मतलब लोक नाट्य शैलियां हैं हमारे गांव में. भागलपुर में अलग शैली है. उन लोक शैलियों को जो प्रश्रय देना चाहिए था, वह नहीं मिल रहा. काम करनेवाले जो कलाकार हैं, उनके बीच अगर हम प्रशिक्षण देते, तो समय के अनुसार आ रही नयी तकनीक बताते, तो चीजें काफी आगे बढ़तीं. भारतीय रंगमंच का विकेंद्रीकरण होना चाहिए. जितना आप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को राशि देते हैं, उसको छोटे-छोटे शहरों की मंडलियों को दीजिये. इससे वह जीवंत रहेंगी.

हिंदी नाटकों में स्त्री विमर्श और सांप्रदायिकता के सवाल की क्या स्थिति पाते हैं?

हिंदी साहित्य में पाश्चात्य देश का प्रभाव स्त्री-विमर्श में रहा है. साहित्य में इस पर काफी काम भी हुआ है. लेकिन नाटक में स्त्री के सवाल को खड़ा किया जाये, ऐसी कोई धारा नहीं है. नाटक में स्त्री का पक्ष आया है, लेकिन नाटक में स्त्रीवादी आंदोलन नहीं रहा है. सांप्रदायिक पर तो लंबे अरसे से नाटक लिखा जा रहा है. आजादी के पहले भी और बाद भी.

दलित दमन से जुड़ी समस्याओं को आप जैसे कुछ लोग ही नाटकों में उठा रहे हैं. बाकी लोग क्यों नहीं?

इसका मूल कारण वैचारिक है. प्रेमचंद की एक दर्जन कहानियां ऐसे विषयों पर हैं. गांधी ने भी अस्पृश्यता का सवाल उठाया था, लेकिन गांधी कहते थे कि आजादी के बाद लोगों को समझा कर जाति हटाने का काम किया जायेगा. उस दौर में वामपंथी भी कास्ट स्ट्रगल को बड़ी बात नहीं मानते थे. आजादी के बाद के नाटकों में मजदूर-किसान बड़ा मुद्दा रहा. लेकिन 1990 के बाद जाति प्रमुखता से उभरी. हिंदी में भी दलित साहित्य जोर पकड़ने लगा. इससे थियेटर में दलित आंदोलन खड़ा करने की सुगबुगाहट शुरू हो गयी है.

दलित समाज हिंदी नाटकों में कैसे उभरे?

दलितों के अब राजनीतिक प्लेटफॉर्म भी बन गये हैं. साहित्य का भी मंच बन चुका है. मराठी में यह है, पर अब इसे हिंदी में ले जाने की जरूरत है. लोक कलाओं में काम करने वालों 95 प्रतिशत लोग दलित समाज के हैं. कई शैलियां जाति के नाम पर है और वे श्रम से जुड़ी हैं. रंगमंच को सरल व सहज बनाने की जरूरत है. संस्थानों के दिमाग में पाश्चात्य मानसिकता भरी रहती है. हमारे यहां लोक शैली में देखें, तो तख्त बिछा कर लोग नाटक करते थे. भिखारी ठाकुर 1917 से नाटक कर रहे थे. उनके नायकों में कोई भी प्रतिष्ठित परिवार का नहीं है.

क्या मंचन घटने की वजह सिर्फ सरकार का अनुदान नहीं देना है?

आजादी के बाद हर स्कूल में नाटक होते थे. उनके लिए तो किसी ग्रांट का कोई प्रावधान नहीं थी. अब स्कूल में नाटक नहीं होते हैं. आजादी के बाद हमारे सामने सपना था. अभी भोगवाद आ गया है. 1990 के बाद बहुत सारा ग्रांट सरकार से मिल रहा है. यह अलग बात है कि ग्रांट में बहुत धांधली है. संस्कृति विभाग ही योजना तैयार करता है, लेकिन यह काम कलाकार नहीं करते.

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