Raksha Bandhan 2023 Date: रक्षाबंधन पर्व श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को मनाने का विधान है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ‘श्रवण’ नक्षत्र की वजह से आदिकाल में श्रावणी पूर्णिमा का नामकरण संस्कार हुआ. अश्विनी से रेवती तक ज्योतिष के 27 नक्षत्रों में श्रवण 22वां नक्षत्र है, जिसका स्वामी चंद्रमा है. इसे अत्यंत सुखद व फलदायी माना गया है. श्रावण की अधिष्ठात्री देवी द्वारा ग्रह दृष्टि-निवारण के लिए महर्षि दुर्वासा ने रक्षाबंधन का विधान किया. इसलिए श्रावण मास की अंतिम तिथि वाली श्रवण नक्षत्र युक्त पूर्णिमा को श्रावणी कहते हैं और इस दिन रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता है. ज्योतिषी संतोषाचार्य ने बताया कि यह पर्व संबंधों की शक्ति की गरिमा प्रदान करने वाला और उसमें निहित शक्ति से परिचय कराता है. इसका वर्णन पौराणिक कथाओं व महाभारत में मिलता है.
वहीं इसकी ऐतिहासिक व साहित्यिक महत्ता से भारतीय समाज परिचित है. भविष्यपुराण के अनुसार, देवासुर संग्राम के युग में देवताओं की विजय से रक्षाबंधन का संबंध है. इंद्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इंद्र के हाथों में बांधते हुए स्वस्तिवाचन किया, जिससे इंद्र विजयी हुए. यह श्लोक रक्षाबंधन का अभीष्ट मंत्र भी है – येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि, रक् माचल माचल:॥ षे (श्रीशुक्लयजुर्वेदीय, माध्यन्दिन वाजसनेयिनां, ब्रह्मकर्म समुच्चय पृष्ठ -295) भागवत पुराण के अनुसार, नारदजी द्वारा बताये उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षा सूत्र बांधकर अपना भाई बनाया और द्वारपाल बने भगवान विष्णु को अपने साथ ले आयी थीं.
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रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छिदम्।
सदा सन्निहितं वीरं तत्र मां दृक्ष्यते भवान्॥
(श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 8, अ 23, श्लोक 33) पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, महाभारत काल में शिशुपाल का वध करते समय भगवान श्री कृष्ण की तर्जनी उंगली कट गयी थी. तब द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांधा था और श्री कृष्ण ने एक भाई का फर्जनिभाते हुए चीर हरण के समय द्रौपदी की रक्षा की थी. रक्षा कवच में है अद्भुत सामर्थ्य : ऐसे अनेकों प्रसंग मिलते हैं, जिनमें रक्षाबंधन सिर्फ भाईबहन के लिए ही नहीं था. वैदिक और पौराणिक काल में निरोगी रहने, उम्र बढ़ाने और संकट से रक्षा के लिए योग्य ब्राह्मणों द्वारा लोगों को रक्षासूत्र बांधे जाते थे.
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इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को रक्षा सूत्र बांधकर ईश्वर से उनकी दीर्घायु और सुख-संपन्नता से परिपूर्ण होने की प्रार्थना करते हैं और बहनें अपने भाइयों को रक्षा सूत्र बांधकर उनकी लंबी उम्र और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं. वहीं भाई बहन को उसकी रक्षा का वचन देता है. इस दिन भाई की कलाई पर जो राखी बहन बांधती है, वह सिर्फ रेशम की डोर या धागा नहीं, बल्कि बहन-भाई के अटूट और पवित्र प्रेम का बंधन होता है. उस साधारण से नजर आने वाले धागे में रक्षा कवच बनने का अद्भुत सामर्थ्य छिपा है. यह भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को और गहरा करने वाला पर्व है. एक ओर भाई अपने दायित्व निभाने का वचन बहन को देता है, तो दूसरी ओर बहन भी भाई की लंबी उम्र के लिए उपवास रखती है तथा इस भावनात्मक बंधन को पुनर्जीवित करती है. श्रावण पूर्णिमा का पूरा चांद भाई बहन के प्रेम को समर्पित होता है.
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इस बार रक्षाबंधन पर्व पर भद्रा का साया व्याप्त है. शास्त्रों के अनुसार, यह पर्व श्रावण माह की भद्रा रहित पूर्णिमा तिथि में मनाने का विधान है. इस वर्ष बुधवार, 30 अगस्त को सुबह 11:00 बजे से गुरुवार, 31 अगस्त को सुबह 07 बजकर 07 मिनट तक पूर्णिमा रहेगी. वहीं, 30 अगस्त को पूर्णिमा तिथि शुरू होने के साथ ही भद्रा भी लग जायेगी, जो उसी दिन अपराह्न 9 बजकर 03 मिनट तक रहेगी. धर्मग्रंथों के अनुसार, सूर्यास्त के बाद भी रक्षाबंधन पर्व मानना भी उचित नहीं है. ऐसे में 31 अगस्त को रक्षाबंधन मनाना श्रेष्ठ रहेगा. इस दिन पूर्णिमा सुबह 7 बजकर 05 मिनट तक रहेगी, जो कि उदया तिथि होने से पूरे दिन मानी जायेगी. ऐसे में यह पर्व पूरे दिन मनाया जा सकता है.
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हमारे धर्म ग्रंथों में सात प्रकार के रक्षा सूत्र बताये गये हैं, जिनमें – विप्र रक्षासूत्र (वैदिक अनुष्ठान के बाद ब्राह्मण द्वारा यजमान को), गुरु रक्षासूत्र (गुरु द्वारा शिष्य को), मातृ-पितृ रक्षासूत्र (माता-पिता द्वारा पुत्र को), भातृ रक्षासूत्र (बड़ेया छोटे भैया को), स्वसृ-रक्षासूत्र (ब्राह्मण के रक्षा सूत्र बांधने के बाद बहन द्वारा भाई को), गौ रक्षासूत्र (गौ माता को) तथा वृक्ष रक्षासूत्र (वृक्ष को) हैं. वहीं रक्षाबंधन पर सात प्रकार की जरूरी चीजें भी शामिल हैं, जिनमें- पानी का कलश, चंदन और कुमकुम, चावल, नारियल, रक्षा सूत्र अथवा राखी, मिठाई एवं दीपक. इस दिन पवित्र सरोवर या नदी में स्नान करने के पश्चात सूर्यदेव को अर्घ्य देना इस विधान का अभिन्न अंग है.
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विष्णुपुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्माजी के लिए फिर से प्राप्त किया था. हयग्रीव भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक हैं, जिन्हें विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है. कथानुसार, मधु और कैटभ नामक दो असुरों ने वेदों को चुराकर ब्रह्माजी को बंधक बना लिया था, तब भगवान हयग्रीव ने अपने इस अवतार में वेदों और ब्रह्माजी को पुनर्स्थापित किया था. अत: इस दिन हयग्रीव जयंती मनायी जाती है. इसी दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपाकर्म भी होता है. उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पनादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है. ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्योहार माना जाता है. इस दिन ब्राह्मण अपने पवित्र जनेऊ बदलते हैं और एक बार पुन: धर्मग्रंथों के अध्ययन के प्रति स्वयं को समर्पित करते हैं तथा पूरे वर्ष में किये गये ज्ञात-अज्ञात पापों का शमन करते हुए समाज की रक्षा के लिए रक्षासूत्र का निर्माण करते हैं.
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