एक धुन का नाम था राम मनोहर लोहिया
समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया, प्रायः कहा करते थे कि सच्चे लोकतंत्र की जीवनीशक्ति सरकारों के उलट-पलट में बसती है. कांग्रेस के प्रभुत्व के उन दिनों में असंभव माने जाने वाले इस उलट-पलट के लिए उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक कोई कोशिश उठा नहीं रखी.
समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया, प्रायः कहा करते थे कि सच्चे लोकतंत्र की जीवनीशक्ति सरकारों के उलट-पलट में बसती है. कांग्रेस के प्रभुत्व के उन दिनों में ‘असंभव’ माने जाने वाले इस उलट-पलट के लिए उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक कोई कोशिश उठा नहीं रखी. इन कोशिशों के प्रति उनकी बेचैनी ऐसी थी कि उनमें विफल हुए तो भी हिम्मत नहीं हारी, विफलता को तात्कालिक माना और इस विश्वास को बनाये रखा कि एक दिन उनकी कोशिशें जरूर रंग लायेंगी. उनका यह कथन कि ‘लोग मेरी बात सुनेंगे, पर मेरे मरने के बाद’ इसी का परिचायक था.
फरवरी, 1962 में लोकसभा के तीसरे आम चुनाव में करारी हार से ‘उलट-पलट’ के उनके अरमानों को जोर का झटका लगा, तो भी 23 जून, 1962 को नैनीताल में अपने ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने कार्यकर्ताओं को ‘निराशा के कर्तव्य’ बताकर उन पर अमल करने को कहा. फिर तो गैर-कांग्रेसवाद के उनके नारे ने 1967 के चुनावों में कांग्रेस की चूलें हिला डालीं. केंद्र में न सही, कई राज्यों में उसे सत्ता से बेदखल कर डाला. दूसरे पहलू पर जाएं, तो डॉ लोहिया ने चुनावी हार-जीत को कभी ज्यादा महत्व नहीं दिया. हमेशा मानते रहे कि चुनाव, हार-जीत से कहीं आगे अपनी नीतियों व सिद्धांतों को जनता के बीच ले जाने का सुनहरा अवसर होता है.
इतिहास गवाह है कि 1962 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू को चुनौती देने के लिए उनके निर्वाचन क्षेत्र फूलपुर से वे खुद प्रत्याशी बने, तो इस सुनहरे अवसर का भरपूर इस्तेमाल किया. हर हाल में संसद पहुंचने की अन्य नेताओं जैसी लिप्सा से परहेज के कारण उनका संसदीय जीवन लंबा नहीं रहा. लेकिन जब उनका निधन हुआ, तो वे अपनी कर्मभूमि फर्रुखाबाद को विभाजित कर बनायी गयी नयी कन्नौज लोकसभा सीट से सांसद थे. इससे पहले उन्होंने फर्रुखाबाद लोकसभा सीट का ऐतिहासिक उपचुनाव भी जीता था. कहते थे कि उनकी सबसे बड़ी ताकत है कि देश के वंचित व कमजोर लोग उन्हें अपना आदमी समझते हैं.
जानकारों के अनुसार, उनकी राजनीतिक सक्रियता से पहले फर्रुखाबाद को ‘खुला खेल फर्रुखाबादी’ जैसी कहावतों से पहचाना जाता था या इतिहास बना चुके ठगों और वहां उपजने वाले आलुओं से. इसी फर्रुखाबाद में 1954 में सात गुने कर दिये गये आबपाशी कर को किसानों पर भारी जुल्म बताकर डॉ लोहिया ने नहर-रेट आंदोलन शुरू किया और पीड़ित किसानों को अपने अधिकारों के लिए मरने की हद तक जाने की सलाह दी, तो वह फर्रुखाबाद के राजनीतिक प्रशिक्षण और उसकी पहचान बदलने की शुरुआत भी सिद्ध हुआ.
चार जुलाई, 1954 को फर्रुखाबाद व कायमगंज में दो सभाओं के बाद वे भोजन करने बैठे ही थे कि पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. फिर तो उनके पक्ष में वहां ऐसा जनसमर्थन उमड़ा कि सिविल नाफरमानी यानी सविनय अवज्ञा जैसे हालात पैदा हो गये. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह कहकर उनकी कड़ी आलोचना की थी कि आजाद देश में लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकारों के विरुद्ध ऐसी सिविल नाफरमानी की भला क्या जरूरत है? लेकिन डॉ लोहिया ने उनकी आलोचना को कतई कान नहीं दिया.
फर्रुखाबाद के मतदाताओं ने उपचुनाव जिताकर उनको लोकसभा भेज दिया, तो वहां जेबी कृपलानी द्वारा नेहरू सरकार के विरुद्ध लाये गये अविश्वास प्रस्ताव पर ‘तीन आना बनाम पंद्रह आना’ वाली प्रसिद्ध बौद्धिक बहस छेड़ दी. अपने भाषण में उन्होंने कहा कि देश की प्रति व्यक्ति दैनिक आय महज तीन आना है और सरकार का उसके पंद्रह आना होने का दावा सिरे से गलत है. उन्होंने ऐसी तीखी आलोचना की कि सत्ता पक्ष पूरी तरह निरुत्तर हो गया.
कहते हैं कि इससे उनकी नैतिक, ईमानदार व संघर्षशील नेता की जो छवि बनी, उसी के बूते उन्होंने कन्नौज लोकसभा सीट के 1967 के चुनाव में कांटे के मुकाबले में भी 93,578 वोट प्राप्त किया. उनके निकटतम प्रतिद्वंदी कांग्रेस के एसएन मिश्र ने 93,106 वोट पाये. लेकिन उम्र ने उन्हें इस जीत की वर्षगांठ भी नहीं मनाने दी. चुनाव के कुछ ही महीनों बाद बीमार पड़े और दिल्ली के तत्कालीन विलिंगडन अस्पताल में भर्ती कराये गये, जहां उनकी मृत्यु हो गयी. बाद में उनकी याद में उस अस्पताल का नाम बदलकर डॉ राम मनोहर लोहिया अस्पताल कर दिया गया.
बहरहाल, तत्कालीन फैजाबाद जिले में स्थित उनकी जन्मभूमि अकबरपुर (जहां 23 मार्च, 1910 को उनका जन्म हुआ था) से उनकी कर्मभूमि फर्रुखाबाद या कि कन्नौज तीन सौ किलोमीटर से ज्यादा दूर है. लेकिन आज वे जन्मभूमि व कर्मभूमि दोनों में लावारिस से होकर रह गये हैं. वर्ष 1931 में 23 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु की शहादत के बाद डॉ लोहिया कहा करते थे कि ‘अब 23 मार्च, मेरे जन्मदिवस से ज्यादा इन तीनों क्रांतिकारियों का शहादत दिवस है.’
इस कारण वे व्यक्तिगत रूप से भी अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे. कहते थे कि किसी शख्सियत के निधन के तीन सौ वर्ष बाद तक उसका जन्मदिन मनाने या उसकी मूर्तियां लगाने से परहेज रखना चाहिए, ताकि इतिहास को निरपेक्ष होकर यह फैसला करने का समय मिल सके कि वह शख्सियत इसकी हकदार थी या नहीं. लेकिन आज शायद ही कोई समाजवादी उनकी इस नसीहत पर अमल करता हो.