बिशन नेहवाल
सामाजिक एवं आर्थिक चिंतक,
केसी त्यागी
(पूर्व सांसद, जनता दल यूनाइटेड)
डॉ राम मनोहर लोहिया तब मात्र 57 वर्ष के ही थे जब 12 अक्तूबर, 1967 को अचानक हुई उनकी मृत्यु ने परिवर्तन की समूची राजनीति को जैसे विराम लगा दिया. देश में जोर पकड़ रहा समाजवादी आंदोलन उनके असमय निधन से निष्प्रभावी हो गया. भारत के प्रमुख समाजवादी नेताओं में से एक डॉ लोहिया ने देश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी है. जाति व्यवस्था और लगातार विकसित हो रही राजनीतिक गतिशीलता के साथ भारत के जटिल संबंधों के संदर्भ में लोहिया के मुद्दे आज भी गूंजते हैं. जातिविहीन समाज के लिए लोहिया का दृष्टिकोण और विचार भले ही 70 वर्ष पुराने हों, परंतु वे आज भी प्रासंगिक हैं.
लोहिया जाति को मिटाकर वर्ग में बदलना और देश में अहिंसक समाजवादी वर्ग एवं वर्ण क्रांति लाना चाहते थे. उनका जीवन जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए समर्पित था. उन्होंने जाति आधारित विषमता को गंभीर सामाजिक अन्याय के रूप में देखा और माना कि यह भारत के एक आधुनिक, न्यायसंगत राष्ट्र बनने की दिशा में एक बाधा है. लोहिया का तर्क था कि जाति विभाजन ने असमानता को कायम रखा, जिससे लाखों लोगों को अवसर और सम्मान नहीं मिला. उन्होंने जाति व्यवस्था को उसके मूल में चुनौती देते हुए तर्कसंगत दृष्टिकोण की वकालत की. उनका मानना था कि सच्चा सामाजिक न्याय केवल जातिगत पदानुक्रम को खत्म और सभी को समान अवसर प्रदान करके ही प्राप्त किया जा सकता है. उन्होंने आर्थिक समानता, भूमि सुधार व संसाधनों के समान वितरण की वकालत पर जोर दिया. वे आर्थिक असमानता को जाति व्यवस्था के कारण और परिणाम दोनों के रूप में देखते थे.
राजनीति के प्रति उनका दृष्टिकोण सामाजिक न्याय में निहित था. उन्होंने हमेशा इस मुद्दे का समर्थन किया. इस जड़ता को तोड़ने और भागीदारी की इच्छा जगाने के लिए कई राजनीतिक प्रयोग भी किये. जाति और सामाजिक न्याय पर उनके विचार हमेशा से देश के राजनीतिक विमर्श को आकार देते रहे हैं. उनके दृष्टिकोण के कई पहलू आज भी समसामयिक और प्रासंगिक हैं. शिक्षा और सरकारी नौकरियों में हाशिये के समूहों के लिए आरक्षण की उनकी वकालत ने भारत में सकारात्मक नीतियों की नींव रखी. वे आज भी भारतीय राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. लोहिया का सिद्धांत था कि योग्यता अवसर से आती है. चूंकि देश में जाति वर्चस्व के काल में शूद्रों को अवसर नहीं मिला, इसलिए उनकी योग्यता या क्षमता का विकास नहीं हो सका.
इसी कारण वे अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियां, अल्पसंख्यकों की पिछड़ी जातियों समेत नारियों को भी विशेष अवसर देना चाहते थे. आजादी के 75 वर्ष बाद भी आरक्षण के औचित्य पर सवाल उठते हैं, परंतु हमें लोहिया के दृष्टिकोण से सोचने की आवश्यकता है कि क्या आज देश में राजनीतिक, प्रशासनिक क्षेत्रों में हिस्सेदारी में समानता आयी है, हजारों वर्षों से जिन्हें शूद्र कहा गया, क्या उनकी भागीदारी समतुल्य हो पायी है? आरक्षण के बाद भी क्या वंचित और पिछड़ा समाज वह हासिल कर सका है जो उसे देने की संविधान की मंशा थी या जिसे दिया जाना डॉ लोहिया सामाजिक न्याय का आधार मानते थे. लोहिया द्वारा समर्थित आरक्षण नीतियों ने उनकी प्रभावशीलता और संभावित कमियों के बारे में चल रही बहस को जन्म दिया है.
वंचित जातियों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर लोहिया के जोर के कारण पहचान की राजनीति का उदय हुआ. हाशिये पर रहने वाले समुदायों के सशक्तिकरण में उनका प्रभाव स्पष्ट है. उनके दृष्टिकोण का स्थायी प्रभाव पड़ा है, परंतु इसे चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा है. जातिगत विचारों से प्रेरित पहचान आधारित राजनीति के कारण विभाजन का डर रहता है. इसमें संदेह नहीं कि कुछ अनुसूचित जाति-जनजाति व शूद्र जाति के लोगों को पूना पैक्ट, संविधान और लोहिया के संघर्ष से सत्ता में जाने का अवसर मिला, परंतु जो लोग जाति हिस्सेदारी के नाम पर सत्ता में पहुंचे, उनमें से कुछ नेता वर्गीय चेतना को भुलाकर जाति के नेता बन गये हैं. ऐसे में सामाजिक न्याय की अधिक व्यापक समझ के लिए हमें लोहिया और उनके विचारों को और अधिक समझने की आवश्यकता है, जिसमें लैंगिक विचार भी शामिल हैं.
(ये लेखकों के निजी विचार हैं)