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जब श्रीराम ने तिनके की तरह उठाकर शिवधनुष को कर दिए थे दो टुकड़े, जानें स्वयंवर की कहानी

भगवान परशुराम ने राजा जनक को 'शिव धनुष' उपहार में दिया था। बाद में सीता के स्वयंवर के दौरान भगवान राम ने इसे तोड़ दिया था, क्योंकि केवल राम ही धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने में सक्षम थे.

By Radheshyam Kushwaha | January 20, 2024 8:11 PM

भगवान शिव ने अपना प्रसिद्ध धनुष देवरात को उपहार में दिया था, जो एक महान भक्त और राजा जनक के पूर्वज थे. यह धनुष अत्यंत शक्तिशाली और भारी था, इसे भगवान विश्वकर्मा ने बनाया था और भगवान शिव को उपहार में दिया था. राजा जनक की पुत्री सीता ने एक बार अपनी बहनों के साथ खेलते समय धनुष उठा लिया था. यह राज्य में किसी और के द्वारा नहीं किया जा सकता था, इसलिए जनक आश्चर्यचकित थे. राजा जनक ने घोषणा की कि सीता का विवाह केवल उसी व्यक्ति से किया जाएगा जो शिव धनुष को उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ा सके. चुनौती सरल थी, जो कोई भी धनुष उठाता और प्रत्यंचा चढ़ाता, वह सीता का विवाह कर लेता. वाल्मिकी रामायण के अनुसार कोई स्वयंवर नहीं था. राजा और राजकुमार समय-समय पर अपनी किस्मत आजमाने आते रहे लेकिन कोई भी इसे उठा नहीं सका.

जब राम, लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र राजा जनक के महल में पहुंचते हैं, तो विश्वामित्र राजा जनक से भगवान शिव का धनुष दिखाने के लिए कहते हैं. तब राजा जनक अपने मंत्रियों को आदेश देते हैं. ऋषि विश्वामित्र से अनुमति लेकर राम ने वह डिबिया खोली जहां धनुष रखा हुआ था. उन्होंने धनुष देखा और विश्वामित्र से उसे उठाने और उससे निशाना साधने की अनुमति मांगी. राजा और ऋषि सहमत हो गए. राम ने धनुष उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाई, जबकि हजारों लोग राम की ओर देख रहे थे. राम ने धनुष की तन्यता जांचने के लिए उसे कान तक खींचते समय वह धनुष बीच से ही टूट गया, इसके बाद तूफान की गर्जना के समान एक बड़ी ध्वनि उत्पन्न हुई. ऐसा लगा जैसे कोई बहुत बड़ा भूकंप आया हो, जिससे पहाड़ टूट कर बिखर गये हों.

राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।

गनु सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।

उन सेवकों ने कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणी के) स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठाया. उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहां आए. वे ऐसे सुंदर हैं मानो साक्षात मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो . सुंदर सांवला और गोरा उनका शरीर है. वे गुणों के समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं. वे राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों. जनक समेत रानियां उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता. योगियों को वे शान्त, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्त्व के रूप में दिखे. हरिभक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्टदेव के समान देखा. सीताजी जिस भाव से श्रीरामचन्द्रजी को देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो कहने में ही नहीं आता. फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है. इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश श्रीरामचन्द्रजी को वैसा ही देखा. सुंदर सांवले और गोरे शरीर वाले तथा विश्वभर के नेत्रों को चुराने वाले कोसलाधीश के कुमार राजसमाज में इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं. दोनों मूर्तियां स्वभाव से ही मन को हरने वाली हैं.

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।।

रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।

पीली चौकोनी टोपियां सिरों पर सुशोभित हैं, जिनके बीच-बीच में फूलों की कलियां बनाई हुई हैं. शंख के समान सुंदर गले में मनोहर तीन रेखाएं हैं, जो मानो तीनों लोकों की सुंदरता की सीमा को बता रही हैं. हृदयों पर गजमुक्ताओं के सुंदर कंठे और तुलसी की मालाएं सुशोभित हैं. उनके कंधे बैलों के कंधे की तरह ऊंचे तथा पुष्ट हैं, कमर में तरकस और पीताम्बर बांधे हैं. दाहिने हाथों में बाण और बायें सुंदर कंधों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं. नख से लेकर शिखा तक सब अंग सुंदर हैं, उनपर महान् शोभा छायी हुई है. उन्हें देखकर सब लोग सुखी हुए. जनकजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए. तब उन्होंने जाकर मुनि के चरणकमल पकड़ लिए. विनती करके अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि (यज्ञशाला) दिखलाई. मुनि के साथ दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहां-जहां जाते हैं, वहां-वहां सब कोई आश्चर्यचकित होकर देखने लगते हैं. सबने रामजी को अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा. परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका. मुनि ने राजा से कहा- रंगभूमि की रचना बड़ी सुंदर है.

सब मंचों से एक मंच अधिक सुंदर, उज्ज्वल और विशाल था. राजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उसपर बैठाया. प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं. उनके तेज को देखकर सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं. इधर उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि शिवजी के विशाल धनुष को जो सम्भव है न टूट सके बिना तोड़े भी सीताजी श्रीरामचन्द्रजी के ही गले में जयमाल डालेंगी. दूसरे राजा, जो अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हंसे. उन्होंने कहा- धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है, फिर बिना तोड़े तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है. काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे. यह घमंड की बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुसकराये. उन्होंने कहा- राजाओं के गर्व दूर करके श्रीरामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेंगे. सुंदर, सुख देने वाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं. हमने तो श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन करके आज जन्म लेने का फल पा लिया. ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेममग्न होकर श्रीरामजी का अनुपम रूप देखने लगे.

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सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रुप गनु खानी।।

उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।

सीताजी के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने. यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाय तो जगत में ऐसी सुंदर युवती है ही कहां जिसकी उपमा उन्हें दी जाय. पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाय तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुंदर हैं, तो उनमें सरस्वती तो बहुत बोलने वाली हैं. सयानी सखियां सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं. सीताजी के नवल शरीर पर सुंदर साड़ी सुशोभित है. जगज्जननी की महान छवि अतुलनीय है. सब आभूषण अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अंग-अंग में भलीभांति सजाकर पहनाया है. जब सीताजी ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका दिव्य रूप देखकर स्त्री-पुरुष सभी मोहित हो गए.

देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएं गाने लगीं. सीताजी के करकमलों में जयमाला सुशोभित है. सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे. सीताजी चकित चित्त से श्रीरामजी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए. सीताजी ने मुनि के पास बैठे हुए दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं श्रीरामजी में जा लगे. परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं. वे श्रीरामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं. श्रीरामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छवि देखकर स्त्री पुरुषों ने पलक मारना छोड़ दिया. सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं. मन-ही-मन वे विधाता से विनय करते हैं.

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