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भारत में वास्तविक सुधारों पर भी हो चर्चा

राजनीति और अर्थशास्त्र के कई विद्वान दूसरे चरण के सुधारों की बात तो करते हैं, पर अपने सुझावों को उत्पादकता के कारकों के पूरक सुधारों तक ही सीमित कर देते हैं. अगर हम सच में एक महान राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो दूसरे चरण के सुधारों के लिए पूरी संस्थागत संरचना में परिवर्तन आवश्यक है.

हमारे देश में नयी और पुरानी पेंशन योजनाओं के गुणों को लेकर गंभीर चर्चा चल रही है. विभिन्न आधारों पर नये समूहों के लिए आरक्षण और कोटा की मांग भी की जा रही है. सेना में छोटी अवधि के लिए जवानों की भर्ती योजना के लिए सरकार की बड़ी आलोचना हुई थी. इन सभी मामलों में और इस तरह की स्थितियों में नकदी की कमी से जूझ रही सरकार से असीम समाधान और वेतन की मांग हो रही है. ‘वित्तीय समझ’ पर ‘प्रतिस्पर्धी पॉपुलिज्म’ हावी हो रहा है. आर्थिक सुधारों से अपेक्षा थी कि वे ऐसा नहीं होने देंगे, लेकिन जिस तरह से उन्हें लागू किया गया, वे ऐसा नहीं कर पाये. तो अब हम ‘दूसरी पीढ़ी’ के सुधारों- अधिक खुलापन, सेवाओं से सरकार का और अधिक अलग होना और उदारीकृत व्यवस्था में निजी क्षेत्र पर अधिक निर्भरता- की चर्चा सुन रहे हैं. ऐसे में यह सरल सवाल पूछा जाना चाहिए कि डॉ मनमोहन सिंह जैसे अनुभवी अर्थशास्त्री के तहत हुए पहले चरण के सुधारों के परिणाम अपेक्षित नहीं रहे, तो दूसरे चरण के खरे उतरने की अपेक्षा क्यों है. हमारी संस्थाओं की तैयारी और क्षमता, शासन तंत्र की गुणवत्ता एवं इनके संचालन की मानसिकता तथा भरे पड़े भ्रष्ट तत्वों को परे रखने से संबंधित बड़े प्रश्न भी हैं. यह समय नये सुधारों को लाने से पहले इन प्रणालियों को परखने और ठीक करने का है.

सुशासन किसी भी प्रणाली का मूल है, जिसके विकास से प्रणाली के सभी सदस्य लाभान्वित होते हैं. यह बात एक छोटे समूह पर भी लागू होती है तथा एक बड़े समाज और एक देश पर भी. आज हमारे शासन व्यवस्था के स्तर को लेकर कई सवाल हैं, जिनसे सबसे बड़ा सवाल पैदा होता है- क्या हमने उन वायदों को पूरा किया है, जिनके आधार पर 75 साल पहले भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बना था और अपने को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित किया था? संविधान सभा में बाबासाहेब आंबेडकर ने उचित ही इंगित किया था कि संविधान का अच्छा या खराब होना इसे लागू करने वालों के अच्छे या खराब होने पर निर्भर करता है. उसी भाषण में उन्होंने ‘नायक पूजा’ और ‘अराजकता के व्याकरण’ के प्रति चेताया था तथा संविधान में लिखे समानता के बरक्स सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में व्याप्त विषमता की वास्तविकता को चिह्नित किया था. क्या हम ऐसे खतरों को लेकर चेत सके? क्या हमारे शासन का स्तर बेहतर हो रहा है या इसमें गिरावट आ रही है, जिसका खामियाजा हम सब भुगत रहे हैं. आज हम संविधान में वर्णित मुख्य सचेतक शब्दों- न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व- के मामले में कहां हैं, इसकी ठोस समीक्षा करना उपयोगी हो सकता है.

उन मूल्यों के प्रभावी करने के सबसे अहम संस्थान न्यायपालिका, नागरिक प्रशासन और विधि-व्यवस्था का तंत्र हैं. न्याय में देरी न्याय नहीं है, यह बात बहुत से मामलों में लागू होती है. न्याय पाना खर्चीला है, जिससे आबादी का बड़ा हिस्सा न्याय पाना तो दूर, न्याय की मांग भी नहीं कर पाता है. आज 4.27 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनमें से 70 प्रतिशत से अधिक एक साल से ज्यादा पुराने हैं. जीवन की गुणवत्ता, रहन-सहन और अवसर सुनिश्चित करना नागरिक प्रशासन का दायित्व है. लेकिन उसके कामकाज के तरीके से आम आदमी परेशान है. यह साफ है कि धन और रसूख वालों को बहुत अधिक संसाधन और अवसर मिलते है, जबकि आम लोग बराबरी के बर्ताव के लिए जूझते रहते हैं. यह बात पानी, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि से लेकर काम और पेशे तक में लागू होती है. मुंबई जैसे चमकदार शहरी केंद्रों में भी झुग्गी और अन्य रिहायशी इलाकों में सुविधाओं के असंतुलन को देखते हैं. आम जन के साथ पुलिस प्रशासन का रवैया भी ऐसा ही है. धनी और रसूखदार बड़े-बड़े अपराध करने के बाद भी बच जाते हैं, जबकि साधारण लोगों के साथ खराब बर्ताव होता है. नागरिकों के विरुद्ध हिंसा पुलिस व्यवस्था में गहरे तक पैठी हुई है. किसी भी सांस्थानिक संरचना में भ्रष्टाचारियों के लिए मौका निकल ही आता है. पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के अभाव तथा खराब बर्ताव का संज्ञान न लेने से ऐसे व्यवहारों को प्रोत्साहन मिलता है.

इन संस्थाओं के कामकाज के विश्लेषण से दो बुनियादी बातें सामने आती हैं. पहली बात, इन संस्थाओं की रूप-रेखा औपनिवेशिक युग की विरासत है. बीते दशकों में इन संस्थाओं पर बोझ भी बहुत बढ़ा है. इनकी संरचना और कार्यशैली में जो थोड़े-बहुत बदलाव हुए हैं, वे अपेक्षित परिणाम के लिए अपर्याप्त साबित हुए हैं. दूसरी बात, सत्ता संरचना के बाहरी हिस्से के अधिकतर अधिकृत केंद्र भ्रष्टाचार के केंद्र बन गये हैं. जवाबदेही की कमी के चलते इसे फलने-फूलने का भी खूब मौका मिला है. ऐसे में साधन-संपन्न लोग हर तरह के उल्लंघन कर अपना स्वार्थ साध रहे हैं और उन्हें किसी तरह का डर भी नहीं है. भारत को अब इन संस्थाओं की पुनर्संरचना के बारे में सोचना चाहिए. भ्रष्टाचार एक मानवीय व्यवहार है और इसे पूरी तरह समाप्त करना लगभग असंभव है. पर इसे शिक्षा, जवाबदेही, पारदर्शिता और तकनीक के इस्तेमाल से कम किया जा सकता है. यदि इन खामियों को ठीक करने पर पूरा जोर नहीं लगाया गया, तो व्यवस्था में लोगों का भरोसा पूरी तरह खत्म हो जायेगा.

अमेरिका के एक वकील और राजनेता हेनरी क्ले (1777-1852) ने एक बार कहा था- ‘सरकार एक न्यास है और इसके अधिकारी न्यासी हैं तथा इस न्यास और इसके न्यासियों को लोगों के भले के लिए बनाया गया है.’ इस विश्वास पर खरा उतरने के लिए हमें सुधारों को लेकर अपने रवैये में कुछ बुनियादी बदलाव करना होगा. राजनीति और अर्थशास्त्र के कई विद्वान दूसरे चरण के सुधारों की बात तो करते हैं, पर अपने सुझावों को उत्पादकता के कारकों के पूरक सुधारों तक ही सीमित कर देते हैं. अगर हम सच में एक महान राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो दूसरे चरण के सुधारों के लिए पूरी संस्थागत संरचना में परिवर्तन आवश्यक है. हमें स्वतंत्रता को बचाना होगा, संस्थाओं को स्वतंत्र एवं प्रभावी ढंग से चलाना होगा, पर हमें लोगों का शोषण करने वाले और अपना हित साधने वाले तत्वों पर भी निगरानी रखनी होगी. सभी संस्थाओं को आम नागरिक की सेवा करने के लिए काम करना होगा. हमें यह हासिल करने के लिए तथा समतामूलक समाज बनाने के लिए बड़ी मेहनत करनी होगी, जो न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व से पूर्ण होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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