Gyanvapi Masjid Dispute: वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के एक पूर्व छात्र का शोध ज्ञानवापी विवाद को हल करने में सहायक हो सकता है. बीएचयू के पूर्व शोध छात्र व वरिष्ठ पत्रकार आरपी सिंह ने ज्ञानवापी प्रकरण में मस्जिद से पहले मंदिर स्थापित था. इसके सबूत के तौर पर उन्होंने 1991 की कई तस्वीरें उपलब्ध कराई हैं. आरपी सिंह तहखाने के अंदर भी कई बार जा चुके हैं. उनका कहना है कि मस्जिद के निचले हिस्से में आज भी मंदिर के साक्ष्य मौजूद हैं क्योंकि मस्जिद का निर्माण ही मंदिर के मलबे से हुआ है.
पूर्व पत्रकार और बीएचयू के पूर्व शोध छात्र आरपी सिंह का कहना है कि वर्तमान में मस्जिद में जो तस्वीरें उपलब्ध हैं, उनका साक्ष्य उनके पास मौजूद तस्वीरों में मिलता है. ये तस्वीरें 30 साल पुरानी जरूर हैं मगर ढांचा भी 450 साल पुराना है. वर्तमान में ये चीजें अभी भी सुरक्षित हैं. यदि उस ढांचे को कायदे से देखा जाए तो सारे हिंदू देवी-देवताओं के प्रतीक उसमें मौजूद हैं. बिल्कुल वैसी ही जैसी हिंदू कलाकृतियां मंदिरों में बनती थीं. जो भाग गिराया गया है और जो नहीं गिराया गया हैं, यदि उन दोनों का मिलान करें तो यही सबूत मिलते हैं.
उनका दावा है कि ज्ञानवापी के तहखाने के अवशेषों को यदि देखें तो बिल्कुल वही कलाकृतियां श्रृंगार गौरी मंदिर में भी देखने को मिलती हैं क्योंकि पत्थरों को मिटाया नहीं जा सकता है. ये कहना गलत है कि यह मस्जिद है. आप मस्जिद का सबूत कहीं से तो दोगे. उन्होंने कहा, ‘मेरे पास ये तस्वीरें विहिप से जुड़ने के वक्त 1991 के आसपास की हैं. चूंकि, हम लोग वंदे मातरम अखबार का सम्पादन करते थे. उस वक्त काशी विश्वनाथ विशेश्वर विशेषांक निकालने की योजना बनी. उसी क्रम में हम लोगों ने इन सारी तस्वीरों को संग्रहित किया. इसमें बहुत से लोगों से सहयोग भी लिया क्योंकि उस वक्त मोबाइल नहीं था.’
उन्होंने आगे बताया, ‘ज्ञानवापी मंदिर के काशी विश्वनाथ विशेश्वर के ऊपर निकले इस विशेषांक को हमने उस वक्त के तत्कालीन विहिप से जुड़े अशोक सिंघल से नागरी नाटक मंडली में उद्घाटित कराया. मैं तहखाने में कई बार गया हूं. 1991 में पण्डित सोमनाथ व्यास ने एक मुकदमा किया था. इसमें उन्होंने यह दावा किया है कि यह जो मंदिर है जिसे 1669 में तोड़ा गया था. उसमें उनके ही परिवार के लोग पूजा करते थे. इसलिए वह उनके अधिकार क्षेत्र में आता है. अंग्रेजों ने तहखाने को दो भागों में बांट दिया था. उत्तर की तरफ तहखाने की चाभी मुसलमानों को दी तथा दक्षिण भाग की चाभी व्यास परिवार को सौंप दी गई थी. तब से यह यूं ही चलता आ रहा है.’
उन्होंने कहा कि टूटे-फूटे जो सारे अवशेष थे वे व्यास परिवार के हिस्से में चला आ रहा है. मंदिर और मस्जिद में बहुत सारे अंतर होते हैं. चाहे कलाकृतियों का हो चाहे डिजाइन का हो. यदि हमारे धर्म में ओम बन गया तो वो ओम कभी किसी मस्जिद में नहीं बनता. स्वास्तिक, घंटिया, इनकी आकृतियां कभी मस्जिद की नहीं हो सकती हैं. उन्होंने ‘प्रभात खबर’ से कहा, ‘मेरे पास मौजूद सारी तस्वीरों को यदि देखा जाए तो उसे देखकर साफ पता चलता है कि यह मस्जिद नहीं मंदिर है. अब इससे बढ़कर कोई क्या सबूत प्रस्तुत करेगा? यदि और सबूत लेना है तो 125 फिट लंबा और 125 फिट चौड़ा आप खोदाई करा लीजिए. सारे अवशेष निचे दबे मिलेंगे. यहां तक की तीनों गुम्बद गिरा लीजिए आप पाएंगे कि उनका भी निर्माण मंदिरों के अवशेष से मिलकर बना है.’
उन्होंने कहा कि यदि इतिहास की सारी किताबों का साहित्य पुनरावलोकन करा लिया जाए तो पाएंगे कि काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास क्या लिखा है? दिक्कत यही है कि लोग सबूत मांगते हैं लेकिन मानते नहीं हैं. यदि न्यायालय मांगता है तो हम निश्चित रूप से सारे डॉक्यूमेंट उपलब्ध कराएंगे. सारे मीडिया चैनल में यह तस्वीरें चल रही हैं. यदि न्यायालय मांगे तो इसे पेश करेंगे. उन्होंने कहा, ‘तहखाने में मैं कई बार गया हूं. अभी भी दीवारों में बहुत सारे पत्थर भरे पड़े हैं. इसका सबूत यही है कि वर्तमान में जो ढांचा खड़ा है, वही अवशेष उन टूटे-फूटे पत्थरों पर भी देखने को मिलेगा.’
रिपोर्ट : विपिन सिंह