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गंगासागर में बोले शंकराचार्य- विकास, राजनीति और पर्यावरण के बीच संतुलन की जरूरत, पारसनाथ विवाद पर कही ये बात

स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने कहा कि पर्वत, वन और नदी पृथ्वी के संतुलन को बनाये रखते हैं. लेकिन विकास के नाम पर पर्वतों को तोड़कर रास्ता बनाया जा रहा है. वनों को काटा जा रहा है और नदियों के जल को दूषित किया जा रहा है. प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम है ‘जोशीमठ प्रकरण’...

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 13, 2023 8:36 PM

गंगासागर से शिव कुमार राउत. विकास…विकास…विकास…क्या है यह विकास, जिसकी होड़ में समूचा विश्व लगा हुआ है. भारत भी विकास के इस मैराथन में भाग रहा है. लेकिन सवाल यह है कि भारत एवं विश्व के अन्य देशों को इस अंधाधुंध दौड़ में हासिल क्या हुआ? आज के परिदृश्य को देखें, तो उत्तराखंड से लेकर झारखंड, पश्चिम बंगाल तक सभी अपनी पारंपरिक व सांस्कृतिक विरासत को बचाने में लगे हैं. आखिर यह भयावह परिस्थितियां उपजी कैसे? इसका जिम्मेदार कौन है? ये बातें पुरी के पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने शुक्रवार को गंगासागर में कहीं.

विकास के गर्भ से जन्म ले रहा विनाश

स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने कहा कि पर्वत, वन और नदी पृथ्वी के संतुलन को बनाये रखते हैं. लेकिन विकास के नाम पर पर्वतों को तोड़कर रास्ता बनाया जा रहा है. वनों को काटा जा रहा है और नदियों के जल को दूषित किया जा रहा है. प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम है ‘जोशीमठ प्रकरण’, जिसके पीड़ितों के प्रति अपार सहानुभूति है. इस नाजुक समय में सामाजिक संगठन, शासन तंत्र और वैज्ञानिकों को एकजुट होकर देशहित में कार्य करने की जरूरत है. नहीं तो यूं ही विकास के गर्भ से विनाश का जन्म होता रहेगा.

कोरोना ने नास्तिकों को पढ़ाया आस्तिकता का पाठ

स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने कहा कि कोरोना काल में ही विकास की पोल-पट्टी खुल गयी. चीन, जापन अमेरिका जैसे विकसित देशों ने कोरोना के सामने घुटने टेक दिये. पुरातन कहकर छोड़ देने वाली पद्धतियों व सिद्धांतों का ही अधिकाधिक प्रयोग हुआ. इस तरह कोरोना ने नास्तिकों को आस्तिकता का पाठ पढ़ाया.

26 साल पुरानी है गंगा आरती की परंपरा

‘पुत्र सगर के तारे, सब जग को ज्ञाता, जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता…’ शंकराचार्य ने पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से इस वर्ष गंगासागर मेले में वाराणसी की तर्ज पर भव्य गंगा आरती के लिए कड़ी आलोचना की. कहा कि अब आरती राजनीति का विषय हो गया है. जिसे देखो बस गंगा आरती पर राजनीति कर रहा है. राज्य सरकार को कोलकाता के बाबूघाट में केंद्र द्वारा गंगा आरती की अनुमति नहीं मिली. पर, राज्य प्रशासन को हार मंजूर कहां? वाहवाही के लिए गंगासागर में भव्य आरती की जा रही है. इस आरती की शुरुआत हमने 26 साल पहले ही कर दी थी. प्रशासन तो उसकी नकल भर कर रहा है.

विलुप्त हो रही पवित्र धाराएं

शंकराचार्य ने कहा कि जल प्रदूषण विकास का ही दुष्परिणाम है. उन्होंने कहा कि एक समय था, जब देश के पूर्व प्रधानमंत्री, जिनका नाम ‘रा’ से शुरू होता है, उन्होंने विदेशों की नदियों को स्वच्छ करने के लिए गंगाजल डाला था. आज वर्तमान प्रधान सेवक देश की गंदी नालियों को साफ करने के लिए उनमें गंगा का पानी डाल रहे हैं. इससे देश की नदियों की पवित्र जलधाराएं विलुप्त हो रही हैं. धरती, जल, आकाश, सूर्य, चंद्रमा सबको दूषति किया जा रहा है.

धर्मस्थली भोग स्थली न बन जाये

झारखंड के ‘जैन तीर्थ सम्मेद शिखर’ बनाम ‘पर्यटन स्थल’ विवाद पर शंकरचार्य ने कहा कि किसी भी स्थिति में तपोस्थली को भोगस्थली बनने नहीं दिया जा सकता. इको टूरिज्म के नाम पर तीर्थस्थल के मौलिक स्वरूप को क्षति पहुंचती है. इससे उपभोक्तावादी संस्कृति पैदा होगी. विकास जरूरी है, पर उसके लिए वैज्ञानिक व नैतिक आधार पर नीतियां बननी चाहिए. देश को विकास, राजनीति और पर्यावरण के बीच संतुलन साधने की आवश्यकता है.

केंद्र के असहयोग को अवसर के रूप में देखें ममता बनर्जी

गुरु का कर्तव्य होता है प्रशासन में बैठे लोगों का मार्गदर्शन करना. वह अपना दायित्व निभा रहे हैं. उन्होंने कहा कि केंद्र का रवैया गंगासागर मेले के प्रति असहयोगात्मक है. इसे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अवसर समझना चाहिए. लेकिन, जब केंद्र कोई अच्छा काम करे, तो राज्य सरकार को भी उसका खंडन नहीं करना चाहिए.

मेला कहीं झमेला न बन जाये

शंकराचार्य ने जोर देकर कहा कि सनातन परंपरा व संस्कृति का प्रत्यक्ष प्रमाण है सागर मेला. अब तो यह विश्व प्रसिद्ध है. लेकिन, इस मेले को राष्ट्रीय मेला घोषित किये जाने की मांग उठती है. सवाल है कि इस मेले को कौन राष्ट्रीय मेला घोषित करेगा? सरकार या सामाजिक संगठन? इतिहास गवाह है कि धर्म-संस्कृति का जब राजनीतिकरण किया जाता है, तो समाज में विरोध होता है. जैन तीर्थ स्थल के मामले में हुए अहिंसक आंदोलन में दो साधुओं ने अपने प्राण त्याग दिये. इससे बचना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि ‘राष्ट्रीय मेला घोषित’ करने के चक्कर में कोई और झमेला ना खड़ा हो जाए.

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