शौर्य गाथा: विदेश की धरती पर घामा उरांव ने वीरता की मिसाल की थी कायम

सूबेदार घामा उरांव ने विदेश की धरती पर वीरता की ऐसी मिसाल कायम की, जिसे आज भी याद किया जाता है. ये शांति मिशन पर ओलाकर में तैनात थे. उस दिनों श्रीलंका गृह युद्ध से जूझ रहा था. भारतीय फौज श्रीलंका गयी थी. इसमें घामा उरांव भी थे. उसी अभियान के दौरान घने जंगल में चार लड़कों ने उस पर हमला कर दिया था.

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 16, 2022 12:55 PM

Shaurya Gatha: लोहरदगा के रहनेवाले सूबेदार घामा उरांव ने विदेश की धरती पर वीरता की ऐसी मिसाल कायम की, जिसे आज भी याद किया जाता है. ये शांति मिशन पर ओलाकर में तैनात थे. उस दिनों श्रीलंका गृह युद्ध से जूझ रहा था. भारतीय फौज श्रीलंका गयी थी. इसमें घामा उरांव भी थे. उसी अभियान के दौरान घने जंगल में चार लड़कों ने उस पर हमला कर दिया था.

रेडियो सुनना था उनका शौक

घामा उरांव का जन्म 5 फरवरी 1968 को लोहरदगा में हुआ था. घामा तीन भाई और तीन बहनें थे. तीनों भाइयों में वह सबसे बड़े थे. पिता खेती करते थे. एक तरफ तो बड़ा परिवार और दूसरी तरफ पिता की सीमित आय, अतः उनका बचपन अभाव में गुजरा. घामा उरांव आर्थिक रूप से भले ही कमजोर थे, परंतु शारीरिक एवं मानसिक तौर पर बहुत मजबूत तथा धुन के पक्के थे. शरीर से मजबूत रहने के कारण उन्हें खेल में फायदा मिलता था. फुटबॉल उनका पसंदीदा खेल था. दौड़ने में वे काफी तेज थे. विरोधी टीम के खिलाड़ी उनके पीछे बॉल को अपने नियंत्रण में करने के लिए बस दौड़ते ही रह जाते थे. रेडियो सुनना उनका शौक था. रेडियो के सारे कार्यक्रमों में विशेषकर समाचार सुनने के लिए वह घंटों इसे अपने कान से लगाये रहते थे. समाचार में उनकी रूचि थी. वे जानना चाहते थे कि देश-दुनिया में क्या हो रहा है.

सेना के लिए चुने गए थे सूबेदार घामा

वे बिल्कुल सामान्य परिवार से थे, इसलिए खाने को लेकर कभी भी असंतोष नहीं करते थे. उन्हें शाकाहारी खाना ही पसंद था. पिताजी के साथ खेत में काम करने में उन्हें ज्यादा मजा नहीं आता था. वे चाहते थे कि पढ़-लिख कर पुलिस या सेना की वर्दी पहने, उन्हें खुद पर भरोसा था. साथियों से कहते भी थे कि एक न एक दिन वे सेना की वर्दी जरूर पहनेंगे. अपनी इस सोच की पृष्ठभूमि में हकीकत का रंग भरने और अपने साथ-साथ अपने पूरे परिवार को गरीबी की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए मैट्रिक की परीक्षा खत्म होते ही, बिना किसी को बताए, उन्होंने आर्मी की बहाली प्रक्रिया में आवेदन किया. मजबूत शरीर का लाभ, गांव के फुटबॉल के मैदान के बाद आर्मी की चयन प्रक्रिया में भी मिला. वे सेना के लिए चुन लिये गये, यह खुशखबरी उन्होंने मां को दी. फिर पूरे परिवार को उसके बाद मां से खाने के लिए चने मांगकर ट्रेनिंग पर चल पड़े.

घर पर मैदानी जंग की नहीं करते थे चर्चा

आरंभ में उन्हें सेना में तालमेल बैठाने में कठिनाई महसूस हुई. गांव का माहौल और सेना का माहौल बिल्कुल भिन्न था, लेकिन बहुत जल्द उन्होंने सारी चीजें सीख ली. हालांकि बटालियन के साथ काम कर रहे आज के सहकर्मी कल बदल जाते थे, फिर नये माहौल में नगे लोगों के साथ तालमेल बैठाना पड़ता था. विहार रेजिमेंट के अंतर्गत, कभी उनकी पोस्टिंग तटीय इलाकों में होती तो कभी घने जंगलों में होती थी. सेना में जाने के बाद जब वे छुट्टियों में घर आते, तो खेतों में भी जाते थे. उन्हें अपनी निजी जिंदगी को अपनी पेशेवर जिंदगी के साथ रखना कतई पसंद नहीं था. वह जंग के मैदान की या सेना की किसी बात की चर्चा कभी भी घर पर नहीं करते थे. गरीबी के कारण स्वयं तो वह उच्च शिक्षा नहीं ग्रहण कर सके थे, लेकिन वह अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना चाहते थे.

श्रीलंका में ऑपरेशन सिल्वर फिश के थे अगुआ

1989 का वर्ष था. नये मिशन के तहत घामा को श्रीलंका जाना पड़ा. इसी दौरान घने जंगलों में भी उन्हें जाना पड़ता था. भौगोलिक तौर पर बिल्कुल स इलाका. इसी क्रम में उन्हें एक घना जंगल रूग्म जाना पड़ा. 4 अगस्त 1989 को सिल्वर फिश ऑपरेशन की एक सहायक टुकड़ी के प्रमुख प्रहरी के रूप में वह वहां तैनात थे. अचानक उनकी टुकड़ी पर घातक हथियारों से लैस चार लड़ाकों ने हमला कर दिया. वे लड़ाके गुरिल्ला युद्ध में माहिर लग रहे थे. इन कठिन परिस्थितियों में उच्च स्तर का साहस दिखाते हुए, उन्होंने दो लड़ाकों को अपनी गोलियों का निशाना बनाया. दो लड़ाकों ने उन पर अंधाधुंध गोलियों की बौछार कर दी. बिना अपनी जान को परवाह किये घामा उरांव, सामने डटे रहकर उन पर भी अपनी गोलियां चलाते रहे. दोनों जख्मी लड़ाकों ने भी बाद में दम तोड़ दिया.

चार लड़ाकों को मार गिराया था

इस मिशन में धामा आंव ने अजेय साहस का परिचय देते हुए उन चार लड़ाकों को मार गिराया, लेकिन गोली उन्हें भी लग चुकी थी और उन्होंने दम तोड़ दिया. देश ने उन पर जो जिम्मेवारी सौंपी थी, उसे निभाया और इसी क्रम में वे शहीद हो गये. उनके इसी शौर्य के लिए सेना की ओर से वर चक्क प्रदान करने की सिफारिश की गयी. 26 जनवरी 1991 को उनकी पत्नी शिलमंती को वीर चक्र घामा उरांव के मरणोपरांत भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया गया.

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