शौर्य गाथा : झारखंड के लाल जॉन ब्रिटो किड़ो ने ‘ऑपरेशन पवन’ में दिया सर्वोच्च बलिदान, मिला वीर चक्र
श्रीलंका में 'ऑपरेशन पवन' में बहादुरी का परिचय देने वाले झारखंड के लाल जॉन ब्रिटो किड़ो को वीरता के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया था. किड़ो ने सांस टूटने के चंद सेकेंड पहले तक गोलीबारी कर कई विद्रोहियों को मार गिराया था.
Shaurya Gatha: जॉन ब्रिटो किड़ो झारखंड की माटी में जनमें एक ऐसे वीर सैनिक थे, जिन्होंने बारूदी सुरंग से पैर उड़ने, घायल होने के बावजूद हार नहीं मानी. सांस टूटने के चंद सेकेंड पहले तक उन्होंने गोलीबारी कर कई विद्रोहियों को मार डाला. यह घटना है 13 सितंबर, 1989 की. इसी वीरता के लिए उन्हें वीर चक्र से सम्मानित किया गया था.
बिहार रेजिमेंट के सिपाही थे जॉन ब्रिटो किड़ो
भारतीय फौज को शांति सेना के रूप में श्रीलंका भेजा गया था. बिहार रेजिमेंट के सिपाही जॉन ब्रिटो किड़ो भी इस दल में शामिल थे. उन दिनों श्रीलंका में आतंकवाद चरम पर था. जातीय संघर्ष के कारण स्थिति खराब थी. वहां जॉन अपने साथियों के साथ एक नाला पार कर रहे थे, जिसमें भारी मात्रा में बारूदी सुरंग बिछी हुई थी. अचानक वहां विद्रोहियों ने हमला कर दिया. जॉन भी पलक झपकते ही तैयार हो गये. मोरचा संभालने के दौरान, उनका दायां पांव, विद्रोहियों द्वारा बिछायी गयी बारूदी सुरंग पर पड़ने से उड़ गया. शरीर से पांव गायब होने के बावजूद उन्होंने धैर्य रखा, घबराए नहीं, बल्कि मोर्चे पर डटे रहे.
बहादुरी से लड़ते-लड़ते हुए शहीद
उनके पास साइट मशीनगन थी. वे उसी से लगातार फायरिंग कर आतंकवादियों को उनके अंजाम तक पहुंचाते रहे. दुश्मनों को अपनी तरफ उलझाए रखने से, जॉन के साथियों की काफी वक्त मिल गया. सभी विद्रोहियों का सफाया कर जॉन के साथी, उन्हें घायल अवस्था में स्ट्रेचर पर ले जाने लगे. अब उन्हें लग रहा था, जो हुआ सो हुआ और आगे कुछ गड़बड़ नहीं हो सकता है. मुश्किल से दो सौ गज की दूरी पार की होगी कि विद्रोहियों ने एक और हमला कर दिया. एक पांव उड़ चुकने के बावजूद जॉन टन लड़कों से लड़ रहे थे. लगभग 15-20 मिनट की गोली बारी में ट्रिगर से उनका हाथ नहीं हटा. उसी दौरान दुश्मनों की एक गोली उनके गले में जा लगी और उनका हाथ ट्रीगर से हट गया. वे बहादुरी से लड़ते-लड़ते शहीद हो गये.
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बचपन से खेलकूद में भी था रुचि
जॉन बचपन से बहादुर थे. खेल-कूद में आगे रहते थे. फुटबॉल के खेल में उनके सहयोगी, विरोधी टीम के खिलाड़ी से बॉल ना छीन पाने के कारण घुटने टेक देते थे. मगर जॉन हार नहीं मानते थे. वह अपने विपक्षी टीम के खिलाड़ियों के पीछे तब तक भागते रहते थे, जब तक कि बॉल उनके कब्जे में ना आ जाती थी. इसके अलावा, आर्मी में भी वह हर कठिन चुनौती का खुले दिल से स्वागत करते थे. चाहे प्रशिक्षण के दौरान सीधी-ऊंची चट्टानों पर चढ़ना हो, निगरानी में रात के वक्त घने जंगलों में शेर, चीतों के बीच वक्त गुजारना हो, रात के सन्नाटे में बंदूक ताने खड़ा रहना हो या किसी तूफान के बाद राहत कार्य में सम्मिलित होना हो. भीड़ में रहकर भी वह इसका हिस्सा नहीं लगते थे. अपने साथियों के बीच, अपने आकर्षक व्यक्तित्व की आभा बिखेरा करते रहते थे.
सिमडेगा के ठेठईटांगर में हुआ था जन्म
जॉन का जन्म सिमडेगा जिले के ठेठईटांगर पंचायत में एक साधारण परिवार में हुआ था और इस कारण उनका पालन-पोषण साधारण परिवेश में ही हुआ था. वे कारलुस किड़ो के पुत्र थे. वह बचपन से ही जानते थे कि राष्ट्र सेवा से बड़ा और कोई धर्म नहीं और इस धर्म का निर्वाह उन्हें एक दिन महान बना सकता है. इसी कारण फौज की नौकरी को उन्होंने अपना कैरियर बनाया. उनकी प्रारंभिक शिक्षा तमाड़ मिशन स्कूल से हुई. तोरपा से मैट्रिक पास करने के बाद, उन्होंने सिमडेगा कॉलेज में अपना नामांकन कराया.