Jharkhand news: शेरशाह सूरी का बनाया तोपची स्तंभ आज भी उपेक्षित, नहीं ले रहा कोई सुध
धनबाद जिला के तोपचांची प्रखंड के समीप तोपची स्तंभ देखरेख के अभाव में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. प्रखंड कार्यालय के मुख्य प्रवेश द्वार की बायीं तरफ अवस्थित स्तंभ अब मात्र 20 फीट ऊंचा की बचा है. 16वीं शताब्दी में शेरशाह ने ग्रांड ट्रंक रोड के साथ दो स्तंभ बनाये थे. लेकिन, अब कोई सुध नहीं ले रहा है.
Jharkhand news: ग्रांड ट्रंक रोड की दिल्ली-कोलकाता लेन पर तोपचांची प्रखंड कार्यालय के मुख्य प्रवेश द्वार से अंदर घुसते ही बायीं तरफ लगभग 20 फीट ऊंचा एक जीर्ण-शीर्ण स्तंभ दिखता है. स्तंभ का निचला घेरा करीब 12 फीट और शीर्ष घेरा चार फीट का होगा. इतिहास के जानकार बताते हैं कि यह स्तंभ 16वीं शताब्दी में बना था. इसके ठीक बगल में ऐसा ही एक स्तंभ था, जो कार्यालय निर्माण के लिए आठ-नौ वर्ष पूर्व ध्वस्त कर दिया गया. इस ऐतिहासिक निर्माण का तोपचांची से गहरा संबंध है. शेरशाह ने अपने शासनकाल में यहां तोपचियों यानी तोप चलाने वालों के ठहरने के सराय (जगह) के रूप में विकसित किया था. तोपचियों के ठहरने की यह जगह आगे चलकर ‘तोपचाची’ के रूप में जानी गयी.
जीर्ण-शीर्ण अवस्था में ऐतिहासिक धरोहर
इतिहासकार बताते हैं कि जीटी रोड पर दो जगह हुआ करती थी- पलटनटांड़ और सराय. पलटनटांड़ में केवल सैनिकों को ठहराया जाता था, वहीं सराय में तोपची, घुड़सवार और भारी संख्या में सैनिक रुकते थे. जीटी रोड के किनारे बने दोनों स्तंभ पड़ाव स्थल के रूप में चिह्नित थे. बदलते वक्त के साथ यह ऐतिहासिक धरोहर अंतिम सांसें गिन रही है. एक स्तंभ कब का ढहा दिया गया, दूसरा पुरातत्व विभाग वालों की कृपा से बचा हुआ है. हालांकि इसकी देखरेख की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं की गयी.
तोपचांची नाम के पीछे कई धारणा
ग्रांड ट्रंक रोड दक्षिण एशिया का सबसे पुराना व लंबा रोड था, जो पाकिस्तान के लाहौर होते हुए अफगानिस्तान के काबुल तक और बांग्लादेश के चटगांव तक जाता था. 16वीं सदी में शेरशाह सूरी ने इसका निर्माण कराया था. उस दौरान शेरशाह का बंगाल व बिहार पर अधिकार था. शेरशाह के सैनिकों का जीटी रोड से गुजरना होता था. वर्तमान के तोपचांची में शेरशाह ने अपने सैनिकों खासकर तोप चलाने वाले तोपचियों के ठहरने के लिए सराय का निर्माण कराया था. यहां तोपचियों के साथ घोड़ाें की देखरेख करने व घुड़सवारों के लिए भी कैंप का निर्माण करवाया गया था. तोपचियों की अच्छी-खासी संख्या होती थी. इन्हीं तोपचियों से तोपचाची नाम पड़ा.
नाम के पीछे छाछ का व्यापार भी
यह भी कहा जाता है कि आजादी के बाद भी राजाओं का शासन कायम था. यहां बंगाल से एक जाति विशेष के लोग बड़ी संख्या में पहुंचे थे. वे तोपचाची में छाछ (दही) बेचते थे. यह काफी प्रसिद्ध व्यवसाय था. शेरशाह के तोपची और छाछ से तोपचाची नामकरण हुआ. वर्ष 1952 में सरकारी कार्यालय खोले जाने के बाद इसे प्रखंड का दर्जा मिला. इसी के साथ सरकारी रिकॉर्ड में इसे तोपचांची लिखा जाने लगा.
रिपोर्ट : दीपक पांडेय, तोपचांची, धनबाद.