रजरप्पा (रामगढ़), सुरेंद्र कुमार/शंकर पोद्दार. दिशोम गुरु शिबू सोरेन का जीवन संघर्षों से भरा रहा है. गुरुजी के पिता सोबरन सोरेन की हत्या जमींदारों द्वारा 1957 में कर दी गयी थी. इसके बाद गुरुजी ने जमींदारी प्रथा को खत्म करने की ठान ली. अपनी पढ़ाई छोड़कर वर्ष 1965 में वे संताल समाज को एकजुट करने में जुट गये. महाजनी प्रथा के खिलाफ संताल समाज को एकजुट कर झारखंड आंदोलन का इन्होंने बिगुल फूंका था.
महाजनों ने गुरुजी पर कराया था मुकदमा दायर
शिबू सोरेन ने औंराडीह गांव में बैठक बुलायी थी, जिसमें 44 गांव के लोग शामिल हुए. इस बैठक में पारिवारिक समस्याओं को भी दूर करने की शुरुआत की गयी. समाज की एकजुटता से उन्हें महाजनी प्रथा का विरोध करने में बल मिला. इसके बाद लोगों ने महाजनों को धान देना बंद कर दिया. इस पर महाजनों द्वारा गुरुजी पर मुकदमा दायर कराया गया. पुलिस ने धान को जब्त कर लिया था.
पांच लाख का इनाम हुआ था घोषित
संताल समाज के लोग न्यायालय पहुंचे, जहां इनके पक्ष में फैसला आया. इसके बाद बैलगाड़ी से जब्त किये गये धान को गुरुजी की खलिहान में पहुंचाया गया. इस आंदोलन के बीच गुरुजी को कई बार जेल भी जाना पड़ा था. इसके बाद महाजनी प्रथा का विरोध धीरे-धीरे यहां के बाद बोकारो, धनबाद, गिरिडीह और दुमका में भी होने लगा. इस बीच गुरुजी का कुर्की वारंट निकाला गया. इनकी गिरफ्तारी के लिए सरकार द्वारा पांच लाख का इनाम भी घोषित किया गया था, लेकिन गुरुजी पहाड़ों में छिपकर और महिला का वेश बदलकर पुलिस की आंखों में धूल झोंककर हमेशा बचते रहे. वे कभी बूढ़ा व्यक्ति भी बन जाते थे.
पुलिस देखती रही, साड़ी पहनकर दुल्हन के साथ निकल गए
शिबू सोरेन के रिश्तेदार व बचपन के मित्र करमचंद मांझी ने बताया कि सराय बिंधा पेटरवार में एक शादी समारोह था. शादी में गुरुजी शामिल हुए थे. पुलिस ने चारों ओर से मंडप को घेर लिया था, लेकिन दुल्हन की विदाई के समय गुरुजी साड़ी पहनकर दुल्हन के साथ निकल गये थे. आपको बताते चलें कि गुरुजी ऊर्फ शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 में नेमरा गांव में हुआ था. उन्होंने 1970 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया था. इसके बाद उन्होंने झारखंड अलग राज्य के आंदोलन का नेतृत्व किया.