शरद पवार इस समय शायद अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं. अपने राजनीतिक जीवन की संध्या में अपनी बनायी पार्टी का बिखर जाना, और उसे दोबारा खड़ा करना एक बड़ी चुनौती है. हालांकि, यह मान लेना असंभव है कि शरद पवार जैसे कद्दावर नेता को महाराष्ट्र के इस राजनीतिक भूचाल की भनक नहीं रही हो. पिछले दिनों महाराष्ट्र में यह चर्चा आम थी कि अजित पवार का बीजेपी के साथ जाना तय है. सवाल बस यह था कि ऐसा कब होता है. इस साल दो मई को शरद पवार ने एनसीपी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया, और फिर उनकी पूरी पार्टी ने इसे मानने से इनकार कर दिया, जिसके बाद पांच मई को उन्होंने अपना इस्तीफा वापस ले लिया.
पवार के उस निर्णय की वजह भी यही थी कि उन्हें अजित पवार के ऐसे किसी कदम लेने का आभास था. अजित पवार के खिलाफ इडी के मुकदमों की तलवार पहले से लटक ही रही थी. कुछ अन्य लोगों के खिलाफ भी मामले थे. प्रफुल्ल पटेल का यह कहना बिल्कुल सही है, कि एनसीपी के भीतर बीजेपी को सहयोग देने के लिए बहुत दबाव था. बल्कि, प्रफुल्ल पटेल वर्ष 2013 से ही अंदरखाने बीजेपी से नजदीकी बढ़ाने की बात कर रहे थे. उनकी दलील थी कि नरेंद्र मोदी सत्ता में आयेंगे और पार्टी को उनके साथ रहना चाहिए. परंतु पार्टी में इसे लेकर सहमति नहीं बन सकी. इसलिए शरद पवार को अपनी पार्टी में इस तरह की स्थिति के उपजने का अंदाजा नहीं हो, यह संभव ही नहीं है.
एनसीपी की टूट में बीजेपी की भूमिका होने के भी कयास लग रहे हैं. मगर, यह दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले सप्ताह ही भोपाल में एक कार्यक्रम में अपने भाषण में जिन विपक्षी दलों पर आक्रामक तेवर में हमला किया उनमें एनसीपी भी शामिल थी. उन्होंने एनसीपी को खास तौर पर भ्रष्टाचार को लेकर घेरा था और घोटालों का जिक्र किया था. उन्होंने सिंचाई आदि मामलों के भ्रष्टाचार का जिक्र किया, जिसमें कथित तौर पर अजित पवार लिप्त बताये जाते हैं. ऐसे में एक सप्ताह बाद ही अजित पवार और उनके समर्थकों को साथ लाना ना तो प्रधानमंत्री की छवि के लिए, और ना ही बीजेपी की छवि के लिए अच्छा कहा जा सकता है.
इस घटना से एक ओर गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का गुट बहुत असहज हो गया है. दूसरी ओर, देवेंद्र फडणवीस अब अकेले उपमुख्यमंत्री नहीं रहे, उन्हें अजित पवार के साथ यह पद साझा करना पड़ रहा है. ऐसे में अजित पवार के सरकार में शामिल होने से, बीजेपी के लिए एक उथल-पुथल की स्थिति बन गयी है. महाराष्ट्र में अभी कोई राजनीतिक संकट की स्थिति नहीं थी. कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि शिवसेना के 15 विधायकों के मामले को लेकर शिंदे की सदस्यता पर आंच आने वाली थी. मगर, इस बारे में निर्णय तो विधानसभा अध्यक्ष को करना है और वह बीजेपी के विधायक हैं. तो इस बात की संभावना कम ही लगती है कि स्पीकर के सामने जल्दी कोई फैसला करने की मजबूरी थी.
दरअसल, एनसीपी में फूट के कारण कुछ और थे. मुझे लगता है दो ऐसी घटनाएं हुई हैं जिन्होंने इस महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम को निर्धारित किया है. पहला यह कि बीजेपी की ओर से पिछले कई हफ्तों से यह दबाव था कि पूरी एनसीपी उनके खेमे में आ जाए. यानी, शरद पवार को पता था कि अजित पवार बाहर जायेंगे. लेकिन, उन्हें पार्टी में उत्तराधिकारी की स्थिति स्पष्ट करनी थी. उन्होंने पार्टी में दो कार्यकारी अध्यक्षों के बनाने का जो एलान किया, वह अजित पवार को उकसाने वाला कदम था. उन्होंने सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया.
प्रफुल्ल पटेल का रवैया पहले से स्पष्ट था कि वह अजित पवार के साथ बीजेपी के पाले में जाना चाहते हैं. वहीं अजित पवार की दिलचस्पी महाराष्ट्र में ज्यादा है. राष्ट्रीय राजनीति में एनसीपी की कोई दिलचस्पी नहीं है, ना ही उसकी वहां कोई प्रासंगिकता है. अजित पवार को जिम्मेदारी नहीं देना एक उकसाने वाला कदम था. यहां सवाल उठता है कि क्या शरद पवार ने यह जान-बूझकर किया, ताकि अजित पवार यदि जाना चाहते हैं तो जल्दी जाएं और एनसीपी में सुप्रिया सुले के लिए रास्ता साफ हो जाए, और यह उनके रहते हुए हो जाए. शरद पवार के बाद यदि उत्तराधिकार का संघर्ष होता तो अजित पवार के मुकाबले सुप्रिया सुले का पलड़ा कमजोर बैठता. तो मुझे लगता है कि शरद पवार ने शायद एक दांव खेला है ताकि उत्तराधिकार की स्थिति स्पष्ट हो जाए.
दूसरी घटना पटना में पिछले महीने हुई विपक्ष की बैठक से जुड़ी है. आगामी लोक सभा चुनाव में बीजेपी को घेरने के इरादे से हुई इस बैठक में ऐसी संभावना बनने लगी कि शरद पवार सूत्रधार की भूमिका निभायेंगे. नीतीश कुमार जरूर पहल कर रहे हैं, मगर राहुल गांधी के 2024 की प्रधानमंत्री की रेस से खुद को बाहर कर देने के बाद, शरद पवार सबसे सर्वमान्य नेता होते. वह तेलंगाना में केसीआर से या आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी से या ओडिशा में नवीन पटनायक जैसे विपक्षी नेताओं से आसानी से संवाद कर सकते हैं. ऐसे में हो सकता है कि विपक्षी एकता को कमजोर करने के इरादे से भी एनसीपी में इस मौके पर तोड़-फोड़ की कोशिश की गयी हो, और इसे बीजेपी के नेतृत्व से झंडी मिली हो.
इस कदम से विपक्ष की एकता को गहरा धक्का तो अवश्य लगा है. सीटों के हिसाब से दूसरे बड़े प्रदेश महाराष्ट्र में विपक्ष मुश्किल में दिख रहा है. फिर उससे शरद पवार की वह स्थिति कमजोर हो गयी है जिसने वर्ष 2019 के चुनाव में महाराष्ट्र विकास अघाड़ी का गठन करवाया था. ऐसे में संकेत स्पष्ट हैं. फिलहाल लड़ाई खुलकर सामने आ गयी है. अब बहुत कुछ महाराष्ट्र की जनता पर निर्भर करता है. वर्ष 2019 के चुनाव में शरद पवार की अलग छवि बनी और लोगों ने देखा, कि कैसे एक बूढ़ा शख्स स्वस्थ नहीं रहते हुए भी सारे प्रदेश में घूम रहा है. कोविड के दौर में भी शरद पवार ने जनसंपर्क बंद नहीं किया. कुछ समय पहले तक महाराष्ट्र में ऐसी चर्चा थी कि यदि आज चुनाव हों तो शरद पवार और सहयोगियों की जीत की संभावना ज्यादा है. अब उस पर सवालिया निशान लग गया है. देखना यह है कि महाराष्ट्र की जनता शरद पवार के साथ सहानुभूति दिखाती है या उन्हें बीता हुआ वक्त मान लेती है.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)