चुनावी तैयारियों में ‘इंडिया’ गठबंधन की सुस्त चाल
कई राज्यों में एनडीए को पिछली बार 50 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट मिला था. ऐसे में ‘इंडिया’ की चुनावी तैयारियों की सुस्त चाल उसके घटक दलों की नीति और नीयत दोनों पर ही सवालिया निशान लगाती है, क्योंकि हर सीट पर साझा उम्मीदवार उतारे बिना एनडीए का मुकाबला मुमकिन नहीं लगता.
यह सच है कि हर चुनाव अलग होता है, पर वह लड़ना तो पड़ता है. सच यह भी है कि हर चुनाव के लिए अलग रणनीति बनानी पड़ती है. ऐसे में लोकसभा चुनाव के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष की चुनावी रणनीति और तैयारियों पर निगाह डालें, तो विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन एनडीए के विरुद्ध फिलहाल कहीं टिकता नजर नहीं आता. बेशक बैठकें ‘इंडिया’ की ज्यादा हुई हैं, पर कोई ठोस परिणाम अभी तक नजर नहीं आया. ‘इंडिया’ गठबंधन में अनबन की चर्चाएं अक्सर चलती रहती हैं, जिनकी सच्चाई का दावा अगर नहीं किया जा सकता, तो बहुत विश्वसनीय खंडन भी नहीं किया जाता. अभी तक ‘इंडिया’ न तो संयोजक का नाम तय कर पाया है, न ही किसी भी राज्य में सीटों के बंटवारे को अंतिम रूप दे पाया है. अगर घटक दलों के नेता वर्चुअल मीटिंग तक के लिए समय नहीं निकाल पाते, तब गठबंधन के प्रति उनकी गंभीरता पर सवाल उठेंगे ही. अभी तक सपा और रालोद के बीच उत्तर प्रदेश में सीट बंटवारे का ही विवरण सामने आया है. हालांकि सीटों और उनकी संख्या में कुछ फेरबदल अंतिम समय तक संभव है, लेकिन कम से कम इतनी जानकारी सार्वजनिक हुए बिना सकारात्मक चर्चा और सही दिशा में आगे बढ़ने जैसे राजनीतिक जुमलों का जनता तो दूर, कार्यकर्ताओं पर भी कोई असर नहीं होता.
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव में जीत के बाद भाजपा ने तीन दिसंबर, 2023 को ‘400 पार’ और मोदी सरकार की ‘हैट्रिक’ का नारा दिया. जमीनी राजनीतिक समीकरणों में वह लक्ष्य आसान नहीं लगता, पर भाजपा उसे हासिल करने की दिशा में जुट अवश्य गयी है. दक्षिण भारत भाजपा की राजनीति की सबसे कमजोर कड़ी है. वहां की 131 लोकसभा सीटों में से 2019 में भाजपा सिर्फ 29 ही जीत पायी थी, यानी कांग्रेस से केवल एक ज्यादा. फिर कांग्रेस ने भाजपा से दक्षिण भारत में उसके एकमात्र दुर्ग कर्नाटक की सत्ता भी छीन ली, जहां से पिछली बार भाजपा 24 लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही थी. कांग्रेस तेलंगाना में भी सरकार बनाने में सफल हो गयी, जहां भाजपा ने पिछली बार चार सीटें जीती थीं. जाहिर है, पिछले लोकसभा चुनाव में अपने दम पर 303 सीटें जीतनेवाली भाजपा के 400 पार के लक्ष्य की राह में चुनौतियां अपार हैं. फिर भी खुद प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह दक्षिण भारत को मिशन बना कर जुट गये हैं, वह किसी भी दल और नेता के लिए मिसाल है. अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा उत्तर भारत में हुई, पर उससे बने माहौल का लाभ उठाने के लिए ही सही, मोदी ने 11 दिन के विशेष अनुष्ठान के दौरान मंदिर-मंदिर पूजा-अर्चना कर दक्षिण और पश्चिम भारत की भी परिक्रमा कर ली. इस दौरान उन्होंने बड़ी-बड़ी परियोजनाओं की सौगात भी दी. दूसरी ओर विपक्षी गठबंधन अभी तक संयोजक और सीटों के बंटवारे पर ही अटका है, साझा न्यूनतम कार्यक्रम और संयुक्त चुनाव प्रचार की रणनीति तो दूर की बात है.
कांग्रेस विपक्षी गठबंधन का सबसे बड़ा घटक दल है, पर उसके सबसे बड़े नेता राहुल गांधी की प्राथमिकता भारत जोड़ो न्याय यात्रा है. राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे गठबंधन से जुड़े मुद्दों पर अपेक्षित सक्रियता नहीं दिखा रहे. एनडीए और ‘इंडिया’ की चुनावी तैयारियों का यह अंतर तब और ज्यादा बड़ा नजर आता है, जब आप देखें कि एनडीए की सरकारें 16 राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में हैं, जबकि ‘इंडिया’ की मात्र सात राज्यों में. वैसे सातवें राज्य केरल में वाम मोर्चा की सरकार है और दावे से नहीं कहा जा सकता कि ममता बनर्जी के विरोध के चलते वाम दल ‘इंडिया’ गठबंधन में रह भी पायेंगे या नहीं. दिल्ली और पंजाब में सरकार वाली आम आदमी पार्टी के साथ भी कांग्रेस के गठबंधन को लेकर अभी तक असमंजस बना हुआ है. बिहार में तो जद(यू), राजद और कांग्रेस का महागठबंधन पुराना है, पर वहां भी सीटों का बंटवारा अभी नहीं हो पाया है. जिस भाजपा को चुनावी टक्कर देने के लिए विपक्ष के 28 दलों ने नया गठबंधन बनाया है, उसकी अकेले 12 राज्यों में सरकार है, जबकि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की अपनी सत्ता सिर्फ तीन राज्यों- हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना- तक सिमट गयी है. हिमाचल से मात्र चार लोकसभा सदस्य चुने जाते हैं और पिछले चुनाव में चारों सीटें भाजपा ने जीती थीं. कर्नाटक और तेलंगाना से क्रमश: 28 और 17 लोकसभा सदस्य चुने जाते हैं.
‘इंडिया’ शासित पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु से क्रमश: 42, 40 और 39 लोकसभा सदस्य चुने जाते हैं, पर यह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि लोकसभा की 543 सीटों में से आधी जिन राज्यों में हैं, वहां एनडीए की सरकारें हैं. कई राज्यों में एनडीए को पिछली बार 50 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट मिला था. ऐसे में ‘इंडिया’ की चुनावी तैयारियों की सुस्त चाल उसके घटक दलों की नीति और नीयत दोनों पर ही सवालिया निशान लगाती है, क्योंकि हर सीट पर साझा उम्मीदवार उतारे बिना एनडीए का मुकाबला मुमकिन नहीं लगता और सीट बंटवारे में हो रहा विलंब उसकी संभावनाओं को क्षीण ही कर रहा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)