वसंत ऋतु का आगमन वसंत पंचमी पर्व से होता है. वसंत उत्सव, आनंद और चेतना की ऋतु है. हिंदी साहित्य में यह ऋतुराज के रूप में प्रतिष्ठित है. धार्मिक, धर्मेतर और विदेशी साहित्य में भी रचनाकारों ने इसे सहज स्वीकारा है. वसंत को प्रकृति के सृजन चक्र का केंद्र मान सकते हैं, जहां जीवन अपनी जड़ता का त्याग करता है. नयी कोपलों का प्रस्फुटन होता है. वसंत का संभवतः पहला उल्लेख कालिका पुराण में मिलता है. शिव के मन में काम विकार पैदा करने के उद्देश्य से देवता काम को शिव के पास भेजना चाहते हैं. इसके लिए कामदेव ने साथी मांगा, तब ब्रह्मा ने वसंत का सृजन किया. वसंत पंचमी को काम के पुनर्जीवन का दिन माना गया है. गुप्त और गुप्तोत्तर काल तक वसंत पंचमी के दिन नृत्य-संगीत और कला की अधिष्ठात्री, विद्या की देवी सरस्वती के पूजन के साथ प्रारंभ होने वाला मदनोत्सव इसी से जुड़ा है. बाणभट्ट ने हर्षचरित और कादंबरी में मदनोत्सव का उल्लेख किया है. कामसूत्र में मदनोत्सव का नाम सुवसंतक मिलता है. कालिदास की मालविकाग्निमित्रम, दंडी की दशकुमारचरित और गोविंदानंद की वर्षक्रियाकौमुदी में भी मदनोत्सव वर्णित है. महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में लिखा है- ‘वसंते द्विगुने कामः’ अर्थात वसंत के समय काम का प्रभाव दोगुना बढ़ जाता है. लोक साहित्य में कहा गया है कि वसंत वृद्धों को भी जवान कर देता है. सल्तनत काल में मुख्य रूप से दो कवियों अमीर खुसरो और मलिक मुहम्मद जायसी का साहित्य वसंत में डूबा हुआ है. जायसी का नागमती विरह वसंत से लिपटा हुआ है. विरह से तप्त नागमती पशु-पक्षी, पेड़-पल्लव से अपना दुख साझा करती है. खुसरो खुद तो बासंतिक हुए ही थे, अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया को भी इसका अहसास कराया था. तब खानकाहों में भी वसंत के गीत गाये जाते थे. रुसी साहित्यकार लियो टालस्टाय ने करीब-करीब अपनी हर रचना में वसंत का उल्लेख किया है. आधुनिक साहित्यकारों ने भी अपनी सौंदर्य-चेतना के प्रस्फुटन के लिए प्रकृति की ही शरण ली है. शस्य श्यामला धरती में सरसों का स्वर्णिम सौंदर्य, कोकिल के मधुर गुंजन से झूमती सघन अमराइयों में गुनगुनाते भौरों पर थिरकती सूर्य की रश्मियां, कामदेव की ऋतुराज ‘वसंत’ का सजीव रूप कवियों की उदात्त कल्पना से मुखरित हो उठता है. उपनिषद, पुराण-महाभारत, रामायण (संस्कृत) के अतिरिक्त हिंदी, प्राकृत, अपभ्रंश की काव्य धारा में भी वसंत का रस व्याप्त रहा है. अथर्ववेद के पृथ्वीसूत्र में भी वसंत का वर्णन मिलता है. महर्षि वाल्मीकि ने भी वसंत का खूब उल्लेख किया है. किष्किंधा कांड में उल्लेख मिलता है- ‘अयं वसन्तः सौ मित्रे नाना विहग नन्दिता.’
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध ‘वसंत आ गया है’ में वसंत का विस्तार है. रबींद्रनाथ टैगोर ने वसंत पर लिखा है- ‘मैं तो आज पेड़-पौधों के साथ अपनी पुरानी आत्मीयता स्वीकार करूंगा. आज मैं किसी तरह न मानूंगा कि व्यस्त होकर काम करते घूमना ही जीवन की अद्वितीय सार्थकता है. आज हमारी उसी युग-युगांतर की बड़ी दीदी वन-लक्ष्मी के घर भैया-दूज का निमंत्रण है. वहां पर आज तरु-लता से बिल्कुल घर के आदमी की तरह मिलना होगा, आज छाया में लेटकर सारा दिन कटेगा, मिट्टी को आज दोनों हाथ से बिखेरूंगा-समेटूंगा, वसंती हवा जब बहेगी, तब उसके आनंद को मैं अपने हृदय की पसलियों में अनायास हू-हू करके बहने दूंगा.’ वसंत हमारी चेतना को खोलता है, पकाता है और रंग भरता है. नवागंतुक कोपलें हर्ष और उल्लास का वातावरण बिखेरकर चहुंदिश एक सुहावना समा बांध देती हैं. श्रीमद्भगवद्गीता गीता के दसवें अध्याय के पैंतीसवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- ‘जो ऋतुओं में कुसुमाकर अर्थात वसंत है, वह मैं ही तो हूं.’ यही कुसुमाकर तो प्रिय विषय है सृजन का. यही कुसुमाकर मौसम है कुसुम दल के पल्लवित होने का. अमराइयों में मंजरियों के रससिक्त होकर महकने और मधुमय पराग लिये उड़ते भौरों के गुनगुना उठने की ऋतु है वसंत.
प्रकृति के शृंगार की ऋतु वसंत तो सृजन का आधार है. सृष्टि के दर्शन का सिद्धांत बनकर कुसुमाकर ही स्थापित होता है. कालिदास ने वसंत के वर्णन के बिना अपनी किसी भी रचना को नहीं छोड़ा है. मेघदूत में यक्षप्रिया के पदों के आघात से फूट उठने वाले अशोक और मुख मदिरा से खिलने वाले वकुल के द्वारा कवि वसंत का स्मरण करता है. जयशंकर प्रसाद तो वसंत से सवाल ही पूछ लेते हैं- ‘रे वसंत रस भने कौन मंत्र पढ़ि दीने तूने.’ इसी प्रकार से महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘ध्वनि’ शीर्षक नामक कविता में वसंत का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘अभी अभी ही तो आया है, मेरे जीवन में मृदुल वसंत, अभी न होगा मेरा अंत.’ वसंत का यह मौसम कवियों से लेकर विद्वानों और ग्रामीणों तक सभी को आनंदित करता रहा है. आज के हमारे समय में पेड़ों की कटाई और शहरी जीवन में बसने की होड़ ने पर्यावरण को बहुत अधिक प्रभावित किया है. वसंत ही नहीं, धरती ही संकट में है. फिर भी आज के कवि इस वसंत से बच नहीं पाये हैं. प्रकृति को संरक्षित करने और संवारने की जरूरत है. हमेशा प्रकृति पर विजय पाने की चाहत निश्चित रूप से घातक साबित हो सकती है. लिहाजा हम सभी को प्रकृति एवं जीव जगत के प्रति सचेत रहना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)