अंतरिम बजट के लिए कुछ सुझाव

बजट भाषण में नियमित खर्चों के साथ-साथ उन्हीं मदों का उल्लेख होगा, जिन्हें टाला नहीं जा सकता है. इसमें उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर राजस्व के अनुमान भी होंगे. हमें बड़े सुधारों या कल्याण कार्यक्रमों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए.

By अजीत रानाडे | January 26, 2024 3:41 AM
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एक फरवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा वित्त वर्ष 2024-25 के लिए केंद्रीय बजट प्रस्तुत किया जायेगा, जो एक अप्रैल, 2024 से 31 मार्च, 2025 तक की अवधि के लिए होगा. चूंकि कुछ समय बाद लोकसभा चुनाव होने हैं, इसलिए वित्त मंत्री केवल अंतरिम बजट प्रस्तुत करेंगी. इसका अर्थ यह है कि वर्तमान सरकार ऐसी बड़ी घोषणाएं नहीं कर सकती है, जिनसे उसे चुनाव में फायदा मिले. सरकार नये बड़े खर्चों को भी प्रस्तावित नहीं कर सकती है, जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी अगली सरकार की होगी. ऐसे में बजट भाषण में नियमित खर्चों के साथ-साथ उन्हीं मदों का उल्लेख होगा, जिन्हें टाला नहीं जा सकता है. इसमें उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर राजस्व के अनुमान भी होंगे. हमें बड़े सुधारों या कल्याण कार्यक्रमों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. फिर भी यह नहीं भूला जा सकता है कि यह बजट जल्दी ही तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाले राष्ट्र के समक्ष एक वार्षिक प्रस्तुति है. बजट प्रस्तावों में चुनावी रूप से लोकलुभावन तथा अगली सरकार के बड़ी बोझ बन सकने वाली घोषणाओं से बचते हुए भी ऐसी घोषणाएं हो सकती हैं और होनी भी चाहिए, जो सुधार प्रक्रिया को आगे ले जाएं. इस सुधार प्रक्रिया की निरंतरता को हम बीते 34 वर्षों से देख रहे हैं. इसलिए अंतरिम बजट के लिए कुछ सुझाव प्रस्तावित हैं.

पहला बिंदु आयकर छूट के संबंध में है. आयकर चुकाने की बात तब आती है, जब आपकी न्यूनतम वार्षिक आय 7.5 लाख रुपये से अधिक है. यह आय देश की प्रति व्यक्ति आय का 300 प्रतिशत है. प्रति व्यक्ति आय देश के हर पुरुष, महिला और बच्चे की औसत कमाई होती है. दुनिया के किसी भी देश में इतने उच्च स्तर की आयकर छूट की सीमा नहीं है. इसलिए वित्त मंत्री को इस न्यूनतम सीमा को और आगे बढ़ाने से परहेज करना चाहिए. छूट सीमा के इतना अधिक होने की वजह से भारत में आयकर और सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का अनुपात बहुत कम है. इसका यह भी मतलब है कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसे अप्रत्यक्ष करों से राजस्व जुटाने का बोझ अधिक है. अप्रत्यक्ष कर न्यायपूर्ण नहीं होते. अमीर हो या गरीब, सभी जीएसटी देते हैं और इसका बहुत अधिक बोझ गरीब पर पड़ता है. हमें जीएसटी की माध्यिका दर को 18 प्रतिशत से 12 प्रतिशत करना चाहिए. और यह तभी हो सकता है, जब हम आयकर जैसे प्रत्यक्ष करों से अधिक संग्रहण करें. साढ़े सात लाख रुपये तक की आयकर छूट सीमा भी भ्रामक है क्योंकि जब आपकी आमदनी 15 लाख रुपये से अधिक होती है, तब आपको लगभग 42 प्रतिशत के उच्चतम सीमांत दर के हिसाब से आयकर देना पड़ता है. इसका मतलब यह है कि केवल 7.5 लाख रुपये में ही हमारी सीमांत कर दर शून्य से 42 पहुंच जाती है. एक बेहतर संरचना ऐसी हो सकती है- ढाई लाख रुपये तक की कमाई पर शून्य कर, ढाई से 7.5 लाख तक पर 10 प्रतिशत, 7.5 से 25 लाख तक पर 20 प्रतिशत, 25 से 50 लाख तक पर 30 प्रतिशत तथा 50 लाख से ऊपर आय पर और अधिक दर. इससे हमारा संग्रहण बढ़ सकता है.

दूसरा सुझाव राजकोषीय समेकन के बारे में है. वित्तीय घाटा जीडीपी का लगभग पांच से छह प्रतिशत है. इससे कर्ज बोझ बढ़ता जाता है, जो अभी जीडीपी का 82 प्रतिशत है. सरकार द्वारा भारी कर्ज लेने के कारण दूसरों के लिए कर्ज हासिल करने की गुंजाइश कम हो जाती है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि अगर नियंत्रण नहीं हुआ, तो भारत का कर्ज भार जीडीपी का 100 प्रतिशत हो जायेगा. जमैका का उदाहरण हमारे सामने है, जिसने बीते 15 वर्षों में जीडीपी के अनुपात में अपने कर्ज भार को 140 से घटाकर 72 प्रतिशत यानी आधा कर लिया है. जैसा कि वित्तीय उत्तरदायित्व को लेकर गठित हुईं विभिन्न समितियों ने सुझाव दिया है, भारत निश्चित रूप से अपने कर्ज भार को 82 से घटाकर 60 प्रतिशत कर सकता है. साठ प्रतिशत के इस लक्ष्य में केंद्र का हिस्सा 40 और राज्यों का हिस्सा 20 है. ऐसा होने के लिए वित्तीय घाटे को नियंत्रित रखना होगा. पुरानी पेंशन योजना जैसी लोकलुभावन मांगों के सामने समर्पण करना वित्तीय रूप से विनाशकारी होगा और श्रमबल के बहुत बड़े हिस्से के लिए प्रति अनुचित होगा, जिसके पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है.

तीसरा सुझाव किसानों की आमदनी के बारे में है, जिसे 2022 या 2023 में दुगुना होना था. पर ऐसा नहीं हुआ. इसकी एक वजह यह रही कि कृषि उत्पादों के दाम को बढ़ने नहीं दिया गया. जब भी चीनी, चावल या प्याज जैसी चीजों के मूल्य बढ़े, तो केंद्र सरकार ने उनके निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया. ऐसे में किसान कुछ अच्छा मुनाफा बनाने से चूक जाते हैं. खाद्य पदार्थों पर सरकार की पाबंदी इस चिंता की वजह से है कि कहीं शहरी लोग नाराज न हो जाएं. शहरी उपभोक्ता को महंगाई से होने वाला दर्द उन किसानों के दर्द से अधिक महत्वपूर्ण है, जो निर्यात के लाभ से वंचित रह जाते हैं. ऐसी ही स्थिति दूध के दाम के साथ है, जिसे बहुत अधिक नियंत्रित रखा गया है. बजट में कृषि नीतियों में शहरी पक्षपात का संज्ञान लिया जाना चाहिए और निर्यात पाबंदी जैसी प्रतिक्रियाओं से किनारा करना चाहिए. बजट कृषि उत्पादों के अग्रिम बाजार को भी प्रोत्साहित कर सकता है.

चौथा सुझाव शिक्षा क्षेत्र से जुड़ा है, जहां बड़े निवेश की दरकार है ताकि शोध बढ़े, शिक्षकों की नियुक्तियां हों, सीटें बढ़ें और छात्रवृत्ति बढ़े. यह सब अकेले सरकारी आवंटन से नहीं होगा. निजी निवेश बढ़ाने के लिए उच्च शिक्षा के संस्थानों को विदेशी निवेश लाने की पूरी छूट दी जा सकती है. यदि हम रक्षा समेत हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का स्वागत करते हैं, तो फिर शिक्षा में विदेशी निवेश को लेकर इतना अधिक नियमन क्यों है? क्या संबंधित नियम-कानून को शिक्षा संस्थानों के लिए बहुत उदार बनाया जा सकता है? इस पर विचार होना चाहिए तथा यह वित्त मंत्री के प्रस्तावों का हिस्सा हो सकता है. एक फरवरी को लोकसभा में पेश होने वाले बजट में इन विचारों को रखा जाना चाहिए. बजट का आकार राष्ट्रीय जीडीपी (नॉमिनल रुपये में) का लगभग 15 प्रतिशत होता है. यह अगली लोकसभा के गठन से ठीक पहले पेश किया जा रहा है, जिसे जनगणना और परिसीमन जैसे बड़ी पहलों का निरीक्षण करना है. बजट को सुधार प्रक्रिया की निरंतरता तथा वित्तीय समेकन की दिशा में राह को इंगित करना चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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