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फिल्म : सूरज पर मंगल भारी
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निर्देशक : अभिषेक शर्मा
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कलाकार : मनोज बाजपेयी, दिलजीत दोसांझ, फातिमा सना शेख, मनोज पाहवा,सीमा पाहवा,अनु कपूर,सुप्रिया पिलगांवकर और अन्य
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रेटिंग : ढाई
लॉकडाउन के बाद थिएटर में रिलीज होने वाली यह पहली फ़िल्म है।इसके लिए इस फ़िल्म के मेकर्स बधाई के पात्र हैं. जो उन्होंने यह फैसला लिया।थिएटर्स इंडस्ट्री को अभी ऐसे फैसलों की ज़रूरत है. जब कोरोना काल में एहतियाद के साथ सबकुछ शुरू हो गए हैं तो थिएटर्स क्यों नहीं. फिलहाल फिल्म पर आते हैं. तेरे बिन लादेन जैसी व्यंगात्मक कॉमेडी फिल्म बनाने वाले अभिषेक शर्मा की सूरज पर मंगल भारी तेरे बिन लादेन के सामने हल्की है. इस बार अभिषेक ने हास्य में व्यंग का तड़का नहीं लगाया है. उन्होंने सिर्फ हास्य से काम चलाया है. कुलमिलाकर यह हल्की फुल्की औसत मनोरंजक फिल्म है. जो पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है ।जो ओटीटी में पिछले कुछ महीनों से संभव नहीं हो पा रहा था.
फिल्म की कहानी 95 के दशक पर आधारित है. बैकड्रॉप मुम्बई है। उस साल ही बम्बई से मुम्बई बनी थी ।फ़िल्म के एक दृश्य में इसे दर्शाया भी गया है.
यह कहानी शादी के डिटेक्टिव मधु मंगल राणे( मनोज बाजपेयी) की है। मैरिज डिटेक्टिव बोले तो लड़की वाले रिश्ता करने से पहले उसके पास जाकर खोज खबर निकालते हैं और मंगल हमेशा लड़कों की बुराइयां उनके सामने रख देता है।जिससे रिश्ते टूट जाते हैं। लड़कों में हमेशा मंगल को बुराई ही दिखती है।इसके पीछे मंगल का एक अतीत है.
उस अतीत में नहीं जाते हैं. सूरज ( दिलजीत दोसांज) पर आते हैं। वह एक एलिजिबल बैचलर है लेकिन मंगल की वजह से सूरज का भी रिश्ता टूट जाता है तो वह मंगल को सबक सीखाने का फैसला करता है। इसके लिए वह मंगल की बहन तुलसी( फातिमा) के साथ शादी करने की प्लानिंग करता है।क्या सूरज के लिए यह आसान रहेगा या मंगल फिर उसपर भारी पड़ेगा. यही फिल्म की आगे की कहानी है. पूरी फिल्म को हल्के फुल्के अंदाज़ में ढेर सारी कॉमेडी पंचेस और कलाकारों के उम्दा अभिनय के साथ कहा गया है. जिस वजह से फ़िल्म एंगेज करती है लेकिन स्क्रीनप्ले की खामियों की वजह से यह उस स्तर की फिल्म नहीं बन पायी है।जैसी बन सकती थी.
फिल्म का स्क्रीनप्ले कमज़ोर है. किरदारों को ठीक तरह से स्थापित नहीं किया गया है।दिलजीत का किरदार पहले सीन में पतिव्रता पत्नी जो किचन और बेडरूम तक सीमित रहे कि चाह रखता है फिर ऐसा क्या हो जाता है कि दिलजीत अचानक से तुलसी के डीजे बनने से लेकर घर का काम ना करने तक में उसका सपोर्ट करने लगता है। दिलजीत के माता पिता को आखिर तक मालूम नहीं पड़ता है कि उनका होने वाली बहु संगीत में साक्षात सरस्वती नहीं मैडोना है। मधु अचानक से क्यों सूरज को पसंद करने लगता है।यह बात भी कहानी प्रभावी ढंग से नहीं रख पायी है.
फिल्म की कहानी महाराष्ट्र और पंजाब के अनोखे तालमेल को दर्शाती है। जो अच्छा लगता है। फिल्म में आउटसाइडर शब्द का जिक्र तो हुआ है लेकिन उसे कहानी में पिरोया नहीं गया है जबकि 95 के दशक में बम्बई में यह एक ज्वलन्त मुद्दा था.
अभिनय की बात करें तो यह इस फ़िल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है. अभिनय के कई दिग्गज नाम इस फिल्म से जुड़े हैं. मनोज बाजपेयी फिल्म में कई अलग अलग किरदार को बखूबी अंजाम दिया है. मराठी टच लिए उनके संवाद उनके किरदार को निखारते हैं. दिलजीत दोसांज अपने अभिनय से लोगों को हंसाने में कामयाब रहे हैं. अनु कपूर बेहतरीन रहे हैं मराठी अंदाज़ वाले गाने को उन्होंने ना सिर्फ अपने अभिनय बल्कि अपनी आवाज़ से सजाया है.
सीमा पाहवा,मनोज पाहवा, सुप्रिया पिलगांवकर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं तो विजय राज अपनी छोटी से भूमिका में याद रह जाते हैं.
90 के दशक को फ़िल्म की कहानी में खूबसूरती से बुना गया है फिर चाहे पेजर का इस्तेमाल हो या कलाकारों और मुम्बई का लुक.
कुल मिलाकर यह हल्की फुल्की मनोरंजक फिल्म कलाकारों के उम्दा परफॉर्मेंस के लिए देखी जा सकती है. थिएटर में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए यह फिल्म पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है.