यह एक निर्विवाद तथ्य है कि महामानवों की जन्मभूमि भारतवर्ष में संन्यासी विवेकानंद आज भी एक रहस्य ही हैं. सभी जानना चाहते हैं कि 130 करोड़ लोगों का हमारा देश भारत विश्व-श्रेष्ठ बनने के लिए स्वामी विवेकानंद के दिखाये रास्ते पर दृढ़ कदमों से कैसे आगे बढ़ सकता है. बहुत से लोग यह जानना चाहते हैं कि किन-किन कठिन विषयों के संबंध में उन्होंने क्या- क्या कहा है.
सारी क्षुद्रता को हराकर हम कैसे जागृत हो सकते हैं. लगता है कि हमने संन्यासी विवेकानंद के कुछ प्रचलित आयामों में ही खुद को सीमित कर रखा है. 39 वर्ष के जीवन में उन्होंने जो असंख्य पत्र लिखे थे, उनमें से अधिकतर नहीं मिल सकते. जो भुक्तभोगी हैं, वे समय नष्ट नहीं करके विवेकानंद रचनावली में ही समुद्रमंथन करते हैं.
विदेश या स्वदेश में उन्होंने कहां क्या कहा था, यह जान लेते हैं. कहां किस पत्र में उन्होंने क्या मत दिया था, उसकी व्याख्या करते हैं. उसके बाद वह मेरी लुइस बर्क की तीन दशकों की साधना पर निगाह डालते हैं या अमेरिका के किस शहर में उन्होंने श्रोताओं से क्या कहा था और स्थानीय अखबारों में अगले दिन क्या छपी थी, वह जानते हैं. लेकिन, मुझे नहीं लगता कि समकालीन विख्यात या अनजाने अखबारों में ही सभी सत्य छपे हैं.
हालांकि, दो तथ्यों के संबंध में मेरा कौतूहल रह गया है. स्वामी विवेकानंद से प्रभावित ब्रिटिश नागरिक जेजे गुडविन ने स्वामीजी के विभिन्न मौकों पर दिये गये वक्तव्यों की आशुलिपि (शॉर्टहैंड -नोट) लिखी थी और एक प्रमुख शॉर्टहैंड बुक से वक्तव्यों को टाइप नहीं किया जा सका था. गुडविन के निधन के बाद उन्हें उनकी मां के पास भेज दिया गया था. लुप्त हो चुके इस तथ्य भंडार की खोज की कोशिश भगिनी निवेदिता ने एक बार की थी, पर नाकाम रहीं.
विवेकानंद के जो पत्र अब तक सामने नहीं आ पाये हैं, लगता है कि वे पत्र और मूल्यवान हैं. इसकी वजह यह है कि केवल वक्तव्यों से किसी इंसान की तलाश नहीं की जा सकती. पत्र उन्हें बहुत स्पष्ट कर देते हैं. इसके अलावा विवेकानंद जिन गुरुभाइयों पर निर्भर रहते थे, उनमें से कुछ दैनिक डायरी भी लिखते थे. लेकिन, इतने वर्षों बाद वह सहज उपलब्ध नहीं हैं. लेकिन, तथ्यों के अभाव के बावजूद हम 16 वर्षों तक घर से बाहर रहने वाले इंसान के बारे में इतना जानते हैं कि वही रहस्यमयी हैं. विस्मयकारी हैं.
इन 16 वर्षों में से अधिकांश समय वह भ्रमण करते रहे. किसी भी जगह दो-तीन दिन से अधिक नहीं रहे. जिन्होंने उन्हें आश्रय दिया, उन्होंने भी संन्यासी के व्यक्तिगत जीवन के संबंध में अधिक कौतूहल नहीं दिखाया. कहा जा सकता है कि स्वामीजी अपने संक्षिप्त जीवन में भारत के धनपतियों से आर्थिक सहायता नहीं ले सके थे. लेकिन, मानव मंगल के लिए उन्हें पैसों की विशेष जरूरत थी. इसी की खोज में वह अनजाने विदेश भी गये थे.
खेतड़ी के महाराज के साथ उनकी निकटता थी. उनके जहाज का टिकट उन्होंने ही अपग्रेड करके फर्स्ट क्लास का करवाया था. याकाहोमा से स्वामीजी कनाडियन पैसिफिक रूट के एमप्रेस ऑफ इंडिया नामक जहाज में सवार हुए थे. जहाज में दो भारतीय सहयात्री भी थे. एक जमशेदजी नौसेरवानजी टाटा और दूसरे लालूभाई. जहाज याकाहोमा से रवाना हुआ.
कनाडा के वैंकूवर से कई नदियों, नगर को पार करके विनिपेग होते हुए 3 जुलाई 1893 को रात 10:30 बजे वह शिकागो पहुंचे थे. जमशेदजी टाटा के साथ संन्यासी का परिचय कैसे हुआ? स्वामी चेतनानंद का अनुमान है कि स्वामीजी जब जापान के माचिस कारखाने को देखने गये, तब वहीं टाटा के साथ उनका परिचय हुआ. अन्य एक संन्यासी (स्वामी बलरामानंद) का अंदाजा है कि याकाहोमा के ओरियंटल होटल रेस्तरां में रहते वक्त उनका परिचय हुआ होगा.
यह परिचय याकाहोमा-वैंकूवर की 12 दिन की जहाजयात्रा में और भी प्रगाढ़ हुआ. बड़े भाई महेंद्रनाथ ने स्वामीजी के पत्र का उल्लेख करते हुए लिखा है कि विवेकानंद ने टाटा से कहा था, ‘जापान से माचिस लेकर देश में बेचकर जापान को पैसे क्यों दे रहे हैं? इससे बेहतर देश में माचिस का कारखाना लगाने पर आपको भी लाभ होगा एवं 10 और लोगों को काम मिलेगा तथा देश का पैसा देश में ही रहेगा.’
बाद में टाटा स्टील व इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की स्थापना हुई थी. जिस पत्र को लेकर आज भी जिज्ञासा है, उसे जमशेदजी ने 23 नवंबर 1898 को लिखा था. उन्होंने लिखा, ‘मुझे विश्वास है कि आपने जापान से शिकागो के रास्ते में जहाज के सहयात्री के तौर पर मुझे याद रखा होगा. भारत में वैज्ञानिक शोध केंद्र स्थापित करने के संबंध में मेरी योजना के बारे में आपने जरूर सुना या पढ़ा होगा. इस संबंध में आपके विचार मैं याद करता हूं.’
उक्त जहाज में जेएन टाटा के अलावा एक और बड़े कारोबारी छबीलदास लालूभाई और उनके बैरिस्टर पुत्र रामदास भी यात्रा कर रहे थे. छबीलदास समुद्रगामी जहाज के अलावा कई कारखानों के मालिक व मुंबई में कई अट्टालिकाओं के स्वामी थे. सामान्य स्थिति से वह सुपरिचित धनपति हुए थे और शेष जीवन में अपनी वसीयत में काफी पैसे अस्पतालों, सैनेटोरियम, दरिद्र निवास, स्कूल-कॉलेज की स्थापना के लिए छोड़कर गये थे.
स्वामीजी ने अमेरिका से अलसिंगा को लिखा था कि लालूभाई बोस्टन तक मेरे साथ थे. उन्होंने मेरे प्रति काफी सहृदय व्यवहार किया था. अमेरिका के बड़े कारोबारियों के साथ स्वामीजी के परिचय के संबंध में काफी कुछ लिखा गया है. शिकागो में वह जिनके अतिथि थे, उनका नाम ईपी फेल्प्स था. वह मिड वेस्ट में जूते की विख्यात कंपनी के मालिक व अमेरिका के राष्ट्रपति ग्रोवर क्लीवलैंड के दोस्त थे.
शिकागो धर्मसभा के दौरान विवेकानंद एक अन्य उद्योगपति जॉन बेकन के मेहमान बने. वह विख्यात ग्रेन डीलर थे. स्वामीजी के विशेष भक्त फ्रांसिस लेगेट भी एक बड़े कारोबारी थे. वह देश के वृहत्तम ग्रॉसरी चेन के स्थापक थे. वाशिंगटन ट्रस्ट कंपनी के निदेशक भी थे. दोनों में इतनी घनिष्ठता थी कि संन्यासी विवेकानंद उनके विवाह में बाराती के तौर पर पेरिस जाने से खुद को नहीं रोक पाये थे. लेगेट कहते थे कि जीवन में जितने लोगों को उन्होंने देखा है, उनमें विवेकानंद ग्रेटेस्ट हैं.
विश्वविख्यात गुडइयर टायर कंपनी के संस्थापक चार्ल्स गुडइयर के नाती वाल्टर गुडइयर के साथ स्वामीजी का गहरा संबंध था. वर्ष 1918 में वाल्टर न्यूयॉर्क में वेदांत सोसाइटी के अध्यक्ष बने. स्वामीजी के एक और बड़े भक्त विख्यात वैज्ञानिक व आविष्कारक निकोला टेस्ला थे. टेस्ला ने थॉमस अल्वा एडिसन के साथ भी काम किया था. एडिसन के द्वारा आविष्कृत उपकरण में स्वामीजी की आवाज रिकॉर्ड हुई थी और उस आवाज को उन्होंने स्वदेश में कुछ लोगों को उपहार भेजा था. लेकिन, वह आवाज आज खोजे नहीं मिलती.
एडिसन के साथ रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों का संपर्क आज भी कौतूहल का कारण है. अमेरिका में विवेकानंद के दूसरे व तीसरे गुरुभाई स्वामी सारदानंद और स्वामी अभेदानंद ने एडिसन के साथ मुलाकात की थी. विद्युत के संबंध में स्वामीजी की काफी रुचि थी. ऑस्टिन कार्बिन की पार्टी में एक विख्यात आविष्कारक के साथ उनकी मुलाकात हुई थी. उनका नाम पीटर कूपर ह्यूइट था. वह मरकरी लैंप के आविष्कारक थे.
अन्य एक आविष्कारक सर हीरम मैक्सिम ने शिकागो धर्म सम्मलेन में स्वामीजी का भाषण सुना था और मंत्रमुग्ध हो गये थे. वह उन्नत तोप के आविष्कारक थे. महारानी विक्टोरिया ने उन्हें सर की उपाधि दी थी. कई अन्य आविष्कारों के लिए भी वह जाने जाते हैं, जिनमें लोकोमोटिव हेडलाइट, ग्रेफाइट रॉड लाइट-बल्ब, ऑटोमैटिक फायर एक्सटिंग्विशर आदि हैं.
विदेश में स्वामीजी ने कितना वक्त बिताया, उस पर नजर डालें, तो पता चलता है कि न्यूयॉर्क में 344 दिन, इसके बाद लंदन, शिकागो, नॉर्थ कैलिफोर्निया, रिजली मैनर, पैसाडेना, बोस्टन कैंब्रिज, पेरिस, थाइजेंड आइलैंड पार्क व डेट्रॉयट के नाम आते हैं. इन सभी क्षेत्रों में विश्वविख्यात बिजनेसमैन के साथ उनका संपर्क हुआ था. पता चलता है कि विश्वप्रसिद्ध बिजनेसमैन रॉकफेलर के साथ भी उनकी मुलाकात हुई थी. रॉकफेलर द्वारा दान देने की शुरुआत के पीछे संन्यासी का नि:शब्द योगदान था. स्वदेश में बड़े बिजनेसमैन के साथ स्वामीजी का संबंध तुलनात्मक रूप से कम था.
(लेखक शंकर बेलूड़ मठ के संन्यासी हैं)
Posted By : Mithilesh Jha