टिकट खिड़की पर 200 करोड़ की कमाई कर चुकी फ़िल्म द कश्मीर फाइल्स जल्द ही 300 करोड़ के जादुई आंकड़े को भी छू सकती है. ऐसी चर्चा इनदिनों आम है. फ़िल्म के राइटर और रिसर्चर सौरभ एम पांडे से हुई बातचीत के प्रमुख अंश…
फ़िल्म की इस जबरदस्त कामयाबी का श्रेय किसको देना चाहेंगे
पब्लिक बहुत सपोर्टिव है.जो इतना प्यार दे रही है. फ़िल्म की कामयाबी का पहला क्रेडिट दर्शकों को क जाता है.दूसरा क्रेडिट विवेक सर को, जो उन्होंने इस तरह की फ़िल्म बनायी.उन्होंने बहुत ही नेक नीयत से यह फ़िल्म बनायी . 32 साल तक जो बात लोगों को नहीं बतायी गयी थी .जो सच लोगों से छिपाया गया था.यह फ़िल्म उसे सामने ले आती है.
फ़िल्म से किस तरह से जुड़ना हुआ और सबसे क्या खास बात आपको लगी
द ताशकंद फ़ाइल के दौरान में स्क्रिप्ट सुपरवाइजर और रिसर्चर था. विवेक सर को मेरा काम पसंद आया था यही वजह है कि उस फिल्म के बाद विवेक सर ने मुझे कश्मीर फाइल्स का आईडिया बताया कि कुछ ऐसा सोच रहा हूं. कश्मीर में जो नरसंहार हुआ है.मुझे वो दिखाना है. इसे सिनेमा की तरह सोचना भी मत क्योंकि ये लोगों का दर्द है.वो मेरे लिए अपने आप में बहुत बड़ी चीज थी. मुझे समझ आ गया था कि अगर मैं इस फ़िल्म से नहीं जुड़ा तो आगे चलकर मुझे अफसोस होगा इसलिए नहीं कि एक फ़िल्म मेरे हाथ से निकल गयी बल्कि इसलिए कि मैं भी इस देश का नागरिक हूं.मेरी भी इस देश के प्रति कुछ जिम्मेदारी बनती है.मुझे खुशी हुई कि मैं भी कुछ योगदान दे पाया.
सबसे मुश्किल हिस्सा क्या था
जो इस त्रासदी को जी चुके हैं.उनका इंटरव्यू लेना.जिससे उस पल को उन्होंने दुबारा जिया और उनके साथ हमने भी. दो साल इस पूरे इसके रिसर्च प्रोसेस में बीता.जब आप इस तरह की कहानियां सुनते हैं तो आप परेशान होते हैं.आपको खीझ आती है.गुस्सा भी आता है. ऐसे में मैं पल्लवी मैम से मिलता था.उनसे बात करता था.वो मुझे मोटिवेट करती थी.
एक लेखक के तौर पर इस फ़िल्म ने आपको क्या खास बात सिखायी
मुझे लगता है कि जब आप किसी कहानी को ईमानदारी से दिखाओगे तो जो न्याय अब तक नहीं मिल पाया है .वो भी मिल सकता है.अभी तो मेरे करियर की शुरुआत हुई है.चार पांच साल ही हुए हैं हां आगे के लिए रास्ते खुल गए हैं.
फ़िल्म को लेकर ऐसी बात भी सामने आ रही है कि फ़िल्म ने एक पूरे समुदाय को कटघरे में खड़ा कर दिया है
जो मुझे ब्रीफ दिया गया और उसके बाद जो कहानी मैंने लिखी और परदे पर उसे देखने के बाद अपनी क्षमता के अनुसार यही कहूंगा कि यह फ़िल्म दर्द के ऊपर है.आंतकवाद के खिलाफ है. इंसानियत की बात है.हर इंसान को जीने का अधिकार है.उसे न्याय मिलने का अधिकार है. मुझे लगता है कि हर इंसान इस बात को मानेगा.हमारी फ़िल्म यही समझा रही है. जो इंसान फ़िल्म को पहले से जज करके नहीं देखेगा वो इस बात को मानेगा कि रातों रात किसी को उनके घर से निकाल देना खराब है. ये दुनिया में किसी के साथ नहीं होना चाहिए.
यह फ़िल्म समाज को जोड़ने का तोड़ने का काम कर रही है इन बातों पर क्या कहेंगे
पॉलिटिकल, सोशल जो विशेषज्ञ हो वो इस पर कमेंट करें तो ज़्यादा अच्छा होगा.मेरी जो आइडियालॉजी है. मैं उसी को मानते हुए इस फ़िल्म से जुड़ा हूं.इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है.किसी को उसके घर से भगा देना बहुत बुरी चीज है. दुनिया की हर कौम जो ये दर्द झेल चुकी है.यह उसकी भी फ़िल्म है.
इस फ़िल्म की रिलीज के बाद से निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को लगातार धमकियां मिल रही हैं आपको भी क्या धमकियों से जूझना पड़ रहा है
मुझे अभी तक ऐसे किसी भी चीज़ से गुजरना नहीं पड़ा है. जो लोग धर्म और मजहब की बात कर रहे हैं.मैं उन्हें बताना चाहूंगा कि मुझे हर किसी के मैसेज आ रहे हैं. आम इंसान जो किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़ा है. वो मुझे कह रहा है कि थैंक्यू ये फ़िल्म बनाने के लिए तो जो मेरी दुनिया है वहां मुझे बधाइयां ही मिल रही हैं.
फ़िल्म ने टिकट खिड़की पर जबरदस्त कारोबार किया है आपको कितने पैसे मिले
खुश पैसे से होना होता तो मैंने इंजीनियरिंग नहीं छोड़ी होती थी.वहां पर बहुत ज़्यादा पैसे मिल रहे थे .उस नौकरी को छोड़कर यहां पर आया.ऐसी इंडस्ट्री में जहां पता भी नहीं कि काम मिलेगा या नहीं लेकिन जब मैं कोई कहानी लिखता हूं या फिर कविता.उसके ज़रिए खुद को एक्सप्रेस करता हूं तो वो खुशी में जाहिर नहीं कर सकता हूं.