The Kashmir Files Movie Review: एक भूली हुई त्रासदी के जख्म को उघाड़ती है द कश्मीर फाइल्स
निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री अपनी फ़िल्म द कश्मीर फाइल्स से उस दर्द या कह सकते हैं कि जख्म को उघाड़ दिया है. जो आपको बेचैन करने के साथ साथ यह सवाल करने को भी मजबूर करता है कि तीन दशक बाद भी कश्मीरी पंडितों को न्याय क्यों नहीं मिला है.
फ़िल्म- द कश्मीर फाइल्स
निर्माता एवं निर्देशक– विवेक रंजन अग्निहोत्री
कलाकार– अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, दर्शन कुमार,पुनीत इस्सर,प्रकाश, पल्लवी जोशी, अतुल,चिन्मय और अन्य
प्लेटफार्म– सिनेमाघर
रेटिंग– ढाई
19 जनवरी 1990 का दिन कश्मीर के इतिहास का एक काला अध्याय था. हिंदी सिनेमा में इस काले अध्याय पर गिनी चुनी फिल्में ही बन पायी है. निर्माता निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने इस घटनाक्रम पर 2019 में फ़िल्म शिकारा बनायी थी तब फ़िल्म को लेकर यह आलोचना हुई थी कि उन्होंने कश्मीरी पंडितों के दर्द को परदे पर नहीं दिखाया है. निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री अपनी फ़िल्म द कश्मीर फाइल्स से उस दर्द या कह सकते हैं कि जख्म को उघाड़ दिया है. जो आपको बेचैन करने के साथ साथ यह सवाल करने को भी मजबूर करता है कि तीन दशक बाद भी कश्मीरी पंडितों को न्याय क्यों नहीं मिला है. कुलमिलाकर भावनात्मक पक्ष में यह फ़िल्म खरी उतरती है तो कई दूसरे पहलुओं पर कमतर भी रह गयी है.
फ़िल्म 90 के दशक से शुरू होती है. कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं. सामने एक रेडियो में क्रिकेट कॉमेंट्री चल रही है. सचिन तेंदुलकर बैटिंग कर रहा है और उसके सिक्स मारते ही एक बच्चा सचिन सचिन खुशी से चिल्लाने लगता है. वहां खड़े कुछ युवा लड़के उस बच्चे को हिन्दू कहकर मारने लगते हैं. वो हिन्दू बच्चा अपने मुस्लिम दोस्त की मदद से किसी तरह से वहां से बच निकलता है लेकिन जब वह छिपते छिपाते भाग रहा था तो उसकी नज़रों से दर्शक देखते हैं कि कश्मीर की गलियों में आतंकी सड़कों पर उतर आए हैं,बंदूकें लेकर घूम रहे हैं और सरेआम कश्मीरी पंडितों को ढूंढ ढूंढकर मार रहे हैं. उनकी महिलाओं के लिए अपमानजनक नारे लगा रहे हैं. लगभग तीन घंटे की इस फ़िल्म को दो कालखंड में बांटा गया है. एक 90 का दशक जब कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से निकाल गया था और दूसरा आज का समय. युवा कश्मीरी पंडित कृष्णा(दर्शन रावल)अपने मूल जड़ कश्मीर और अपने परिवार की त्रासदी से अनजान है. उसकी एक अलग सोच है. कश्मीर को भारत से अलग करने की सोच को दूसरे कालखंड में रखा गया है. क्या कृष्णा को अपने परिवार और कश्मीरी पंडितों के साथ हुए नरसंहार का पता चलेगा ?कृष्णा का फिर क्या फैसला होगा. यह आगे की कहानी है.
फ़िल्म का ट्रीटमेंट हार्ड हिटिंग है. जैसा कि ट्रेलर से ही ये साफ था. फ़िल्म में दिखायी गयी हिंसा कहीं ना कहीं आपको अंदर तक हिला देती है. फिर चाहे खून से सने चावल खिलाने वाली घटना हो या नदिमार्ग का नर संहार जिसमें छोटे बच्चे और बुजुर्ग को भी नहीं बख्शा नहीं गया था. औरतों के साथ हैवानियत की सारी हदें पार कर दी गयी थी. फ़िल्म में जिस तरह से बर्बर घटनाओ को दिखाया गया है. वो कहीं ना कहीं आपको बेचैन कर जाता है. फ़िल्म की कहानी 90 के दशक से मौजूदा समय में आती जाती रहती है. कहानी को फ्लैशबैक के ज़रिए कहा गया है.
यह फ़िल्म पुख्ता तौर पर इस सच को सामने ले आती है कि कश्मीरी पंडितों का पलायन नहीं नरसंहार हुआ था. फ़िल्म में आंकड़े भी दिए गए हैं कि 1941 में कश्मीर में कश्मीरी पंडित की संख्या क्या था और वह अब क्या रह गयी है. फ़िल्म भारत से कश्मीर के अहम अंग होने की बात को कई दस्तावेजों और घटनाओं के साथ जोड़कर सामने भी लाती है.
खामियों की बात करें तो फ़िल्म में कई खामियां भी रह गयी हैं. सिर्फ पुष्कर नाथ के परिवार के ज़रिए ही कश्मीरी पंडितों के दर्द को दिखाया गया है. दूसरे किरदारों पर फोकस क्यों नहीं किया गया है. यह बात अखरती है. 90 के दशक की राजनीति पर भी कम ही बात हुई है सिर्फ हिंसक घटनाओं पर ज़्यादा फोकस किया गया है. कश्मीर की सरकार के साथ साथ दिल्ली में बैठी सरकार ने भी क्यों नहीं कुछ कर पायी. इस पर डिटेल में फ़िल्म कोई जानकारी नहीं रख पायी है. इसके बारे में चंद संवादों में काम चला लिया गया है. यह बात सभी को पता है कि अफगानिस्तान में अमेरिका और रूस के झगड़े से ये आग फैली थी. उसका भी संवाद में ही जिक्र हुआ है. क्या भारत में कौमी एकता बरकरार रखने की कीमत में कश्मीरी पंडितों के खून को पानी समझ लिया गया था या सिस्टम नाकाबिल था. वॉइस ओवर के ज़रिए इन सभी बातों की पड़ताल यह फ़िल्म दे सकती थी. कहानी में कई जगह दृश्यों का दोहराव सा हुआ है जिससे फ़िल्म लंबी भी खिंच गयी है.
निर्देशक के तौर पर अतुल अग्निहोत्री निष्पक्ष नहीं रह पाए हैं. जेएनयू कॉलेज और उसके छात्रों को टारगेट करना. मीडिया को पानी पी पीकर कोसना हो या मौजूदा सरकार की तारीफ करना भले ही एक संवाद में सही लेकिन फ़िल्म का खलनायक कहता है कि पिछले सारे प्रधानमंत्री हमसे डरते थे. तुम्हारा मौजूदा प्रधानमंत्री हमें डराना चाहता है. पत्रकार ( अतुल श्रीवास्तव ) आतंकी(चिन्मय मंडलेकर) से पूछते हैं कि आपने पहली हत्या किसकी की थी. ये सवाल अजीब सा लगता है लेकिन जब आतंकी जवाब देता सबसे पहले ‘आरआरएस’ के एक सदस्य को मारा था, तो मकसद समझ आ जाता है. ये सब करने से विवेक खुद को रोक नहीं पाए हैं. जो इस फ़िल्म के प्रभाव को थोड़ा कमतर करता है.
अभिनय की बात करें तो इस फ़िल्म में मिथुन चक्रवर्ती, पुनीत इस्सर,प्रकाश बेलवाड़ी, अतुल श्रीवास्तव,दर्शन कुमार,चिन्मय मण्डलेकर,पल्लवी जोशी सहित बाकि सभी अपने रोल बखूबी अदा कर गए हैं लेकिन अनुपम खेर याद रह जाते हैं. उन्होंने शानदार परफॉर्मेंस दी है. फ़िल्म के संवाद कहानी और किरदारों को अनुरूप हैं. फ़िल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक औसत है.