West Bengal News: भरतपुर में पुरात्वतिक विभाग की टीम एक बार फिर ऐतिहासिक धरोहर तलाशने में जुटी
पश्चिम बंगाल के पूर्व बर्दवान जिले के बुदबुद थाना के गलसी एक ब्लॉक के चाकतेतुल ग्राम पंचायत के भरतपुर गांव में मौजूद बौद्ध स्तूप के लगभग मिलने के 50 साल बाद एक बार फिर खुदाई का काम शुरू किया गया है.
पानागढ़, मुकेश तिवारी. शोधकर्ताओं का मानना है कि ईसा मसीह के जन्म से 1000 साल पहले ही नदी सभ्यता का विकास हुआ है. सभ्यता विकास को लेकर देश विदेश में अनगिनत तथ्य और धरोहर मिले है और मिल भी रहे है. इसी कड़ी में पश्चिम बंगाल के पूर्व बर्दवान जिले के बुदबुद थाना के गलसी एक ब्लॉक के चाकतेतुल ग्राम पंचायत के भरतपुर गांव में मौजूद बौद्ध स्तूप के लगभग मिलने के 50 साल बाद एक बार फिर खुदाई का काम शुरू किया गया है. कई पुरातात्विक कलाकृतियों का विश्लेषण कर यहां खुदाई शुरू किया गया है.
बंगाल के प्राचीन इतिहास में ढूंढा जा रहा है नया अध्याय
केंद्र सरकार ने कोलकाता सर्कल अधीक्षण पुरातत्वविद एवं कार्यालय प्रमुख डॉ. शुभा मजूमदार के नेतृत्व में एक बार फिर खुदाई का कार्य शुरू किया है. जिनके द्वारा बंगाल के प्राचीन इतिहास में एक और नया अध्याय ढूंढा जा रहा है. इसके पूर्व यहां पर केंद्र ने उत्खनन की सीमा बढ़ाने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था. परिणामस्वरूप, भरतपुर के बौद्ध स्तूप का खुदाई कार्य उस वक्त बाधित हो गया था. लेकिन 50 वर्षो बाद इस ऐतिहासिक धरोहर की पुनः खुदाई शुरू होने से एक बार फिर नए तथ्य और इतिहास के मिलने अथवा रूबरू होने की संभावना बढ़ गई है.
3 फरवरी से शुरू हुआ खुदाई का काम
आखिरकार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने यहां खुदाई का काम पुनः शुरू कर दिया है. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कोलकाता सर्कल प्रमुख शुभा मजूमदार के नेतृत्व में और मलय साईं के निर्देशन में उत्खनन कार्य प्रगति पर है. कोलकाता सर्कल प्रमुख शुभा मजूमदार के नेतृत्व में 3 फरवरी से खुदाई का काम शुरू हुआ है. यह खुदाई आगामी 15 मार्च 2023 तक चलेगी. हाल ही में बर्दवान इतिहास और पुरातत्व विभाग चर्चा केंद्र से एक प्रतिनिधिमंडल मौके पर गया था. इस प्रतिनिधिमंडल में संगठन के अध्यक्ष अजय कुमार घोष, उपाध्यक्ष प्रबीर चट्टोपाध्याय, संपादक सर्वजीत यश और शोधकर्ता नयनिका यश शामिल थे.
चल रही खुदाई में मिला कमरा
इस बार की चल रही खुदाई से अभी तक एक कमरा उस स्तूप से सटे क्षेत्र से मिला है. ‘कमरे की दीवारों पर अब तक ईंटों की लगातार सोलह परतें मिली हैं. यह दीवार शायद कमरे के बिल्कुल नीचे है. उस स्थिति में यह माना जा सकता है कि यह एक बड़ा घर था. अब तक ईंट और चिनाई का निर्माण 9वीं-10वीं शताब्दी की प्रतीत हो रही है. शुभा मजूमदार का कहना है की हम कमरे की पूरी खुदाई करना चाहते हैं. हमें यह भी पता लगाने की जरूरत है कि कुछ और कमरे थे या नहीं.
स्तूप के भी हजारों साल पुराना होने का अनुमान है.स्तूप के उत्तरी भाग में एक उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व ईंट की दीवार की भी पहचान की गई है. जिसे गुप्तकाल के बाद का काल माना जा सकता है.पुरातत्वविदों के अनुसार ऐसे विहारों में पूजा, उपासना और अध्ययन की शिक्षा दी जाती थी.
कब शुरू हुई पहली खुदाई
बताया जाता है की साल 1970-71 में बर्दवान विश्वविद्यालय क्यूरेटर शैलेन सामंत और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के बीच एक संयुक्त उद्यम में भरतपुर में खुदाई शुरू हुई थी. बताया जाता है की 1976 तक करीब छह वर्ष तक खुदाई अनियमित रूप से चलता रहा. इसमें एक बौद्ध स्तूप मिला था. इसके बाद शोध कार्य पूरी तरह ठप हो गया था. लेकिन कुछ दिनों बाद पुनः एएसआई के कोलकाता सर्किल प्रमुख शुभा मजूमदार ने फिर से खुदाई की पहल की .कुछ दिनों की खुदाई के बाद एक बर्तन (पात्र) मिला था. जिसके एक तरफ काले रंग से पेंट किया हुआ था.दूसरी तरफ लाल रंग लगा था.
ताम्र युग का मिला था घड़ा
वहीं से ताम्र युग का घड़ा तथा अन्य पात्र पाया गया था. शोधकर्ताओं के अनुसार, इस प्रकार के बर्तन वास्तव में ताम्र युग के लोगों द्वारा उपयोग किए जाते थे. फलस्वरूप यह माना जा सकता है कि वर्तमान दामोदर नदी के आसपास गलसी, बुदबुद सहित आस-पास के क्षेत्रों में मानव बस्तियों का विकास हुआ था.ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व का यह समय था. खुदाई के पहले चरण में बौद्ध स्तूप के पांच कोने मिले थे.
जिसे पंचरथ या धर्मराजिका स्तूप भी कहा जाता है. शोधकर्ताओं के अनुसार, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की बौद्ध प्रतिमा में बर्दवान के तुलाक्षेत्र बुद्धस्तूप या धर्मराजिका स्तूप का उल्लेख है. वह बौद्ध स्तूप है जो खोजा गया था. इसके अलावा कुल 5 बौद्ध प्रतिमाएं मिली थी. जिनमें से कई अत्यंत मूल्यवान मिट्टी की बौद्ध मूर्तियाँ थी. 1976 के बाद कोई अन्य दल उत्खनन में सक्रिय नहीं हुआ. बौद्ध स्तूप के बगल में रेलिंग लगाकर सरकार ने अपनी जिम्मेदारी निभाई थी.
पचास वर्ष बाद शुरू हुई खुदाई,नई धरोहर के बाहर आने की संभावना
पुरातत्वविद् शुभा मजूमदार के लगातार प्रयास के बाद एक बार फिर पचास वर्षों के बाद भरतपुर के बौद्ध स्तूप स्थल के बगल में फिर से खुदाई शुरू की गई है. शोधकर्ताओं के अनुसार, संभावना जताई गई है की भरतपुर में बौद्ध स्तूप के आसपास क्षेत्र में विभिन्न ऐतिहासिक धरोहर मौजूद हो सकते हैं. एक सुनियोजित उत्खनन से बहुत सी नई जानकारी प्राप्त होने की संभावना है. जो बंगाल और देश के इतिहास को समृद्ध करेगा. शुभा मजूमदार के अनुसार , हमें जो बर्तन मिला था, उससे साफ है कि जन्म से एक हजार साल पहले यहां मानव सभ्यता थी. आगे की खुदाई से पुरातात्विक अवशेष मिलने की प्रबल संभावना है.
बंगाल के प्राचीन परंपरा के साथ केंद्र को नहीं करनी चाहिए राजनीति
पुरातत्व शोधकर्ता गिरिधारी सरकार का भी कहना है की यह इलाका काफी समृद्ध है. कई वर्षों के बाद खुदाई फिर से शुरू होने पर हमें आशा की एक किरण दिखाई दी है. चाकतेतुल ग्राम पंचायत प्रधान अशोक भट्टाचार्य, ने बताया की बंगाल की प्राचीन परंपरा के साथ केंद्र को राजनीति नहीं करनी चाहिए.’हम चाहते हैं कि इलाके का इतिहास सार्वजनिक किया जाए. खुदाई से मिलने वाले इतिहासिक धरोहर से इलाके का भी मान बढ़ेगा.
बर्दवान के लेखक तथा पत्रकार प्रवीर चटर्जी का कहना है की, ‘हमारे क्षेत्र का इतिहास सामने आए, यह संस्कृति प्रेमी लोगों की मांग है.’ भरतपुर की मिट्टी में बौद्ध सभ्यता के साथ अन्य युगों का इतिहास छिपा है उसे बाहर लाने की जरूरत है.बर्दवान इतिहास व पुरात्वत चर्चा केंद संस्था के सचिव सर्वजीत यश का कहना है की एक बार फिर इस खुदाई के शुरू होने से प्राचीन मानव इतिहास के लिए नई धरोहर के बाहर आने की संभावना है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता.
भरतपुर से मिली बौद्ध स्तूप और मूर्तियां
1971 के दशक में बौद्ध स्तूप के साथ ही खुदाई में भूमिस्पर्श मुद्रा में बुद्ध की पांच लघु मूर्तियाँ मिलीं थी. मूर्तियों का भाव दाहिने हाथ की सभी पाँचों उंगलियाँ जमीन को छूने की स्थिति में फैली हुई थी . मिली प्रत्येक मूर्तियों का आकार लगभग 30 सेमी ऊँची थी. जो मठ में पूजा के लिए उपयोग में लाई जाती थी.
इतिहासविदों के अनुसार राज्य में बौद्ध स्थलों के संदर्भ में साइट को अद्वितीय बनाने वाला एक मठ परिसर के साथ एक बड़े स्तूप की उपस्थिति और ताम्र पाषाण या ताम्र युग के काले और लाल बर्तन मिले है.बताया जाता है की है राज्य के अन्य स्थलों में मुख्य रूप से मालदा के जगजीवनपुर,मुर्शिदाबाद में कर्णसुबरना तथा पश्चिम मेदिनीपुर के मोगलमारी में पुरातत्वविदों को केवल छोटे मन्नत स्तूप अबतक मिले हैं. भरतपुर का बौद्ध स्तूप अपने में विशाल और अनोखा है.
इतिहासविदों का क्या है कहना
भरतपुर का बौद्ध स्तूप एक स्मारक है जो आमतौर पर बुद्ध या अन्य संतों या पुजारियों से जुड़े पवित्र अवशेष रखता है. जबकि मन्नत स्तूपों का समान महत्व है लेकिन आठ बेलनाकार संरचनाओं में उत्पन्न होने वाली छोटी संरचनाएं हैं. उत्खनन की निगरानी कर रहे शुभा मजूमदार का कहना है की भरतपुर में काम करने वाले पुरातत्वविद उत्खनन के बाद मठ परिसर और इसके निर्माण की अवधि के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने में सक्षम होंगे.अब तक खुदाई के क्रम में हमने कुछ संरचनाओं को उजागर किया है. जो मठ की बाहरी दीवार प्रतीत होती हैं.जिसमें ईंट की नौ परतें और एक छोटी गोलाकार संरचना के रूप में मौजूद है जो शायद एक स्तूप की तरह है.
जिले में अन्य स्थलों से मिली मूर्तियां
पूर्व बर्दवान जिले में बौद्ध काल के कई पुरातात्विक अवशेष पहले भी मिले हैं. बर्दवान शहर के गोलाहाट में एक विष्णु-लोकेश्वर की मूर्ति मिली थी. अवलोकितेश्वर मंदिर में रखा गया है और बोधिसत्व की एक मूर्ति बाहर सर्वमंगला मंदिर में है.कंचननगर बौद्ध कुबेर वैग्यवन से, बेचारहाट से ध्यानी इछलाबाद तक, पाकी वरदा जन देवीमूर्ति के टुकड़े बर्डवान विश्वविद्यालय संग्रहालय में एकत्र किए गए हैं. सुखना गांव की तारख्या देवी बौद्ध देवी हरिति हो सकती हैं. ऐसी अनेक रूपांतरित बौद्ध मूर्तियाँ विभिन्न गाँवों में फैली हुई हैं. एक द्विभाजित बौद्ध देवता की मूर्ति पानागढ़ सैन्य शिविर के अंदर क्षेत्रपाल मंदिर में पड़ी हुई है.
ग्रामीणों द्वारा ऊपरी संरचना देख हुआ था संदेह
स्थानीय ग्रामीणों का कहना है की सबसे पहले 1970 में इलाके के फकीर चंद्र राय और बर्दवान संस्कृति परिषद के प्रमुख डॉ.सुबोध मुखर्जी ने वर्तमान लेखको का ध्यान भरतपुर के टीले की प्राचीन बस्ती के साथ-साथ उसकी ईंट की ऊपरी संरचना की ओर आकर्षित किया था. बाद में, इस लेखक के नेतृत्व में संग्रहालय और आर्ट गैलरी ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्वी सर्कल के सहयोग से इस क्षेत्र के टीले के आसपास कई व्यवस्थित अन्वेषण किए थे. निरंतर अन्वेषण ने अस्तित्व का खुलासा किया.पूर्वी भारत में एक सबसे आकर्षक पुरातात्विक स्थल का काल तब सामने आया था.
भरतपुर बौद्ध स्तूप का भौगोलिक स्थिति
भरतपुर प्राचीन परगना सिलामपुर के पूर्व में स्थित है. 1971 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ईस्टर्न सर्कल, कलकत्ता और बर्दवान विश्वविद्यालय ने संयुक्त रूप से भरतपुर में व्यापक उत्खनन कार्य किया.भौगोलिक दृष्टि से यह 23°24′ उत्तरी अक्षांश और 87°27′ पूर्वी देशांतर पर स्थित है.1971 से 1974 ई. तक भरतपुर के टीलों की खुदाई में प्राचीन प्रागैतिहासिक सभ्यता के निशान मिले हैं.खोजी गई कलाकृतियाँ और ईंट के टीले के खंडहर इस बात का प्रमाण देते हैं कि नवपाषाण कांस्य युग से लेकर 9वीं-10वीं शताब्दी ईस्वी तक यहाँ एक प्राचीन सभ्यता पनपी थी.
इन सभी पाए गए मूलरूपों से यह माना जा सकता है कि उस समय के लोगों की आजीविका कृषि, पशुपालन और मछली पकड़ना थी. निवासियों ने पत्थर, चकमक पत्थर के हथियार, तांबे और जानवरों की हड्डियों से बने औजारों का इस्तेमाल किया. संभवत: भरतपुर की यह प्राचीन बस्ती कभी दुर्गापुर के निकटवर्ती बीरभानपुर के खानाबदोश लोगों से जुड़ी थी. बीरभानपुर के मध्य पाषाण युग के निवासी भरतपुर के नवपाषाण-ताम्र युग के निवासियों के पूर्वज थे. दोनों का रहन-सहन एक जैसा था.
भरतपुर में खोजे गए पैटर्न महिषादल के समरूप
भरतपुर में खोजे गए पैटर्न-कट मिट्टी के बर्तन और महिषादल (कोपाई नदी घाटी) क्षेत्र में पाए गए मिट्टी के बर्तन लगभग समरूप हैं. भरतपुर के स्तूप से भी पता चलता है कि इस काल के निवासी मिट्टी के घरों में रहते थे. शायद कुछ खुले आंगन में परिवार एक साथ या संयुक्त रूप से खाना बनाते थे (जैसे पंजाब, हरियाणा में (सामूहिक रूप जिसे ‘सांझा-चुल्ला’ कहा जाता है), दो हजार साल ईसा पूर्व की सभ्यता के साथ भरतपुर में खोजी गई सभ्यता में समानता देखी जा सकती है. ताम्र पाषाण युग के बाद अगला काल लौह युग है.
ये दोनों सभ्यताएँ यहाँ अगल-बगल मौजूद थीं. लेकिन इस काल की टेराकोटा की कलाकृतियाँ बहुत उच्च गुणवत्ता वाली नहीं थीं. हालाँकि, बाद में लोहे का उपयोग करने वाली बस्तियाँ किसी समय उत्तर भारतीय काले पॉलिश वाले बर्तनों की संस्कृति के संपर्क में आईं. इसका प्रमाण उत्खनन में टूटे चिकने काले रंग के कौलाल के टुकड़े मिले हैं.संभवतः इस सभ्यता ने भरतपुर में कम से कम कुछ समय के लिए ईसा पूर्व में प्रवेश किया था.
रेडियो-कार्बन डेटिंग द्वारा स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया
अगली कुछ शताब्दियों के बाद यहाँ विकसित हुई नई सभ्यता गुप्त काल से पाल काल तक शुरू हुई.यह अवधि वास्तुकला और कला के विकास के इतिहास में स्वर्ण युग थी.इसी काल में कांस्य युगीन स्तूप का निर्माण किया गया था.स्तूप एक पंचरथ पर एक ईंट की नींव पर बनाया गया है.दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य तक बर्दवान जिले में दामोदर नदी के तट पर स्थित भरतपुर का कांस्य युग, हाल ही में रेडियो-कार्बन डेटिंग द्वारा स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया है.
परेशचंद्र दासगुप्ता ने टिप्पणी की कि भरतपुर टीले की खुदाई के परिणामस्वरूप मिली सभ्यता पांडुराजा टीले के समान काल की है और भरतपुर के पास दामोदर से 2 किमी दूर है.दक्षिण में बांकुरा के पोखरा में कांस्य युगीन सभ्यता का एक और पुरातात्विक स्थल खोजा गया है.साइट पर खुदाई से चार परतों में प्राचीन सभ्यताओं के साक्ष्य सामने आए हैं.
बौद्ध स्तूप को ‘भरतपुर स्तूप’ के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह भरतपुर मौजा (मौजा नंबर -2) में स्थित है, भले ही यह पुरातात्विक स्थल भरतपुर और मनीरामपुर गांवों के बीच स्थित है.स्तूप का आकार 12.75 मीटर x 12.75 मीटर है. भरतपुर का स्तूप सुंदर शिल्प कला से परिपूर्ण है.स्तूप के निर्माण में आसपास के प्राचीन मंदिरों और विहारों की ईंटों का उपयोग किया गया है.भूमिगत निर्मित 33 सीढ़ियों वाला स्तूप गवाही देता है. स्तूप की नींव ठोस है और लगभग 2 इंच के पत्थर के टुकड़े और मिट्टी को घूटने के साथ मिलाने का मोर्टार है.
पंचकोणीय स्तूप का शीर्ष टेराकोटा नकली चैतो से भरा हुआ है.इसके ऊपर कई निचे हैं.उनमें से प्रत्येक ताके में भूमि प्रश्च मुद्रा में वज्रपदमसा के साथ एक बुद्ध की छवि थी. लेकिन मूर्तियों का आकार और आकार सभी मामलों में एक जैसा नहीं होता है.चौकोर ईंट का बुद्ध स्तूप नक्काशियों से घिरा हुआ है और बड़े आला में भूमि प्रशमुद्रा में पद्मासन पर बैठे हुए बुद्ध की एक आकृति की खोज की गई है.मूर्तियों की संरचना और मूर्तिकला शैली से पता चलता है कि इनका निर्माण 8वीं-9वीं शताब्दी में हुआ था.स्तूप संभवतः किसी बौद्ध मठ से जुड़ा हुआ था. खोजे गए बौद्ध स्तूप या संघाराम से पता चलता है कि इस स्थल पर प्राचीन संस्कृति के साथ निरंतर संपर्क था, लेकिन इसके महत्व को समझाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है.
पञ्चराकृति’ ‘वास्तुकला’ कहा जाता है
बौद्ध स्तूप के दक्षिण-पश्चिम कोने में 10 मीटर x 10 मीटर की खाई की खुदाई से पता चला है कि चौकोर स्तूप के नीचे की सीढ़ियाँ पकी हुई ईंटों से बनी थीं, जबकि नींव कच्ची सूखी ईंटों से बनी थी. सबसे निचले हिस्से में सामान्य मिट्टी की परत के ऊपर पीले रंग के रंग के साथ रेतीली मिट्टी की 1 मीटर मोटी परत। ऐसा लगता है कि कठोर मिट्टी की मिट्टी पर ईंट के काम के स्थायित्व के बारे में संदेह के मामले में, जमीन को रेत से भरने की प्रथा थी.फिर चूना-पत्थर से बालू बिछाकर उसके ऊपर कंकड़-पत्थर और मिट्टी की ईटों का निर्माण किया जाता था.नींव पर आग से जली हुई ईंटों से स्तूप की संरचना को हल किया गया था.
चिनाई के लिए रेत और चूने का उपयोग किया जाता था.ईंट की मात्रा को दो श्रेणियों में बांटा गया था; अर्थात्- 30 x 28 x 7 सेमी। और 48 x 21 x 6 सेमी.दो प्रकार की ईंटों के उपयोग से पता चलता है कि इस स्तूप के निर्माण के लिए एक प्राचीन स्मारक से एकत्रित ईंटों (30 x 28 x 7 सेमी) का पुन: उपयोग किया गया था.स्तूप के आरोही भाग को पाँच चरणों में विभाजित किया गया है, इसलिए इसे ‘पञ्चराकृति’ ‘वास्तुकला’ कहा जाता है.
चूने के लेप के दिखाई देते हैं निशान
चिनाई के बाहरी हिस्से में चूने के लेप के निशान दिखाई देते हैं.दीवार के विस्तारित हिस्से में आलों में वेदियों पर बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की गई थी.यद्यपि नष्ट हुए स्तूप में आलों की कुल संख्या का निर्धारण संभव नहीं है, वज्रासन पर बैठे हुए भूमिपार्श मुद्रा में पाए गए छ: ताकों का आकार 29 x 18 x 5 से.मी, 28 x 19 x 5 से.मी, 28 x 18 x 5 है. से.मी क्रमशः से.मी, 27 25 x 5 से.मी, 30 ,21 x 7 सेमी. और 23 x 14 x 5 सेमी. इसके अलावा, खंडहरों में कुछ नरम बलुआ पत्थर की बुद्ध प्रतिमाएँ भी खोजी गईं. विशेषज्ञ अनुमान लगाते हैं कि स्तूप की वास्तुकला ओडिशा के रत्नागिरी स्तूप के समान है. कुल ग्यारह बुद्ध प्रतिमाएँ (उनमें से 2 टूटी हुई हैं) कुल मिलाकर खोजी गई हैं.
नवपाषाण-ताम्रपाषाण की उपस्थिति का संकेत
यहां की खोज के बारे में 1994 में बर्दवान के तत्कालीन गजेटियर शैलेंद्र नाथ सामंत ने पूरी तरह से टिप्पणी की है की निर्माण की शैली के साथ-साथ पुरावशेषों से संकेत मिलता है कि भरतपुर का स्तूप परिसर 7वीं-9वीं शताब्दी में बौद्ध समुदाय द्वारा बनाया गया था, और स्तूप की यह शैली अब तक पश्चिम बंगाल में अपनी तरह का पहला स्तूप है .भरतपुर में पाई गई अन्य सामग्रियां तल पर एक नवपाषाण-ताम्रपाषाण निवास की उपस्थिति का संकेत देती हैं, जिसके बाद प्रारंभिक लौह युग की संस्कृति विकसित हुई, जिसके बाद ऐसा लगता है कि यह स्थल स्तूप के निर्माण के समय तक सुनसान रहा.
कोई अन्य बौद्ध स्तूप नहीं मिला है
रमेश मजुमदार की पुस्तक ‘बांग्लादेश का इतिहास’ से ज्ञात होता है कि कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में संरक्षित “अष्टसाहसिका प्रज्ञापरमिता” में तुलाक्षेत्र “बर्दवान स्तूप” का उल्लेख है. डॉ. शैलेंद्रनाथ सामंत ने लिखा है कि, “आलोच्य भरतपुर में खोजे गए स्तूप को छोड़कर पूरे ग्रेटर बंगाल में कोई अन्य बौद्ध स्तूप नहीं मिला है. इसलिए हम भरतपुर के बौद्ध स्तूप को तुलाक्षेत्र बर्दवान स्तूप कह सकते हैं. स्तूप का निर्माण सातवीं शताब्दी में हुआ था.
इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि 1996 में भारत-बांग्लादेश सीमा पर मालदह जिले के जगजीवनपुर के तुलविता में एक अन्य बौद्ध स्तूप की खोज की गई थी, लेकिन बर्दवान जिले में यह बिल्कुल भी नहीं है. भरतपुर के ‘तुलाक्षेत्र बर्दवान’ के दावे को खारिज करने का अब भी कोई कारण नहीं है. वह पहलू – चूंकि भरतपुर में पाया गया यह बौद्ध स्तूप आज तक का सबसे पुराना बौद्ध स्तूप है.अत: इस बौद्ध स्तूप तथा आस-पास के भागों के भ्रमण की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पूर्वी शाखा के तत्कालीन उपनिदेशक सुशांत कुमार मुखोपाध्याय के नेतृत्व में “भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण” अथवा “भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग” को दी गई.
भारत और बर्दवान विश्वविद्यालय और भारत की पहल के तहत यहां सरकारी फंडिंग से खुदाई शुरू हुई लेकिन पूरी होने से पहले ही रुक गई थी.आज तक खुदाई की रिपोर्ट लालफीताशाही में लिपटी हुई है क्योंकि काम के दौरान सह-निर्देशक सुशांत मुखर्जी की मृत्यु हो गई थी.और भरतपुर के पुरावशेष धीरे-धीरे नष्ट हो रहे थे.
चार दिवारी को लेकर जब हुए था विवाद
हालाँकि, 2004 में, पुरातत्वविद बिमल बनर्जी की देखरेख में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पूर्वी शाखा के पक्ष में स्तूप को चार दीवार से घेरने का काम शुरू हुआ. लेकिन स्थानीय ग्रामीणों ने तब इस काम में बाधा डाली, क्योंकि एक ग्रामीण सड़क इस बौद्ध स्तूप से लगभग 100 मीटर तक जाती है जो पक्की सड़क तक जाती है, उनकी मौजूदा सड़क को बंद नहीं किया जा सकता है – यह ग्रामीणों की मांग थी. नतीजतन चार दिवारी का काम अधूरा रह गया था. दिसम्बर 2007 ई. में इस समस्या ने और अधिक जटिलताएँ ले लीं.जब मनोरमपुर से बौद्ध स्तूप तक इस सड़क पर 100 दिन का प्रोजेक्ट शुरू हुआ.
1958 ईस्वी के “प्राचीन स्मारक पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम” और 1959 के अधिनियम के अनुसार “एएसआई इसकी किसी भी भूमि पर कोई अन्य परियोजना कार्य निषिद्ध है”.लिहाजा पुरातत्व विभाग ने 100 दिन के प्रोजेक्ट को रोकने की पहल की. इस संबंध में पुरातत्व विभाग के कर्मचारियों और गांव के स्थानीय लोगों के बीच विवाद हो गया, जो थाने तक पहुंच गया. अभी तक दोनों पक्ष अपनी-अपनी स्थिति पर अड़े हुए हैं.
जून 2009 ई. में जब मैं स्वयं इस स्तूप का क्षेत्र सर्वेक्षण करने गया तो मैंने इसकी दयनीय स्थिति देखी, स्तूप के अंदर से गाँवों के गुजरने के कारण लोगों और वाहनों को स्तूप में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है.बाड़े के अंदर एक छोटा सा तालाब है, जिसके आसपास का माहौल काफी गंदा है.एएसआई के परिबद्ध क्षेत्र में स्थानीय लोग गाय व बकरियां चराते हैं. स्तूप के ऊपर बच्चे खेलते हैं और वयस्क दोपहर की हवा का आनंद लेते हैं. स्तूप में कई ईंटें उजागर हो गई हैं.इसका दुर्दशा कर दिया गया था.
प्राचीन कृषि सभ्यता का हुआ था जन्म
पुरातत्वविद रूपेंद्र कुमार चट्टोपाध्याय के अनुसार भरतपुर की खुदाई से मिल रहे अवशेषों से संभावना जताई जा रही है की इसे एक बौद्ध केंद्र या संस्थान के रूप में व्यवहार किया जाता था. दूसरी पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व से इस क्षेत्र में मानव निवास के प्रमाण मिले हैं. हाल की खुदाई में इसके निशान मिले हैं. नदी के किनारे की इस उपजाऊ भूमि में एक प्राचीन कृषि सभ्यता का जन्म हुआ था.
भरतपुर के बौद्ध स्तूप के आसपास टूरिस्ट सेंटर बनाने की है मांग
भरतपुर के बौद्ध स्तूप के आसपास क्षेत्र को टूरिस्ट सेंटर बनाया जाए.ग्रामीण और शहरवासी यही चाहते हैं. ग्रामीणों ने यह प्रस्ताव वर्ष सितंबर 2021 में राज्य के पूर्व मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के तत्कालीन मुख्य सलाहकार अलापन बनर्जी को सौंपा था. यह प्रस्ताव मिलने के बाद भरतपुर आने के बाद उन्होंने स्थानीय लोगों से कहा कि जिलाधिकारी और बीडीओ के माध्यम से पर्यटन विभाग को प्रस्ताव भेजा जा सकता है. साथ ही उन्होंने आश्वासन दिया कि प्रस्ताव भेजने के बाद जो भी आवश्यक होगा वह करेंगे. चूंकि अलापन बनर्जी स्वय इस गांव के ही रहने वाले है. इस बौद्ध स्तूप के चारों ओर एक पर्यटन केंद्र बनाने का प्रस्ताव रखा था.