The Vaccine War Movie Review: देश के वैज्ञानिकों के बलिदान और संघर्ष की कहानी कहती द वैक्सीन वॉर, पढ़ें रिव्यू
कोरोना वायरस और लॉकडाउन की त्रासदी पर अब तक कई फ़िल्में बन चुकी है. निर्देशक विवेक अग्निहोत्री कोरोना काल में देश के साइंटिस्टों की कहानी को लेकर आये हैं, जिन्होंने देश के लिए कोरोना वैक्सीन बनायी और कोरोना के कहर से करोड़ो ज़िंदगियों को बचा लिया.
फ़िल्म – द वैक्सीन वॉर
निर्देशक- विवेक अग्निहोत्री
कलाकार – नाना पाटेकर, पल्लवी जोशी, गिरिजा ओक, निवेदिता भट्टाचार्य, राइमा सेन और अन्य
प्लेटफार्म – सिनेमाघर
रेटिंग – ढाई
कोरोना वायरस और लॉक डाउन की त्रासदी पर अब तक कई फ़िल्में बन चुकी है. निर्देशक विवेक अग्निहोत्री कोरोना काल में देश के साइंटिस्टों की कहानी को लेकर आये हैं, जिन्होंने देश के लिए कोरोना वैक्सीन बनायी और कोरोना के कहर से करोड़ो ज़िंदगियों को बचा लिया. यह ऐसा इतिहास है, जिसे सभी को ना सिर्फ याद रखना चाहिए बल्कि गर्व करना चाहिए,लेकिन सिनेमा के लिहाज से इस कहानी को उस प्रभावी ढंग से विवेक अग्निहोत्री नहीं कह पाए हैं, जैसा कि उम्मीद थी. यह डॉक्युमेंट्री के ज़्यादा करीब लगती है. सिनेमाई जादू के साथ यह कहानी परदे पर नहीं आ पायी है, जिससे हर वर्ग का दर्शक गर्व करने के साथ – साथ इंटरटेन भी हो पाए.
कहानी भारतीय वैक्सीन के बनने की है
कोरोना काल में जब ज़िन्दगी मौत के सामने घुटने टेक रही थी, तब हमारे देश के साइंटिस्ट करोड़ों जिंदगियों को बचाने के लिए देशी वैक्सीन बनाने की जद्दोजहद में जुटे हुए थे. अपने घर परिवार सबको छोड़कर. यह सफऱ आसान नहीं था क्योंकि रेस अगेंस्ट टाइम वाला मामला था. समय की ही मुसीबत नहीं थी और भी कई चीज़ें राह का रोड़ा था. इसमें से एक मीडिया और सोशल मीडिया का समूह इसके खिलाफ माहौल बना रहा था. यह दुष्प्रचार कर रहा था कि भारतीय वैक्सीन विदेशी वैक्सीन के मुकाबले औसत है. इससे भारतीयों की जान दांव पर लग सकती हैं. इस तरह के दावों के बीच भारत के वैज्ञानिकों ने किस से भारत की वैक्सीन बनायीं और वह किस तरह से सबसे कारगर वैक्सीन साबित हुई. यह कहानी उसी की है। 12 अध्याय में कहानी को कहा गया है. जिसमें चीन के लैब में कोरोना वायरस के बनने से लेकर विदेशी वैक्सीन की भारत में आने के लिए मनमानी के मुद्दे को भी उठाया गया है.
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फ़िल्म की खूबियां और खामियां
फ़िल्म की कहानी डॉ. बलराम भार्गव की किताब ‘गोइंग वायरल’ पर आधारित है. कहानी देश के अपने वैक्सीन के बनाने के भारतीय वैज्ञानिकों के संघर्ष को प्रदर्शित करती है. जिसमें महिलाओं का 70 प्रतिशत योगदान था. यह ऐसा इतिहास है. जिसे सबको याद रखना चाहिए. यह इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबी है. फ़िल्म कहीं आपको गर्व का एहसास करवाती है, तो कई मौकों पर इमोशनल भी करती है. फ़िल्म कहीं ना कहीं फ़िल्म मिशन मंगल की याद दिलाती है, लेकिन वह उस तरह से महिलाओं की प्रभावी जर्नी को नहीं दिखा पायी है, जैसा की ज़रूरत थी. फ़िल्म में कई बार इमोशन थोपे हुए से भी लगते हैं. इसके साथ ही वैक्सीन के बनने की इस कहानी में ऐसा कुछ नया नहीं दिखाया गया है, जो अलहदा है. सिर्फ बंदरों को पकड़ने वाला एपिसोड़ ज़रूर अलग बन पड़ा है. बलराम भार्गव की निजी ज़िन्दगी का जिक्र तक नहीं किया गया है. निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने अपनी इस फ़िल्म को एजेंडा से मुक्त करने की पूरी कोशिश की है. फ़िल्म में कोविड फैलने के लिए कुम्भ को जिम्मेदार बताया गया है. तब्लीगी जमात का कहीं भी जिक्र नहीं हुआ है, लेकिन फिर समझ आ जाता है कि फ़िल्म अपने मूल एजेंडे पर आ गयी है. ऑक्सीजन की कमी से मरने वालों का दोष दिल्ली की सरकार को यह कहते हुए दे दिया गया है कि उन्होने ज़रूरत से चार गुना ऑक्सीजन खरीद लिया है. फ़िल्म में कई बार इस बात को दोहाराया गया है कि केंद्र सरकार काम में यकीन करती है और यह सरकार बाकी सरकार की तरह नहीं है. विवेक अग्निहोत्री का नरेटिव फ़िल्म में समय – समय पर आता रहता है. फ़िल्म में विलेन के तौर पर अकेले राइमा सेन के किरदार को दिखाना भी अखरता है. उनके साथ एक दो और किरदार जोड़ने की ज़रूरत कहानी को प्रभावी बनाने के लिए थी. क्लाइमैक्स भी खिंचा हुआ और कमज़ोर रह गया है. फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफी कहानी के अनुरूप है. गीत संगीत की बात करें तो श्याम बेनेगल के टेलीविजन शो भारत एक खोज से फ़िल्म में गीत संगीत लिया गया है. जो कहानी के लिए एक अलग माहौल बनाने में समय – समय पर मदद करता है. फ़िल्म का बैकग्राउंड भी कहानी के साथ न्याय करता है.
नाना पाटेकर और पल्लवी जोशी की उम्दा परफॉरमेंस
नाना पाटेकर एक अरसे बाद रुपहले परदे पर नज़र आये हैं. डॉ. बलराम भार्गव के किरदार वह जो रेंज लेकर आते हैं, वह खास है. वह एक बॉस के गुणों को अपने संवाद और बॉडी लैंग्वेज से दिलचस्प बनाते हैं. पल्लवी जोशी ने एक बार फिर बेहतरीन परफॉरमेंस दी है. प्रिया अब्राहम के रूप में छाप छोड़ती हैं. किरदार की भाषा तक में उनकी मेहनत दिखती है. राईमा सेन ने भी प्रभावी ढंग से अपना किरदार निभाया है. मोहन कपूर फ़िल्म में अलहदा अंदाज में दिखें हैं हालांकि उनको करने के लिए फ़िल्म में ज़्यादा कुछ नहीं था. गिरिजा ओंक, निवेदिता भट्टाचार्य सहित बाकी के कलाकारों ने भी अपनी – अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है.