धनबाद: पारसनाथ जैन धर्मावलंबियों का विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है. कभी काफी हरा-भरा दिखने वाला पारसनाथ आज जंगलों के घटते दायरे से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है. वन क्षेत्र में तेजी से बढ़ी मानवीय गतिविधियों ने यहां की हरियाली को प्रभावित किया है. पिछले चार दशक की बात करें, तो वन क्षेत्र में लगातार कमी देखी जा रही है.
विनोबा भावे विश्वविद्यालय के बॉटनी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ प्रशांत कुमार मिश्रा और उनकी टीम बीते 40 वर्षाें से पारसनाथ और इसके तराई वाले वन क्षेत्र में बढ़ती मानवीय गतिविधियों और इससे पड़ने वाले प्रभावों पर अध्ययन कर रही है.
1978 से जारी यह अध्ययन पहाड़ी के ऊपर मौजूद जैन तीर्थस्थल और इसके चारों ओर मौजूद 24 किलोमीटर लंबे परिक्रमा पथ के इर्द-गिर्द की हरियाली पर केंद्रित है. डॉ मिश्रा कहते हैं कि 1980 के दशक तक परिक्रमा पथ का 70 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र से घिरा हुआ था. आज पथ के 90 फीसदी हिस्से से वन क्षेत्र पूरी तरह गायब हो चुका है. इसकी सबसे बड़ी वजह तेजी से बढ़ती मानवीय गतिविधि है.
डॉ प्रशांत कुमार मिश्रा कहते हैं कि पारसनाथ वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने में इस क्षेत्र में तेजी से हो रहा विकास कार्य भी एक बड़ी वजह है. चार दशक पहले पारसनाथ एक दुर्गम तीर्थ स्थल माना जाता था. आज शिखरजी के करीब लोग बाइक से पहुंच जा रहे हैं.
इसकी तराई में मधुबन में बड़ी संख्या में होटल और धर्मशाला खुल गये हैं. इससे यहां आने वाले लोगों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. अध्ययन के अनुसार हर वर्ष यहां आने वाले पर्यटकों की संख्या में औसतन पांच से सात प्रतिशत की वृद्धि हो रही है.
पारसनाथ वन क्षेत्र में लकड़ी माफिया सक्रिय हैं. जिसका परिणाम है कि पारसनाथ जंगल से लगातार बेशकीमती पेड़ों की कटाई हो रही है. वहीं एक बड़ा हिस्सा पत्थर माफिया के हवाले है.
इसके वन क्षेत्र का 49.3 वर्ग किमी सेंचुरी एरिया घोषित है, लेकिन यहां खुलेआम पत्थरों का अवैध खनन हो रहा है. इस क्षेत्र में पेड़ काटना व पत्थर खनन करना तो दूर की बात है, पत्ता तोड़ना भी प्रतिबंधित है. लेकिन यहां सुरक्षा के नाम पर कुछ भी नहीं किया जाता है.
पारसनाथ की पहाड़ियों पर पालतू जानवरों के चरने के लिए भी नियम बनाये गये हैं. पूरे क्षेत्र में मधुबन, फुलीबगान, चतरो, निमियाघाट, चिरूवाबेड़ा, करमाटांड़, चकरबारी, ढोलकट्टा, धारडीह जैसे नौ ग्रोजिंग ब्लॉक हैं. नियम के अनुसार, हर तीन वर्ष में अलग-अलग ब्लॉक में पशुओं को चरने देना था, ताकि दूसरे क्षेत्र की हरियाली को फलने-फूलने का समय मिल जाये. उस एक ब्लॉक को छोड़ कर पूरा वन सुरक्षित रखा जाए, लेकिन ऐसा यहां कहीं दिखाई नहीं देता है. सभी वन क्षेत्र में पशु बेरोक-टोक चरते देखे जा सकते हैं.
डॉ मिश्रा बताते हैं कि 1978 से 1990 के बीच जहां पारसनाथ की चोटी पर मौजूद शिखर जी के दर्शन के लिए प्रतिदिन औसतन 300 लोग आते थे. अभी यह संख्या तीन हजार के करीब पहुंच गयी है. तीर्थयात्री व पर्यटक बड़ी मात्रा में प्लास्टिक का सामान साथ लाते हैं. परिक्रमा पथ पर चलते हुए तीर्थयात्री यह सामान फेंक देते हैं. इससे उसके इर्द-गिर्द न सिर्फ गंदगी बढ़ रही है, बल्कि जमीन की उर्वरा शक्ति का क्षय हो रहा है. इससे सबसे पहले छोटे वनस्पति नष्ट हुए हैं.
Posted By: Sameer Oraon