धनबाद : देश का संविधान जब बन रहा था तब इस बात की भी चर्चा की गयी कि पूरे देश में शराब बंदी लागू की जाए. लेकिन उसी वक्त आदिवासी समाज के प्रतिनिधि बने जयपाल सिंह मुंडा ने इसका विरोध किया. उन्होंने इसके पीछे धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का हवाला दिया था. लेकिन आज झारखंड का आदिवासी समाज इन परंपराओं को दरकिनार कर सादा जीवन जी रहा हैं.
हम बात कर रहे हैं धनबाद जिले के टुंडी प्रखंड की. जहां आज दर्जन भर से ज्यादा आदिवासी बहुल गांव के लोग मांसाहार और नशा छोड़ दिया है. इन गावों में मछियारा पंचायत के चैनपुर, विशुनपुर, कदवारा, कोल्हर, करनपुरा, मुरहारा और विरायपुर शामिल है. यहां संताल आदिवासी परिवार रहते हैं.
इनमें से 70 से 80 आदिवासी परिवारों ने मांसाहार से और शराब से दूरी बना ली है. यह सब कुछ पिछले दो दशकों के दौरान हुआ है. मांसाहार छोड़ने वाले आदिवासी परिवारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. बता दें कि जयपाल सिंह मुंडा ने तब उस वक्त इस बात की दलील दी थी कि संविधान में ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं रखा जाये, जो आदिवासी समाज की परंपराओं में बाधक बने.
इन गांवों का शाकाहारी आदिवासी परिवार अपने घरों की छत पर सफेद झंडा लगा लेता है. अपने घर के सामने की दीवार पर जय गुरु देव का संदेश लिख लेता है. यह इस बात की निशानी है कि यह परिवार शाकाहारी है. कुछ लोग झंडा नहीं लगाते हैं, लेकिन घर के सामने संदेश जरूर लिखते हैं.
चैनपुर के मताल हेंब्रम बताते हैं कि 20 साल पहले तक उनके गांव के लोग मांसाहारी थे और नशा करते थे. लेकिन जयगुरुदेव सत्संग मंडली के संपर्क में आने के बाद उन्होंने मांसाहार छोड़ दिया. उसी गांव की इंटर की छात्रा अनिता हेंब्रम बताती हैं कि उन्होंने तो जन्म से मांसाहार का सेवन नहीं किया. उनका परिवार भक्ति करता है और गुरुदेव के निर्देशों का पालन करता है.
कोल्हर के रहने वाले सोन लाल बताते हैं कि उनके इलाके में पहले हरी सब्जी नहीं होती थी. तब लोग मांसाहारी भोजन करते थे. लेकिन दो दशक में अब उनका परिवार इन बुराइयों से दूर है. वह सुबह उठकर पूजा करते हैं. सप्ताह में एक दिन गांव में जयगुरु देव की सत्संग करते हैं और महीना में एक बार राजगंज में गुरुदेव के आश्रम में सत्संग के लिए जाते हैं. बलि के लिए जानवर भी नहीं बेचते हैं
कदवारा के छेनू लाल हेंब्रम बताते कि जो आदिवासी परिवार जयगुरुदेव के संपर्क में आ गये हैं, वे अब उन जानवरों का कारोबार नहीं करते हैं, जिन्हें बलि दिया जा सके. या फिर मार कर खाया जा सके. उनलोगों ने मांसाहार को छोड़ने के साथ ही अपनी आजीविका का माध्यम भी बदल दिया है. ऐसे परिवार अब खेती बाड़ी पर अधिक ध्यान देते हैं. क्योंकि वे उन्हें अब खुद की जरूरत को पूरा करना होता है. सरकारी स्कूलों के एमडीएम में नहीं दिया जाता अंडा
इन गावों के सरकारी स्कूलों में आदिवासी परिवारों के शाकाहारी हो जाने के कारण मध्याह्न भोजन में बच्चों को अंडा नहीं दिया जाता है. चैनपुर स्थित नया प्राथमिक विद्यालय के प्रभारी सुरेश प्रसाद सिंह बताते हैं कि उनके विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के परिजनों का विशेष दबाव रहता है कि उनके बच्चों को मध्यान्न भोजन में अंडा नहीं दिया जाये. इसके स्थान पर बच्चों को केला व अन्य फल दिया जाता है.
इन गावों में आदिवासी परिवारों के मांसाहार छोड़ने का अच्छा परिणाम भी देखने को मिल रहा है. पहले इन परिवारों ने अपनी जरूरत के लिए सब्जी के खेती शुरू की थी. लेकिन अब यह बड़े पैमाने पर सब्जी की खेती (मुख्य रूप से बैगन, टमाटर, कद्दू, आलू) करते हैं. हाल के वर्षों में यहा के आदिवासी परिवारों ने आम की बागवानी शुरू की है. चैनपुर के रहने वाले छेनू लाल हेंब्रम भी ऐसे किसान हैं. वह बताते हैं कि उन्होंने आम्रपाली नस्ल की आम की बागवानी कर रहे हैं. उन्होंने अपनी एक एकड़ जमीन पर इस नस्ल का आम तीन वर्ष पहले लगाया था. इस बगीचे के खाली पड़ी जमीन पर उन्होंने बैगन लगा रखा है.
Posted By: Sameer Oraon